किसान को खैरात नहीं, स्थाई आमदनी और क्रयशक्ति चाहिए

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बरसात ने दस्तक दी है और अब किसान को अचानक खेतों की जुताई, खाद और बीज के लिए पैसे की आवश्यकता होगी। इधर मनरेगा लगभग बन्द रहा है और दो साल में किसान पूरी तरह टूट चुका है। घरों में इतना अनाज नहीं बचा है कि बेचकर व्यवस्था करे। सरकारों ने किसानों को कर्ज की सुविधा सरल कर दी है इसलिए वह कर्जा लेगा और कर्जा माफी की आस लगाएगा। जब से मनरेगा की मजदूरी सीधे बैंक में जाने लगी है तब से लगता है ग्राम प्रधानों की रुचि मनरेगा से हट रही है। अब गाँव के छुटभैया साहूकरों से वह कर्जा लेगा क्योंकि बैंको के चक्कर में खरीफ़ की बुवाई का समय निकल जाएगा।

बीज, खाद, मजदूरी में महंगाई के कारण खेती में लागत बहुत बढ़ गई है। घान की फसल पैदा करने में लगभग 15000 रुपया प्रति एकड़ का खर्चा आता है। घर के खर्चों के लिए मजदूरी के अलावा कोई रास्ता नहीं। मोदी ने मनरेगा को खेती से जोड़ने की बात कही थी, शायद कुछ करें लेकिन तब तक देर न हो जाए। जिन किसानों के ,खेतों में मेंथा और सब्जियां लगी हैं उनके पास कुछ पैसा आ जाएगा लेकिन जो पैसा सरकार से मिलना है जैसे मनरेगा की बकाया मजदूरी, गन्ने और, गेहूं का बकाया या मुआवजा जो सरकार से मिलना है उसका भुगतान महीनों के बजाय हफ्तों में किया जा सकता है तो खरीफ़ की बुवाई सम्भव हो सकती है।  

शादी ब्याह का मौसम बीत गया लेकिन जुलाई में बच्चों की फीस और किताबें चाहिए। किसान अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ाना चाहता है, अच्छे कपड़े पहनाना और अच्छा भोजन खिलाना चाहता है, परन्तु उसके पास नियमित और भरोसे की आमदनी नहीं है। गरीब किसान के पास पूंजी नहीं है इसलिए उसके खेत तब बोए जाएंगे जब वह बड़े किसानों के खेतों में काम करके मजदूरी लाएगा या फिर गाँव के साहूकार से उधार मिलेगा। खेत न बो पाया तो किसान भुखमरी की हालत में पहुंच जाएगा।

 खाद्य सुरक्षा योजना के अंतर्गत सरकार ने वादा किया है कि गरीब से गरीब परिवारों को 35 किलो अन्न प्रति परिवार मिलेगा और प्राथमिकता श्रेणी के परिवारों को पांच किलोग्राम प्रति व्यक्ति मिलेगा। इन श्रेणियों का गाँवों में प्रतिशत 75 और शहरों में 50 होगा। इनको चावल 3 रुपए, गेहूं 2 रुपए और मोटे अनाज एक रुपया प्रति किलो के हिसाब से मिलेंगे। माना जा रहा है कि विषम परिस्थितियों जैसे युद्ध, बाढ़, अकाल और भूचाल की स्थिति में सरकारें खाद्य सुरक्षा की गारन्टी नहीं करेंगी। यही वह परिस्थितियां होती हैं जब खाद्य पदार्थों की सर्वाधिक आवश्यकता होती है लेकिन सरकार गाँव वालों को भिखारी की तरह खैरात की रोटी क्यों देना चाहती है, भोजन गारंटी के बजाय रोजगार गारन्टी क्यों नहीं कर सकती। 

कठिनाई यह है कि सरकारों के पास खाद्य सुरक्षा व्यवस्था को लागू करने के लिए भी पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम यानी सस्ते अनाज की दुकानों पर ही निर्भर होना पड़ेगा। जब किसान खेत ही नहीं बो पाएगा तो इन दुकानों पर अनाज कहां से आएगा। डर इस बात का भी है कि इस योजना का हश्र मिडडे मील जैसा न हो जिसमें बड़ी संख्या में बच्चे बीमार होते रहते हैं यहां तक कि मरते भी हैं। यदि अन्न की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया गया तो कुपोषण मिटाना तो दूर, यह पेटभराऊ व्यवस्था भी नहीं बन पाएगी।

 एक व्यवहारिक तरीका यह था कि खाद्य सुरक्षा लागू करने के पहले सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाकर उनके यहां चल रही योजनाओं का मूल्यांकन किया गया होता और यह निर्णय लिया जाता कि इन योजनाओं का क्या होगा। किसानों और मजदूरों को अनाज की खैरात ना देकर उन्हें वह ताकत दी जानी चाहिए जिससे वे अनाज खरीद सकें। अफसोस कि सरकार लोगों को बैसाखी पर जिन्दा रखना चाहती है, अपने पैरों पर खड़ा नहीं होने देगी।

किसानों को आर्थिक संकट से निकालने का एक ही उपाय है कि गाँवों में स्थायी रोजगार के अवसर मुहैया कराए जाएं। ऐसे उद्योग लगाए जाएं जहां किसानों द्वारा उगाई गई चीजों का कच्चे माल की तरह प्रयोग हो और किसानों को उन उद्योगों में नियमित नौकरी मिले। उनका भला नाता मनरेगा से होगा और ना ही मिड्डे मील या खाद्य सुरक्षा से। उन्हें चाहिए आर्थिक स्वावलम्बन।

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