भारतीय बच्चों में गंभीर कुपोषण की कीमत आखिर कितनी है?

बच्चों में कुपोषण एक गंभीर समस्या है। इसकी वजह से साल 2006 से लेकर 2018 तक हर दिन दिन औसतन छह करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। बच्चों में दुर्बलता की समस्या से निपटने के लिए सामुदायिक आधारित देखभाल कारगर हो सकती है।
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हम अक्सर बच्चों में कुपोषण और अल्पपोषण के बारे में पढ़ते और बात करते आए हैं। लेकिन शायद ही कभी, इससे होने वाले आर्थिक नुकसान का आकलन किया जाता है। भारत में बच्चों के बीच “दुर्बलता की गंभीरता और गंभीर दुर्बलता” पर हाल ही में एक अध्ययन किया गया। यह अध्ययन खाद्य और पोषण के क्षेत्र में काम करने वाली एक गैर लाभकारी संस्था ‘द कोएलेशन फॉर फूड एंड न्यूट्रिशन सिक्योरिटी’ (सीएफएनएस) ने कराया। संभवतः यह ऐसा पहला अध्ययन है जिसमें कुपोषण से होने वाले नुकसान के आकलन की कोशिश की गई है।

अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि भारत में वर्ष 2006 से लेकर 2018 तक, हर दिन औसतन छह करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। यह नुकसान भारत में कमजोर या दुर्बल बच्चों का उपचार नहीं हो पाने की वजह से हुआ। यहां खास तौर पर दुर्बलता का अर्थ है कि बच्चे के कद के हिसाब से उसका वजन कम होना।

इसके अलावा, बच्चों में दुर्बलता के चलते हर साल सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 4.7% का आर्थिक नुकसान हुआ है।

कई स्वरूपों में पाए जाने वाले कुपोषण की वजह से लोग अपनी क्षमता का पूरा इस्तेमाल नहीं कर पाते और इससे देश का आर्थिक विकास घटता है। कुपोषण के शिकार बच्चे स्कूल में ठीक से पढ़ नहीं पाते जिससे भविष्य में उनके लिए नौकरी के अवसर सीमित हो जाते है।

पहले से कुपोषित माँओं में कम वजन वाले बच्चे होने की संभावना अधिक होती है। फोटो: यूनिसेफ इंडिया

कुपोषित वयस्क काम करने, स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं में योगदान देने और अपने परिवार की देखभाल करने में ज्यादा समर्थ नहीं होते।

मांएं कुपोषित होती हैं तो उनसे पैदा होने वाले बच्चों का वजन भी कम रहने की संभावना ज्यादा होती है. ऐसे बच्चों में शारीरिक और मानसिक बाधाओं का जोखिम भी ज्यादा होता है। ये लोग गरीबी से उबर नहीं पाते। कुपोषण की समस्या उनकी गरीबी और आर्थिक ठहराव के चक्र को ज्यों का त्यों बनाए रखती है।

इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है क्योंकि अर्थव्यवस्था भी आगे नहीं बढ़ती और बच्चों की मौतों की वजह से मानव संसाधन में भी निवेश नहीं हो पाता. ये मौतें रोकी जा सकती हैं। इनमें 45 प्रतिशत मौतों की वजह पर्याप्त पोषण ना मिल पाना है। असमय व्यस्कों की मृत्युदर के लिए खान-पान संबंधी और इंसानों से इंसानों में ना फैलने वाली बीमारियां भी जिम्मेदार हैं।

‘निर्बलता’ से होने वाले नुकसान का आकलन

बच्चों में निर्बलता देश में पोषण संबंधी एक मूक आपातकाल है जिस पर तत्काल ध्यान दिए जाने की जरूरत है।

लेकिन इससे होने वाले नुकसान का आकलन कर पाना काफी मुश्किल है, क्योंकि यह दुर्बलता ज्यादा समय तक नहीं रहती। बच्चे आम तौर पर या तो इससे उबर जाते हैं या फिर मर जाते हैं। दूसरा, निर्बलता के साथ बच्चे अन्य बीमारियों से भी घिर जाते हैं। इसलिए दुर्बलता की वजह से होने वाले नुकसान को परिभाषित करना मुश्किल होता है।

‘द कोएलेशन फॉर फूड एंड न्यूट्रिशन सिक्योरिटी’ के हालिया अध्ययन में बच्चों में निर्बलता को लेकर अक्सर पूछे जाने वाले सवालों का जवाब देने का प्रयास किया गया है। इसका उद्देश्य इस बात पर जोर देना था कि अगर देश में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में निर्बलता को कम करने के लिए कदम नहीं उठाए गए तो उसकी कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।

भारत न केवल COVID19 प्रकोप से लड़ रहा है, बल्कि मौजूदा अल्पपोषण से भी जूझ रहा है। फोटो: यूनिसेफ इंडिया

इस अध्ययन में, देश में बच्चों की निर्बलता के इतिहास का विश्लेषण किया गया। इसमें वर्तमान परिदृश्य (2005-18) को सामने रख, आर्थिक और सामाजिक स्तर पर होने वाले नुकसान का आकलन किया गया। अध्ययन में देश के निर्बल बच्चों की स्थिति में सुधार के लिए, नीति निर्माताओं के लिए कुछ सिफारिश भी की गई हैं।

बच्चों में निर्बलता के कारण और प्रभाव

निर्बलता यानी कद की तुलना में कम वजन, यह पांच साल से कम उम्र के बच्चों के बीच मृत्यु का एक बड़ा कारण है। निर्बलता या दुबलापन ज्यादातर मामलों में तेजी से वजन घटने की तरफ इशारा करता है। इससे बार-बार या लंबे समय तक बने रहने वाले संक्रमण, भोजन की गंभीर किल्लत, खाने के लिए अपर्याप्त खाना या फिर खराब गुणवत्ता वाला खाना मिलने का भी संकेत मिलता है।

इसके प्रमुख कारणों में समय पर अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं ना मिलना, मां का पर्याप्त दूध ना मिल पाना, अच्छी गुणवत्ता का सहायक भोजन ना मिलना, घर में राशन की किल्लत, साफ पानी और साफ सफाई की पर्याप्त सुविधाएं ना होना शामिल है।

जन्म के समय कम वजन वाले या समय से पहले जन्मे बच्चों में निर्बलता का खतरा अधिक होता है। निर्बल बच्चों में बार-बार संक्रमण होने और मृत्यु दर का जोखिम भी ज्यादा होता है। लंबे समय तक निर्बलता रहने से बच्चों का विकास रुक जाता है। फिर उनकी लंबाई भी रुक जाती है।

बच्चों का पोषण और महामारी

भारत न केवल कोविड-19 महामारी से लड़ रहा है बल्कि अल्पपोषण की समस्या से भी जूझ रहा है। कोविड-19 के फैलाव ने भारत की सबसे कमजोर आबादी की सेहत, उसके पोषण, आजीविका और इनके लिए चलाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं को खासा प्रभावित किया है। लोगों पर इसका प्रभाव लंबे समय तक रहेगा।

ग्रामीण मध्य प्रदेश के आंगनबाडी केंद्र में मध्याह्न भोजन बांटती आंगनबाड़ी कार्यकर्ता। फोटो: यूनिसेफ इंडिया

कुपोषण का असर, खासकर बच्चों में बढ़ गया है, वह भी ऐसे माहौल में, जहां स्वास्थ्य और पोषण से जुड़ी सेवाएं सिमट गई हैं या ध्वस्त ही हो गई है, जहां समाज के भीतर देखभाल करने वाला ढांचा तहस नहस हो गया है और हर जगह सिर्फ पीड़ा थी।

हम यह भी समझ सकते हैं कि इसने प्रतिदिन खाए जाने वाले भोजन की संख्या पर यथासंभव प्रभाव डाला है। पर्याप्त आहार ना मिलने से बीमारियों की घटनाओं में भी वृद्धि हुई।

पिछले साल कोविड-19 के प्रकोप और उसके बाद लगे लॉकडाउन के चलते बड़े पैमाने पर रोजगार छिने और खाद्य असुरक्षा बढ़ी। संभव है कि बच्चों के पोषण पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

विश्व स्तर पर बच्चों में निर्बलता कम से कम 14.3 प्रतिशत बढ़ सकती है। ऐसे मामलों का एक बड़ा हिस्सा दक्षिण एशियाई क्षेत्रों से आ रहा है।

महामारी कब तक रहेगी और उससे खान-पान, सेहत और सामाजिक सुरक्षा प्रणाली पर पड़ने वाले प्रभाव कब तक रहेंगे, यह बताया नहीं जा सकता है। इसलिए पोषण संबंधी मानकों पर पड़ने वाले इसके प्रभावों का आकलन करना भी काफी मुश्किल है।

आशंका यह भी है कि पांच साल तक के बच्चों की मृत्युदर में वृद्धि देखने को मिल सकती है- ऐसे बहुत से मामलों की वजह निर्बलता भी हो सकती है। इसलिए बच्चों में निर्बलता के मुद्दे से प्राथमिकता के आधार पर निपटना और भी जरूरी हो जाता है।

ग्रामीण झारखंड में पोषण पुनर्वास केंद्र में कॉटन की डोरी से बच्चों की बांह नापती नर्स। फोटो: यूनिसेफ इंडिया

सामुदायिक आधारित देखभाल की जरूरत

सामुदायिक स्तर पर देखभाल छोटे बच्चों में गंभीर कुपोषण की समस्या को दूर करने की एक पद्धति है। अधिकांश कुपोषित बच्चों को सामुदायिक स्तर या घर पर देखभाल से ठीक किया जा सकता है। बहुत कम बच्चों को स्वास्थ्य सुविधाओं की जरूरत पड़ती है.

बच्चों में निर्बलता की पहचान जल्दी हो जाए तो उनमें बीमारियों को पनपने से रोका जा सकता है। भारत में फिलहाल 1,151 पोषण पुनर्वास केन्द्र है जो गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों (एसएएम) का इलाज कर रहे हैं। हालांकि गंभीर रूप से कुपोषित सभी बच्चों को सुविधा आधारित उपचार दे पाना मुमकिन नहीं है- न तो सामाजिक रूप से और न ही प्रदाता के दृष्टिकोण से। और न ही सभी कुपोषित बच्चों को सुविधा आधारित उपचार की जरूरत होती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने गंभीर रूप से कुपोषित उन बच्चों के समुदाय आधारित प्रबंधन के दिशा निर्देश तय किए हैं, जिन्हें कोई गंभीर बीमारी नहीं है। इससे पीड़ितों तक उपचार की सुविधा पहुंचाने में मदद मिलेगी और इसकी लागत भी कम हो सकती है।

गंभीर कुपोषित बच्चों का उपचार, विश्व स्तर पर कुपोषण का बोझ कम करने के लिए सबसे किफायती तरीकों में से एक माना गया है। नीति निर्माताओं को गंभीर कुपोषित बच्चों के प्रबंधन के प्रावधान की समीक्षा करनी चाहिए। इस प्रबंधन से दुर्बलता की जल्दी पहचान होती है और उसके निदान पर आने वाली लागत भी घटती है।

पांच साल से कम उम्र के बच्चों में दुर्बलता को रोकना और उसका इलाज करने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। यह सिर्फ आर्थिक कारणों से ही जरूरी नहीं है, बल्कि इससे बच्चों के जीवित रहने और अच्छा जीवन जीने के अधिकार को बनाए रखा जा सकेगा।

सभी तक इलाज की भरोसेमंद और व्यापक सुविधा पहुंचे, इसके लिए दुर्बलता को दूर करने के लिए समुदाय आधारित प्रबंधन पर काम किया जाए।

(डॉ. सुजीत रंजन  ‘कोएलेशन फॉर फूड एंड न्यूट्रिशन सिक्योरिटी’ के कार्यकारी निदेशक हैं और दो दशकों से अधिक समय से सामाजिक विकास क्षेत्र से जुड़े रहे हैं। उनके ये विचार व्यक्तिगत हैं।)

अनुवाद- संघप्रिया मौर्य

अंग्रेजी में खबर यहां पढ़ें

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