एपीएमसी को साल 2006 में खत्म करने के बाद के बिहार के हालातों से सबक लेना क्यों जरूरी है?

इससे पहले कि केंद्र सरकार पिछले साल पारित तीन कृषि कानूनों को लागू करने पर विचार करे, उन्हें बिहार का अध्ययन करते हुए वहां के हालातों से सबक लेना चाहिए। प्राथमिक कृषि साख समितियां अपनी अक्षमता और पारदर्शिता की कमी के कारण खरीद लक्ष्यों को प्राप्त करने में विफल है।

ऐसे समय में जब भारत कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर से गुज़र रहा है, केंद्र सरकार द्वारा कृषि सुधार के नाम पर लाए गए तीन कानूनों ने समस्याओं को और बढ़ा दिया है।

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल पारित तीन कृषि कानूनों के कार्यान्वयन पर रोक लगा दी थी। हालांकि, इसके कार्यान्वयन पर कोई भी निर्णय लेने से पहले सरकार को बिहार पर एक नज़र डालनी चाहिए और राज्य की कृषि अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभावों को समझना चाहिए।

साल 2006 में, बिहार ने अपनी एपीएमसी यानी एग्रीक्लचर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी को खत्म कर दिया था। बिहार ने डेढ़ दशक पहले ही नए कृषि कानूनों के प्रभावों का अनुभव कर लिया है, यानी तीन नए कृषि क़ानूनों के तहत केंद्र सरकार किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से बाहर अपनी उपज को बेचने की जो मंज़ूरी अभी दे रही है, वह बिहार में साल 2006 से ही लागू है। बिहार के लोगों ने इसके फायदे और नुकसान का अनुभव सबसे पहले किया।

पिछले साल सितंबर में संसद द्वारा तीन नए कृषि विधेयकों को पारित करने के ठीक बाद किसानों ने इसका विरोध शुरू कर दिया था। वे तीनों कानूनों को निरस्त करने की मांग कर रहे हैं।

इन कानूनों में क्या है?

तीनों कृषि कानूनों के तहत एपीएमसी मंडियों को खत्म करने, अनुबंध खेती के लिए एक कानूनी ढांचा तैयार करने और इसके साथ ही आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करने की बात कही गई है।

एपीएमसी मंडियों को क्यों खत्म किया जा रहा है?

एपीएमसी मंडियों को खत्म करने के पीछे का मूल विचार वैकल्पिक व्यापारिक चैनल बनाने के लिए कृषि बाजारों को उदार बनाना है। सरकार का कहना है कि इस बदलाव के जरिए किसानों और व्यापारियों को किसानों की उपज की बिक्री और खरीद से संबंधित आजादी मिलेगी, जिससे अच्छा माहौल पैदा होगा और दाम भी बेहतर मिलेंगे। इस अध्यादेश से किसान अपनी उपज देश में कहीं भी, किसी भी व्यक्ति या संस्था को बेच सकते हैं।

अगर देश बिहार के उदाहरण से नहीं सीखता है, तो उसे कृषि का महत्वपूर्ण नुकसान होगा, और देश की अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे ढह जाएगी।

लेकिन आंदोलनकारी किसान सरकार के इस तर्क से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि सरकार के इस फैसले से मंडी व्यवस्था खत्म हो जायेगी। इससे किसानों को नुकसान होगा और कॉरपोरेट और बिचौलियों को फायदा होगा। सरकार इसके जरिये एपीएमसी के एकाधिकार को खत्म करना चाहती है। अगर यह खत्म हो गया तो व्यापारियों की मनमानी बढ़ेगी और किसानों को उपज की सही कीमत नहीं मिलेगी।

कानून का बिहार पर प्रभाव

बिहार में एपीएमसी कानून को खत्म किए जाने के 15 साल बाद भी राज्य की कृषि विपणन व्यवस्था निजी निवेश को आकर्षित नहीं कर पा रही है। एपीएमसी को खत्म किए जाने और निवेश की कमी की वजह से सरकार को राजस्व की हानि हो रही है।

इस नए कानून की वजह से सरकार द्वारा नियंत्रित कृषि बाजार व्यवस्था निजी हाथों में चली गई है। इसकी वजह से राज्य में उपज की तौल, छंटाई, भंडारण और खरीद के लिए बुनियादी ढांचे का अभाव हो गया है।

एपीएमसी को खत्म किए जाने का नकारात्मक प्रभाव राज्य में कृषि और इससे संबंधित क्षेत्रों के ग्रोथ रेट में भी देखा गया है। यह साल 2004-2005 में 14.9 प्रतिशत थी,(1999-2000 के स्थिर कीमतों पर) जो घटकर साल 2018-19 में 0.6 प्रतिशत तक पहुंच गई। (2011-12 के स्थिर कीमतों पर)

हालांकि, बिहार में एपीएमसी को खत्म करने के बाद इसके विकल्प के तौर पर दो मुख्य फसलों चावल और गेहूं की खरीद के लिए ट्रेड यूनियनों के माध्यम से प्राथमिक कृषि साख समितियों (PACS) की व्यवस्था की गई है, लेकिन इसके भी कार्यान्वन और कथित सफलताओं पर सवाल उठते रहे हैं।

पिछले साल सितंबर में भारतीय संसद द्वारा तीन नए कृषि विधेयकों को पारित करने के ठीक बाद, भारतीय किसानों ने विरोध शुरू कर दिया, कानूनों को निरस्त करने की मांग की।

बिहार में PACS का क्या है हाल?

प्राथमिक कृषि साख समितियां अपनी अक्षमता और पारदर्शिता की कमी के कारण खरीद लक्ष्यों को प्राप्त करने में विफल रही है। इसके अलावा, PACS फसल की कटाई के समय गेहूं की खरीद नहीं करते हैं। सभी किसानों के पास भंडारण क्षमता नहीं होती है। किसानों को तत्काल पैसे की जरूरत होती है क्योंकि बिहार में लगभग सभी किसान (97 फीसदी) सीमांत (एक हेक्टेयर से कम के मालिक) और छोटे किसान (दो हेक्टेयर से कम के मालिक) हैं। नतीजतन किसानों पर अपनी फसल को या तो बाजार में या बिचौलियों को कम कीमत पर बेचने का भारी दबाव होता है।

तथ्यों की मानें तो PACS चावल खरीदती है लेकिन फिर भी किसान अपनी उपज उन्हें नहीं बेचना चाहते। ऐसा इसलिए है क्योंकि PACS न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से भी कम कीमत पर किसानों का अनाज खरीदती है। इसके साथ ही इसमें भुगतान में भी काफी समय लगता है।

गया और पूर्णिया जिले में किए गए एक सर्वेक्षण से भी यह बात स्पष्ट हुई है कि किसान अपनी फसल PACS को नहीं बेचना चाहते। लेकिन किसानों ने इसके अलग-अलग कारण बताए।

क्या रहे सर्वेक्षण के नतीजे?

इस सर्वेक्षण से पता चला कि गया जिले में 85.7 प्रतिशत किसान उत्तरदाताओं ने कहा कि वे अपना गेहूं बाजार में बेचते हैं। इसके साथ ही पूर्णिया जिले में सर्वेक्षण में शामिल 50 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्हें अपनी फसल बिचौलियों को बेचना पड़ता है।

दोनों ही जिलों में बहुत कम किसानों ने कहा कि वे अपनी फसल PACS को बेचते हैं। (चित्र: 1) इसके अलावा, गेहूं का बाजार मूल्य अन्य सभी उपलब्ध विकल्पों की तुलना में अधिक है। (चित्र: 2) लेकिन इसके बावजूद किसानों का एक बड़ा हिस्सा बिचौलियों को अपना गेहूं बेचने को मजबूर है, जिससे उन्हें भारी नुकसान होता है।

वहीं, चावल के मामले में गया जिले में किसानों का एक बड़ा हिस्सा (72.2 प्रतिशत) ऐसा है जो अपनी उपज बाजार में बेचता है जबकि पूर्णिया जिले में 52.1 प्रतिशत किसान इसे बिचौलियों को बेचते हैं। केवल 22 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने ही कहा कि उन्होंने अपना चावल PACS को बेचा है। (चित्र: 3)

इस सर्वेक्षण में यह बात भी निकलकर सामने आई कि दोनों जिलों में चावल का बाजार मूल्य PACS के मुल्य की तुलना में काफी कम है। (चित्र: 4)

लेकिन PACS में चावल की कीमत (हमारे सर्वेक्षण में किसानों की प्रतिक्रियाओं के अनुसार) एमएसपी के कीमत (जो लगभग 18.68 रुपये से 18.88 रुपये प्रति किलोग्राम है) की तुलना में बहुत अधिक है, जो कि PACS में चावल की कम कीमतों के पहले के तथ्य से बिल्कुल उल्टा है। इस तरह ऐसा कहा जा सकता है किसान PACS में चावल नहीं बेचना चाहते, इसका कारण वहां चावल की कीमत का कम होना नहीं हो सकता।

इसके अलावा, गांव कनेक्शन की एक रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि बिचौलियों ने पहले किसानों से कम कीमत पर चावल खरीदा और इसे अन्य राज्यों की एपीएमसी मंडियों में अधिक एमएसपी मूल्य पर बेच दिया।

सर्वेक्षण के मुताबिक ज्यादातर किसान PACS में चावल इसलिए नहीं बेचना चाहते क्योंकि उन्हें इसका तत्काल भुगतान नहीं किया जाता है। अधिकांश किसानों को अपना चावल बाजार में या PACS के बजाय बिचौलियों को बेचकर भारी नुकसान उठाना पड़ता है।

एपीएमसी मंडियों को खत्म करने के कारण बिहार में किसानों की आय में कमी आई है, जबकि इस दौरान दोनों मुख्य फसलों, चावल (2004-05 में 0.79 मीट्रिक टन/हेक्टेयर से 2018-19 में 1.95 मीट्रिक टन/हेक्टेयर) और गेहूं (2004-05 में 1.61 मीट्रिक टन/हेक्टेयर से 2018-19 में 3 मीट्रिक टन/हेक्टेयर) के पैदावार में बढ़ोतरी हुई है।

यह PACS जैसी सरकारी खरीद व्यवस्था की विफलता, ग्राम स्तर पर विपणन सुविधाओं के नहीं होने और किसानों को तुरंत भुगतान करने के संबंध में समितियों की अक्षमता को दिखाता है।

इसकी वजह से किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है क्योंकि वे अपनी उपज सरकारी खरीद व्यवस्था होने के बावजूद बिचौलिए या खुले बाजारों में बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं।

अगर सरकार बिहार के इस उदाहरण को गंभीरता से नहीं लेती है तो देश को इसकी वजह से भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है और हो सकता है कि हमारी अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे ढह जाए।

(सहेली दास अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और विकास केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, भारत में आईसीएसएसआर फेलो और पीएचडी स्कॉलर हैं। उनका शोध ज्यादातर भारतीय कृषि और भारत-गंगा के मैदान के साथ राज्यों में जलवायु परिवर्तन अनुकूलन पर केंद्रित है।)

अंग्रेजी में खबर पढ़ें

अनुवाद- शुभम ठाकुर

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