शिवसागर जिले के बामुनपुखुरी में एक चाय बागान में काम करने वालीं 25 वर्षीय रिया महानंदा आठ महीने की गर्भवती हैं और बीमार भी। उन्होंने गर्भावस्था के सातवें महीने तक ठीक काम किया और अब वह सवैतनिक मातृत्व अवकाश पर हैं। जब वे काम कर रही थीं, तब 275 रुपए के लिए उन्हें प्रतिदिन 15 किलोग्राम चाय की पत्तियां तोड़नी पड़ती थीं।
एक दिन छुट्टी ले ली या फिर किसी दिन टारगेट पूरा नहीं हुआ तो उस दिन का वेतन काट लिया जाता है। होने वाली मां इस नुकसान को वहन करने की स्थिति में नहीं है, बावजूद इसके लिए उन्होंने मातृत्व अवकाश लिया तो है, लेकिन वे चिंतित हैं।
“मैं अपने अजन्मे बच्चे को लेकर चिंतित हूं। क्या होगा अगर मुझे कोरोना हो जाए, ” महानंदा ने गांव कनेक्शन से पूछा। “चाय बागान में एक अस्पताल है जहाँ मैं काम करती हूँ लेकिन वहाँ शायद ही कोई डॉक्टर मौजूद हो। यह आमतौर पर दाइयाँ और नर्सें होती हैं जो बच्चों को जन्म देती हैं, ” वे आगे कहती
COVID-19 महामारी ने असम के 800 चाय बागानों में चाय तोड़ने वालों की स्थिति को और दयनीय बना दिया है, खासतर महिलाओं की। दूसरी लहर के दौरान चीजें कठिन हो गईं, जहां राज्य के 500 से अधिक चाय बागान प्रभावित हुए, जिनमें काम करने वाले 100,000 से अधिक श्रमिक कोरोनो वायरस के चपेट में आ चुके हैं जिसमें लगभग 100 लोगों की जान चली गई थी। कई बागान विशेष रूप से ऊपरी क्षेत्रों को कंटेनमेंट जोन में बदल दिया गया था।
“कुछ महिलाएं शौचालय या पीने के पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं के बिना गर्भावस्था के आखिरी दिनों में भी बढ़िया काम करती हैं। घरेलू हिंसा, नशे का सेवन और कम उम्र में शादी ने इन महिलाओं में मानसिक तनाव को जन्द दिया है। ” महिला चाय श्रमिकों से संबंधित मुद्दों पर काम करने वालीं सामाजिक कार्यकर्ता रेणुका गोवाला ने गांव कनेक्शन को बताया।
“और ये मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे COVID19 के कारण तेज हो गए हैं। महामारी के दौरान काम करना, अज्ञात के डर और बिना किसी समर्थन के कई महिला चाय तोड़ने वालों में अवसाद पैदा हो गया है, ” शिवसागर जिले के 55 वर्षीय स्कूल टीचर चाकिमुख गौला कहते हैं, जो चाय श्रमिकों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ 30 अगस्त को मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा शर्मा से मिले थे और उन्हें चाय बागानों में काम करने वाली महिला श्रमिकों की मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं और दूसरे मुद्दों से अवगत कराया था।
चाय तोड़ने वालों का मानसिक स्वास्थ्य एक ऐसा क्षेत्र है जो उपेक्षित रहता है। गौला ने कहा कि अधिकांश उद्यानों में मनोचिकित्सक या मनोवैज्ञानिक भी नहीं हैं, और अगर किसी को उनसे परामर्श करने की आवश्यकता होती है तो उन्हें उपचार के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है।
चाय श्रमिकों के बीच बढ़ते मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे
जैसा कि देश के अन्य हिस्सों में हुआ है, महामारी ने असम में स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढांचे को खराब कर दिया है, खासकर चाय बागानों में जहां एक बड़ी आबादी काम करती है। वहां भी मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे वास्तविक समस्या के रूप में उभर रहे हैं, खासकर महिलाओं में।
“अवसाद, चिंता विकार, पैनिक अटैक, व्यसन, मनोदैहिक विकार आदि महिला चाय श्रमिकों में बहुत आम हैं और उन्हें इनके बारे में पता भी नहीं होता।” नीलेश मोहिते, सलाहकार मनोचिकित्सक, ने गांव कनेक्शन को बताया। वह परिवर्तन ट्रस्ट और गैर-लाभकारी संस्था नॉर्थईस्ट ट्रस्ट (एएनटी) के साथ काम करते हैं जो राज्य के चिरांग जिले में काम करता है। मोहिते चार साल से चाय जनजाति समुदायों के साथ काम कर रहे हैं और शिवसागर, चबुआ, बिश्वनाथ चरियाली, तेजपुर, ढेकियाजुली और सिलचर में चाय बागानों में काम कर चुके हैं।
“उन्माद, स्किज़ोफ्रेनिया और बायपोलर कंडीशन चाय श्रमिकों के बीच पाई जाने वाली कुछ गंभीर मानसिक स्वास्थ्य बीमारियां हैं। हमने महामारी के दौरान आत्महत्या की प्रवृत्ति में भी भारी बढ़ोतरी देखा है। ” वे आगे कहते हैं।
रिया महानंदा जैसी सैकड़ों गर्भवती चाय श्रमिक हैं जो अपने बच्चों को जन्म देते समय मानसिक तनाव और आघात से गुजर रही हैं, और स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे की खराब स्थिति की वजह से उनकी मदद नहीं हो पा रही है।
गुवाहाटी स्थित मेडिसिटी अस्पताल की वरिष्ठ सलाहकार, न्यूरोसाइकियाट्रिस्ट संगीता दत्ता कहती हैं,”गर्भावस्था के दौरान प्रोजेस्टेरोन हार्मोन का स्तर बढ़ जाता है। सीओवीआईडी की स्थिति ने गर्भवती चाय-श्रमिकों को और अधिक तनाव की ओर ढकेल दिया है, “
“अब इन महिलाओं को अपने दुर्व्यवहार करने वालों के साथ अधिक संपर्क समय के लिए मजबूर किया जाता है और, स्कूल बंद होने के कारण उन्हें अपने बच्चों को भी अधिक समय देना पड़ता है, ” दत्ता ने कहा कि महामारी ने महिला चाय श्रमिकों के बीच मानसिक स्वास्थ्य के संकट को बढ़ा दिया है।
खराब स्वास्थ्य व्यवस्था, रिक्त पद
इस महीने की शुरुआत में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन असम द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, राज्य के 50 प्रतिशत चाय बागानों में डॉक्टर नहीं हैं। राज्य के स्वास्थ्य विभाग के सूत्रों ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि उद्यान अस्पतालों में कई स्वास्थ्य कर्मियों के पद खाली पड़े हैं।
रिक्त पदों में स्वास्थ्य सहायकों के लिए 175 पद, 200 सामान्य नर्सिंग और मिडवाइफरी (जीएनएम) नर्स, 660 फार्मासिस्ट, 300 सहायक नर्स मिडवाइफ (एएनएम), 350 प्रयोगशाला तकनीशियन और 600 वार्ड बॉय शामिल हैं। यहां तक कि चाय बागानों में बुनियादी चिकित्सा संसाधनों की कमी होने के कारण, मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों का ध्यान रखना बहुत दूर की बात है।
जबकि बागान श्रमिकों के लिए चिकित्सा सलाहकार बोर्ड ने निर्देश दिया था कि चाय बागान के अस्पतालों में 200 आवश्यक दवाएं होनी चाहिए जिनमें से 50 से अधिक उपलब्ध नहीं हैं। स्वास्थ्य विभाग के सूत्रों ने कहा।
मुश्किल में महिला चायकर्मी
महानंदा के लिए उनकी एक मात्र सहारा 43 वर्षीय जयंती बाग या बाइदेव (बहन) है, शिवसागर के नजीरा में मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) है। वास्तव में असम के कई हिस्सों में, यह आशा कार्यकर्ता हैं जो चाय तोड़ने वालों की समस्याओं का सामना करते हैं, जिनके पास कोई और नहीं है। लेकिन उन्हें मानसिक स्वास्थ्य के मामलों को संभालने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाता है।
गुवाहाटी से 455 किलोमीटर दूर डिब्रूगढ़ जिले के घोघराजन टी एस्टेट में जब शांति कुर्मी को दूसरा बच्चा होने वाला था तब आशा बायदेव ने ही उनकी मदद की थी। तीन महीने पहले असम मेडिकल कॉलेज डिब्रूगढ़ में अपने दूसरे बच्चे, एक लड़के को जन्म देने वाली 21 वर्षीय कुर्मी ने कहा, “मेरे लिए कोई दवा उपलब्ध नहीं थी और यह बाइदेव ही थीं जो मेरे लिए दवा ले आईं।” कुर्मी ने गांव कनेक्शन को बताया।
जब असम की सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर COVID-19 के रोगियों का भार बढ़ रहा था तो उसी दौरान मानसिक स्वास्थ्य ने भी अपना रूप दिखाया। राज्य भर में लगाए गए लॉकडाउन ने कुर्मी और महानंदा जैसे चाय श्रमिकों के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं और स्वास्थ्य कर्मियों तक पहुंच को और भी कठिन बना दिया।
राज्य के चाय बागानों में खराब स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को ध्यान में रखते हुए असम टी ट्राइब स्टूडेंट्स एसोसिएशन (एटीटीएसए) ने इस साल 7 मई को एक प्रेस विज्ञप्ति में चाय बागान समुदाय की ओर से मुख्यमंत्री से कई मांगें कीं। इसमें प्रत्येक बगीचे में ऑक्सीजन सहायता के साथ COVID-19 देखभाल केंद्र स्थापित करना, श्रमिकों और परिवारों के लिए टीकाकरण, N-95 मास्क वितरण, अन्य शामिल हैं।
इस बीच, वायरस को भविष्य में फैलने से रोकने के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन असम और स्वास्थ्य सेवा निदेशक (परिवार कल्याण) के तहत चाय बागानों में कई COVID19 टीकाकरण अभियान चल रहे हैं।
असम सरकार का दावा है कि उसने 2018 में चाय बागानों में गर्भवती महिलाओं के लिए मजदूरी मुआवजा योजना शुरू करने जैसे कदम उठाए हैं। इस नकद हस्तांतरण कार्यक्रम के तहत, चाय बागानों में काम करने वाली गर्भवती महिलाओं को सरकार 12,000 रुपए देती है।
इसके अतिरिक्त राज्य सरकार ने 130 मोबाइल चिकित्सा इकाइयां भी तैनात की हैं, जिनमें से 80 चाय बागान क्षेत्रों में हैं। वर्तमान में 414 चाय बागान हर महीने इन मोबाइल इकाइयों द्वारा कवर किए जाते हैं। चल चिकित्सा इकाइयाँ एक चिकित्सक, नर्स, पैरामेडिकल स्टाफ की उपस्थिति में चलते हैं और बुनियादी चिकित्सा सुवधाओं से लैस होते हैं।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन असम के आंकड़ों के अनुसार जून 2017 और जनवरी 2019 के बीच इन मोबाइल चिकित्सा इकाइयों द्वारा आयोजित 47,020 शिविरों में 20 लाख से अधिक रोगियों का इलाज किया गया है। हालांकि इसमें यह नहीं बताया गया है कि मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर कितना काम हुआ है।
मानसिक स्वास्थ्य क्लीनिक
इस बीच 2017 में मानसिक स्वास्थ्य पर पहला मासिक क्लीनिक चबुआ में स्थापित किया गया था। यह जीवन शिक्षा द्वारा शुरू किया गया था, जो कि चबुआ, डिब्रूगढ़ जिले में स्थित एक गैर-लाभकारी संस्था है, जिसमें एक्शन नॉर्थईस्ट ट्रस्ट का भी सहयोग है।
पिछले चार वर्षों में 44 चिकित्सकीय कार्यशालाएं आयोजित की गई हैं जिनमें कई चाय बागान भी शामिल रहे हैं।
ये क्लीनिक ज्यादातर तिनसुकिया और डिब्रूगढ़ जिले में संचालित होते हैं। 2020-21 में महामारी के दौरान भी आयोजित किए गए शिविरों में रोगी पंजीकरण की संख्या में वृद्धि देखी गई है। जीवन शिक्षा के स्वयंसेवक जो जिले के गांवों से भी हैं, क्लिनिक शिविरों में ही अपना समय बीताते हैं और स्वयंसेवा करते हैं।
हालांकि ज्यादा फीस और दवा की लागत कई चाय श्रमिकों को इन मानसिक स्वास्थ्य शिविरों से सहायता लेने से रोक रही है। “कई लोगों ने आना बंद कर दिया है क्योंकि वे पहले पंजीकरण के लिए 400 रुपए और फिर मरीज के ठीक होने तक 350 रुपए प्रति हर महीने देने में असमर्थ हैं। शुल्क में डॉक्टरों और दवा के साथ परामर्श शामिल है, ” जीवन शिक्षा के प्रबंध ट्रस्टी प्रोशिक दास ने गांव कनेक्शन को बताया।
“सरकार के पास मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों को चलाने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं, इसलिए हमने पहल की,” मैनेजिंग ट्रस्टी ने कहा।
वे आगे कहते हैं कि हमारे क्लीनिक में गंभीर मानसिक विकारों के मरीज हैं। मानसिक विकारों के बारे में जागरूकता की कमी के कारण, वे हमारे पास तभी आते हैं जब बीमारी सिज़ोफ्रेनिया आदि का रूप ले लेता है।
अधिकांश चाय बागान श्रमिकों के लिए शिक्षा एक बहुत बड़ी बात होती है। जागरूकता की कमी और अत्यधिक गरीबी के कारण वे इलाज के लिए स्थानीय झोलाछापों और तांत्रिकों पर निर्भर हैं। दास कहते हैं कि यह अक्सर मानसिक स्वास्थ्य बीमारियों को गंभीर स्तर पर ढकेल देता है।
ये रिपोर्ट स्वतंत्र पत्रकारों द्वारा नेशनल फाउंडेशन ऑफ इंडिया फेलोशिप के तहत की गई है। महिलाओं अनुरोध पर महिला चाय श्रमिकों के नाम बदल दिए गए हैं।