घर-घर शौचालय चाहे न हों, गाँव-गाँव सुलभ शौचालय हों

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प्रधानमंत्री मोदी ने ग्राम स्वराज दिवस के अवसर पर जन प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए उनकी जिम्मेदारियां बताई थीं। वैसे तो इस सभा में मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक और पंच तथा प्रधान सभी सम्मिलित हुए थे लेकिन ग्रामीण समस्याओं विशेषकर स्वच्छ भारत और ग्रामीण शौचालयों पर विशेष जोर दिया गया था। गाँवों के घरों में बने शैाचालय कितने व्यावहारिक हो रहे हैं इस पर चर्चा हो सकती है लेकिन क्या ये शौचालय ग्रामीण जीवनशैली का अंग बन सकेंगे, वो भी 2019 तक, कहना कठिन है।      

मैं प्रत्यक्ष जानकारी के आधार पर कह सकता हूं कि गाँव के लोगों और उन घरों से आए छात्रों को शौचालय का उपयोग करने का अभ्यास नहीं है। स्कूलों में छोटे बच्चे अक्सर नहीं जान पाते कि कहां पर बैठ कर शौच करनी है। वे सीट के अगल-बगल शौच कर देते हैं और सफाई कर्मचारी साफ नहीं करता। उसका कहना रहता है साहब हम भी तो इंसान हैं। स्कूल में अध्यापक और अध्यापिकाओं से कहा जा सकता है कि बच्चों को शौच करना सिखाएं लेकिन वे पढाएंगी कब? बच्चों को घर में कौन सिखाएगा जब घर वालों को ही शौचालय में बैठना असहज लगता है। 

गाँव के स्कूल, कॉलेजों में बड़ी लड़कियां पॉट में माहवारी का कपड़ा डाल देती हैं जिससे ड्रेनेज चोक हो जाता है। सीवरलाइन तो है नहीं, ड्रेनेज, सेप्टिक टैंक और मेनहोल आदि साफ़ करने के लिए जमादार नहीं होते और बड़ी संख्या में अच्छे वेतन पर सफाई कर्मचारियों के नाम से पंडित और ठाकुर भर्ती किए गए हैं जो यह अपना काम नहीं समझते। आगे चलकर तो करना ही होगा इसलिए जरूरी था नियुक्ति पत्र देने के पहले प्रैक्टिकल कराया जाता। साथ ही सफाई कर्मचारी नालियां, गलियां और गाँव ही नहीं साफ करते तो शौचालय क्या करेंगे।

गाँवों में शौचालयों के लिए सेप्टिक टैंक बनते हैं जिनके आकार में प्रधानों ने किफायत करके उन्हें छोटा कर दिया है या फिर मानक ही यही था। बरसात में यदि पानी भरा और मल बजबजाने लगा तो रहना मुश्किल हो जाएगा। स्कूल-कॉलेजों के मेनहोल के ढक्कन ही गाँव वाले उठा ले जाते हैं और मेनहोल खुले पड़े रहते हैं। इन सब से वायु प्रदूषण तो बढ़ ही रहा है, बनाकर दिए गए शौचालयों का रखरखाव भी नहीं हो पा रहा है। सोचना चाहिए था शौचालयों को कौन साफ करेगा और कैसे, जब उनके साथ पानी तक की कोई व्यवस्था सरकार द्वारा नहीं की गई है।

मंशा यह है कि गाँव के लोग स्वच्छ रहें और स्वस्थ रहें। तो फिर यदि घर-घर शौचालयों के बजाय गाँव गाँव सुलभ शौचालय चलाने का ठेका जानकार लोगों को दे दिया जाय और जितना अनुदान घर- घर शौचालयों के निर्माण के लिए दिया गया है वह सब सुलभ शौचालय बनाने में खर्च किया जाय तो उद्देश्य पूरा हो सकता है। गाँव वाले जो मलमूत्र का त्याग सुलभ शौचालय में करेंगे उससे बायोगैस बन सकेगी जिससे गाँव प्रकाशित हो सकेंगे। खाद भी बरबाद नहीं होगी, बिक जाएगी। स्वच्छ भारत बनाने के लिए पहले मानसिकता बदलने की आवश्यकता है। शौच के बाद मल विसर्जन और सड़कों पर झाड़ू लग जाने के बाद कचरा विसर्जन सुनने में आसान लगता है लेकिन है नहीं। अस्पतालों का कचरा, मन्दिरों के फूल-पत्ते और पूजा सामग्री, कारखानों का कचरा, खेतों से बहकर आए कीटनाशक और उर्वरक, मेलों और धार्मिक आयोजनों से निकली प्लास्टिक और गन्दगी यह सब भी हटाना स्वच्छता के लिए जरूरी है। नदियों के किनारे शवदाह से मोक्ष मिले या न मिले, नदी में अधजले शव डालने से जल प्रदूषण अवश्य मिलता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने प्लास्टिक की थैलियां बनाने और बेचने पर प्रतिबन्ध लगाया है लेकिन यह गाँवों में प्रभावी नहीं है। फेंकी गई प्लास्टिक को अभी भी गायें खाती हैं और मरती हैं, मरने के बाद कई किलो तक प्लास्टिक उनके पेट से निकलता है। जो लोग गौमाता की जय बोलते रहते हैं उनके लिए सोचने का विषय होना चाहिए। यदि रोक न लगी तो ये प्लास्टिक गाँव के शौचालयों के ड्रेनेज भी चोक करेगी और नालियां भी। अपने देश में किसी भी बड़े सामाजिक बदलाव को या तो धर्म या पंचायती राज के माध्यम से लाया जा सकता है। हिन्दू धर्म में व्यक्तिगत स्वच्छता पर जोर तो है परन्तु सामूहिक स्वच्छता पर नहीं। आशा की जानी चाहिए कि मोदी का प्रयास हमारी मानसिकता में कुछ बदलाव ला सकेगा और सामूहिक स्वच्छता पर ध्यान जाएगा।  

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