मोदी सरकार ने दो साल की अवधि में भारत को दुनिया की पहली कतार में खड़ा करने की चिन्ता जताई है- सेटेलाइट, वारशिप, हाइवे और आईवे, स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेनें, मेक इन इंडिया आदि। इन सब में गाँव का किसान यदि अपनी या अपने बच्चों की भूमिका तलाशेगा तो बीस साल लगेंगे वह भी यदि गाँवों में उपयुक्त शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था हुई तो। वैसे चुनाव जीतने का पुराना आजमाया हुआ फॉर्मूला, खैरात बांटने का, मोदी ने भी आरम्भ कर दिया है। अटलजी की सरकार की दूरगामी परियोजनाओं की चर्चा कम है।
किसान की छोटी-छोटी समस्याएं हैं। उसकी पहली चिन्ता है मिट्टी और उसकी गुणवत्ता क्योंकि यह उसके जीवन का आधार है। कितना अच्छा होता यदि सरकार जिलेवार ऐसे मानचित्र प्रकाशित कर देती जिनमें मृदा प्रकार और उसके लिए उपयुक्त फसलें दिखाई गई होतीं। किसान अपने स्वास्थ्य की सालाना जांच कराए या न कराए लेकिन उसे मिट्टी की जांच करानी ही चाहिए। इसके लिए शिक्षित बेरोजगारों को प्रशिक्षण देकर पंचायत में समस्या का निदान निकल सकता है। प्रत्येक पंचायत में एक छोटी प्रयोगशाला बन सकती है और जांच के लिए प्रत्येक सैंपल का कुछ पैसा लिया जा सकता है।
कृषि मित्र के रूप में नियुक्त होने वाले नौजवानों को प्रशिक्षण देकर मिट्टी जांच के अतिरिक्त अन्य काम दिए जा सकते हैं जैसे खाद-बीज की उपलब्धता सुनिश्चित कराना, सिंचाई प्रबंधन के लिए तालाब, नदियां, झीलें और भूमिगत पानी की उपलब्धता देखना, कुटीर उद्योगों द्वारा उत्पादित पदार्थों का विपणन आदि। महत्वाकांक्षी परियोजनाएं तो जवाहरलाल नेहरू ने भी चलाई थीं लेकिन उनसे गाँव के किसान को क्या मिला क्योंकि उनमें जगह पाने के लिए अंग्रेजी शिक्षित ग्रामीण तैयार ही नहीं किए गए। किसान अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना चाहता है लेकिन सरकार उन्हें सर्व शिक्षा अभियान के तहत बिना फीस लिए, ड्रेस देकर, किताबें, वजीफा और मिड-डे-मील खिलाकर समझती है कि मिल गई अच्छी शिक्षा। सरकार ने सोचा अध्यापकों को 50 हजार तक वेतन दे दें तो पढ़ाई अच्छी हो जाएगी, यह नहीं सोचा कि पैसे अधिक देने से पढ़ाई अधिक नहीं हो जाएगी, उचित निरीक्षण और मार्गदर्शन चाहिए। काफी जगहों पर परमिट कोटा राज तो समाप्त हुआ लेकिन शिक्षा में मान्यता के लिए भ्रष्टाचार का दरवाजा खुला है।
गुणवत्ता के लिए प्रत्येक पंचायत में चाहे एक ही प्राइमरी स्कूल हो लेकिन प्रत्येक स्कूल में पांच अध्यापक या जितनी कक्षाएं उतने अध्यापक अवश्य हों। इसके अलावा जो भी चाहे प्राइवेट स्कूल खोल सके ऐसी व्यवस्था हो।यदि शिक्षित बेरोजगार सोसाइटी बनाकर स्कूल चलाना चाहें तो उन्हें बिना किसी रुकावट के फीस लेकर पढ़ाने की अनुमति दी जाए। शिक्षा स्तर की निगरानी शिक्षा विभाग करे। कक्षा पांच की तहसील स्तर पर, कक्षा आठ की जिला स्तर पर और कक्षा दस की मंडल स्तर पर सरकारी और गैर सरकारी सभी स्कूलों की बोर्ड परीक्षा हो। मान्यता के, बिल्डिंग के मानक ग्रामीण क्षेत्रों के लिए सरल हों, सबको मान्यता दी जाए, परीक्षा फल खराब हो तो मान्यता निरस्त हो जाए। खेलकूद की गाँव के स्कूलों में कोई सुविधा नहीं है क्योंकि पंचायतों के पास प्लेग्राउंड नहीं हैं और कोई क्रीड़ा सुविधा भी नहीं। गाँवों की 70 प्रतिशत आबादी में से बहुत कम खिलाड़ी निकलते हैं।
खेल मैदानों के लिए जमीन तो हो सकती है यदि पूरे इलाके में बिखरी पड़ी टुकड़ों में जमीन एक-साथ कर दी जाए। पहले ऐसी जमीन चारागाह, खेल का मैदान, स्कूल भवन, बागबानी आदि के लिए सुरक्षित की जाती थी लेकिन किसानों को लाभ पहुंचाने के लिए चकबन्दी लेखपालों द्वारा उसे चकबन्दी से पृथक कर दिया गया। गाँववालों की एक और समस्या दवाई इलाज की रहती है। सरकारी डॉक्टर उपलब्ध नहीं रहते और प्राइवेट डाक्टर जिन्हें कई लोग झोलाछाप कहते हैं, उन्हें ज्ञान नहीं और शहर पहुंचने तक देर हो जाती है। उचित होगा सरकारी डॉक्टरों का नॉन प्रेक्टिसिंग अलाउंस बन्द हो और चाहें तो सरकारी पोस्टिंग के स्थान पर ही प्रेक्टिस करने की अनुमति दी जाए। अस्पतालों में दवाई का बजट बढ़ सकता है उसे अलाउंस के बचे पैसे से पूरा कर सकते हैं। अस्पतालों में डाक्टरों की कमी पूरी नहीं हो पाती क्योंकि चयन की प्रक्रिया लम्बी है। जब जिन्दगी और मौत की बात हो तो चयन प्रक्रिया को छोटा करके कैम्पस इन्टरव्यू द्वारा नियुक्तियां होनी चाहिए। गाँवों के विषय अनेक हैं लेकिन कष्ट यह है कि विकास की प्राथमिकता में गाँव का नम्बर बहुत बाद में आता है, इसे थोड़ा पहले करना होगा।