रीवा, मध्य प्रदेश। राकेश कुंदर बड़ी ही बारीकी से एक सुपारी को तराशने में लगे हैं। उनकी कई घंटों की मेहनत रंग लाती है और यह एक छोटी लकड़ी की मूर्ति में बदल जाती है। मध्य प्रदेश के रीवा के रहने वाले 47 साल के शिल्पकार अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी हैं, जो बीटल नट यानी नन्हीं सुपारी से कलाकृतियां बनाने का काम करती आई हैं।
राकेश ने गाँव कनेक्शन को बताया, “यह 1932 की बात है जब मेरे दादा रामसिया कुंदर रीवा रियासत के महाराजा गुलाब सिंह के दरबार में दरबारियों को पान और सुपारी परोसते थे।”
राकेश ने बताया, “मेरे दादाजी को एक छोटा सा सिंदूर का डब्बा बनाने का विचार आया। उन्होंने उसे बनाया और दरबार में सभी लोगों के बीच बांट दिया। रॉयल्टी ने इसे खासा पसंद किया और मेरे दादा को खुश होकर पचास रुपये का इनाम भी दिया गया।”
तब से कुंदर परिवार सुपारी से कलाकृतियां बनाने में लगा है। राकेश खुद पिछले 32 सालों से इस कला से जुड़े हैं।
राकेश कुंदर के पास लक्ष्मी और गणेश की मूर्तियां हमेशा तैयार और उपलब्ध रहती हैं। उन्होंने कहा, “लेकिन ताजमहल, छोटे लैंप, जानवरों की मूर्तियां आदि जैसी अन्य चीजें मैं ऑर्डर पर ही बनाता हूं।”
सुपारी से खिलौने बनाना
शिल्पकार ने बताया कि इसके लिए सबसे पहले बाजार में मिलने वाली सबसे बड़ी सुपारी का चयन किया जाता है। फिर एक बिजली के औजार से वह सुपारी को उस खिलौने के अलग-अलग हिस्सों में तराशते हैं जिन्हें बनाने का उनका मन है और अंत में उन हिस्सों को एक साथ चिपका दिया जाता है। इस तरह से एक पर्यावरण के अनुकूल सुपारी खिलौना बनकर तैयार होता है।
खिलौने या मूर्ति की कीमत उसके आकार पर निर्भर करती है। (सात इंच की कलाकृति के लिए) इनकी कीमत 600 रुपये से ज्यादा हो सकती है। वे आम तौर पर ऐसे टुकड़े बनाते हैं जो लगभग 13 इंच तक लंबे होते हैं। अगर इससे बड़ा कुछ दुर्लभ बनाना है, तो उसे सिर्फ ऑर्डर पर ही तैयार किया जाता है।
कुंदर परिवार के मुताबिक, इस काम में काफी समय लगता है। घंटों तक फर्श पर बैठे रहना, एक छोटे सी सुपारी पर बारीकी से नजर बनाए रखना, बिजली के उपकरण को सावधानी से इस्तेमाल करना और छोटी सी आकृति पर विवरण को उकेरना उनकी इस मेहनत में शुमार है।
राकेश ने काफी गर्व के साथ कहा, “रीवा में आयोजित सभी सरकारी और निजी प्रदर्शनियों में हमारी मूर्तियों को स्मृति चिन्ह के रूप में दिया जाता है और आयोजक हमेशा पहले से ही उन्हें ऑर्डर कर देते हैं।”
कुंदर परिवार को उनके शिल्प से बहुत पहचान मिली है, लेकिन महामारी के समय उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा था।
राकेश ने बताया, ” लॉकडाउन के दौरान हमारी कमाई लगभग रुक गई थी। लेकिन अब चीजें वापस सामान्य हो रही हैं। इस दिवाली में हमने अपने हाथों से बनाई गई लगभग 120 कलाकृति बेची थीं। जैसे-जैसे आयोजन फिर से शुरू हो रहे हैं, हम अपने काम और कमाई, दोनों के बढ़ने की उम्मीद कर रहे हैं।”
शिल्पकार ने मांगा सरकारी सहयोग
राकेश के चाचा दुर्गेश कुंदर भी इस तरह की कलाकृति बनाने का काम करते हैं. 50 साल के दुर्गेश ने गांव कनेक्शन को बताया, “मैंने 15 साल की उम्र में नक्काशी करना शुरू कर दिया था। इस काम में समय लगता है।” उन्होंने समझाया, “हालांकि यह कहना मुश्किल है कि हम हर महीने कितना कमा लेते हैं. दरअसल यह ऑर्डर पर निर्भर करता है। हम लगभग 50 फीसदी लाभ मार्जिन पर काम करते है।”
दुर्गेश ने कहा, लेकिन फिलहाल तो शिल्प का भविष्य अंधकारमय दिख रहा है। उन्हें डर है कि आने वाली युवा पीढ़ी इस हुनर को आगे ले जाने या अपनाने के लिए तैयार नहीं होगी।
उन्होंने कहा, “हमने सरकार के सामने एक प्रस्ताव रखा था कि हम उन लोगों को शिल्प सिखाएंगे जो शारीरिक रूप से विकलांग हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने भी शिल्प को बढ़ावा देने की सिफारिश की थी। लेकिन यह सब कुछ फाइलों में ही सिमट कर रह गया है।”
दुर्गेश ने बताया, “1932 से एक अकेला परिवार इस सुपारी कला का संरक्षक रहा है। लेकिन शिल्प को जिंदा बनाए रखने में हमारी मदद करने के लिए कोई सहायता नहीं मिल रही है। अगर हमें एनआईटी आदि जैसे संस्थानों तक पहुंच दी जाती, तो हम कला को और आगे तक ले जा सकते हैं।”
वह आगे कहते हैं, ” लेकिन आज इस कला की जो स्थिति है, अगर आगे भी वैसी ही बनी रहती है, तो मैं निश्चित रूप से युवा पीढ़ी को इसे अपनाने के लिए प्रोत्साहित नहीं करूंगा। मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे किसी ऐसी चीज पर काम करके अपनी आंखों की रोशनी खराब करें जो सरकारी मदद या प्रोत्साहन के योग्य नहीं है। “
उनके अनुसार, इस काम को करने से मिलने वाला पैसा सिर्फ गुजारा करने तक के लिए काफी है। इसलिए वह चाहते हैं कि उनके बच्चे इस पेशे में अपना समय बर्बाद करने के बजाय व्हाईट कॉलर जॉब करें।
उन्होंने निराशा से कहा, ” अपने इस हुनर को दिखाने के लिए हम सिर्फ ग्राहकों के आने का इंतजार करते रहते हैं,”
सुपारी शिल्पकार को पहचान चाहिए
डेवलपमेंट मिनिस्टर (हैंडीक्राफ्ट) की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, देश में 6.89 मिलियन शिल्पकार हैं। 2020-21 में भारत ने 3,459।74 अमेरिकी डॉलर के हस्तशिल्प का निर्यात किया, हालांकि यह महामारी के बाद सबसे कम था।
लेकिन रीवा के सुपारी कारीगर इस डेटा का हिस्सा नहीं हैं। इसका एक कारण यह है कि वे पहचान कार्ड योजना से नहीं जुड़े हैं। पहचान कार्ड योजना केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय की ओर से हस्तशिल्प कारीगरों के पंजीकरण और पहचान पत्र प्रदान करने और उन्हें राष्ट्रीय डेटाबेस से जोड़ने की एक पहल है।
राकेश ने कहा, “हमें ऐसी किसी भी योजना की जानकारी नहीं है।” वे 2021 में केंद्र सरकार द्वारा शुरू किए गए नेशनल हैंडीक्राफ्ट डेवलपमेंट प्रोग्राम का भी हिस्सा नहीं हैं। इस कार्यक्रम का उद्देश्य शिल्पकारों का स्किल डवलपमेंट, मार्केटिंग सपोर्ट और तकनीकी जानकारी मुहैया करना है।
2001-02 में शुरू हुई सरकार की अम्बेडकर हस्तशिल्प विकास योजना भी इसी की एक कड़ी है। लेकिन सुपारी शिल्पकार इसके साथ भी नहीं जुड़े हैं क्योंकि उन्होंने समुदाय का कोई औपचारिक समूह नहीं बनाया हुआ है।
वाणिज्य एवं उद्योग विभाग, रीवा के महाप्रबंधक यूबी तिवारी के अनुसार इन शिल्पकारों की मदद के प्रयास किए गए हैं। तिवारी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हम इस शिल्प को ‘एक जिला एक उत्पाद’ कैटेगरी में शामिल करना चाहते थे, लेकिन इस श्रेणी में शामिल करने के लिए जिस तरह के शिल्प की जरूरत होती है वो इस खासियत इस शिल्प में नहीं है।”
अधिकारी ने बताया कि उन्हें व्यापक हस्तशिल्प समूह विकास योजना में शामिल करने का भी प्रयास किया गया। उन्होंने कहा, “लेकिन इस शिल्प में शामिल पांच परिवार एकजुट नहीं थे और इसलिए हम आगे नहीं बढ़ सके।”
जवाब में दुर्गेश ने कहा कि उन्होंने चार से पांच कलाकृतियां बनाने के लिए पूरे दिन काम करना पड़ता है। वह कहते हैं, “सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए हमें कई अधिकारियों से मिलने के लिए कहा जाता है। हमारे पास एक से दूसरे के पास दौड़ने का समय नहीं है।”