उत्तराखंड में एक गाँव के मंदिर में दलितों के साथ पूजा अर्चना करने गए भाजपा सांसद तरुण विजय को स्थानीय लोगों ने पीट-पीट कर लहू-लुहान कर दिया, वह अस्पताल में भर्ती हैं। सांसद और नेता के साथ वह एक पत्रिका के सम्पादक और अच्छे पत्रकार रहे हैं। वह मंदिर में दलितों के प्रवेश का विषय उठा रहे हैं। उधर महिलाओं का संघर्ष जारी है कि उन्हें देश के सभी मदिरों में प्रवेश मिलना चाहिए। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दलित संतों के साथ उज्जैन में कुम्भ स्नान किया मानो उनके साथ स्नान करने से समरसता आ जाएगी।
सोचने का विषय है कि मंदिरों में विराजमान भगवान हैं, किसके लिए? धन्नासेठों और महन्तों के लिए अथवा दबे कुचले दलितों व अबलाओं के लिए? एक बार स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका में थे तो उनके शिष्यों ने शिकायत लिखी थी कि गाँव के मन्दिर में वेश्याएं जा रही हैं। इस पर स्वामी ने डांटकर उत्तर लिखा था रास्ता भटके लोग मंदिर नहीं जाएंगे तो क्या सन्यासी जाएंगे?
जब 1964 में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना हुई तो उसका लक्ष्य था हिन्दू समाज को संगठित और सशक्त करना। इसके बजाय वे लोग स्टंट पॉलिटिक्स में पड़ गए। कभी तो मुसलमानों की आबादी घटाने की चिन्ता तो कभी हिन्दू आबादी बढ़ाने की। कभी घर वापसी के कार्यक्रम तो कभी ईसाइयों से झगड़े, कभी मुसलमानों को पाकिस्तान भेजने की बातें तो कभी शुद्धिकरण की। अपने घर को दुरुस्त करने के लिए कुछ किया होता तो आज यह दिन देखने को न मिलता।
अपनी ही कमजोरियों के कारण इतिहास में एक समय ऐसा आया था जब हिन्दुओं ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। आदि शंकराचार्य ने फिर से उनकी घर वापसी की थी। हाल के इतिहास में अम्बेडकर ने हजारों अनुयाइयों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार किया था। कमजोर वर्गों द्वारा इस्लाम स्वीकार करने का प्रमुख कारण था अपने धर्म में उचित सम्मान न मिलना। आज भी तरुण विजय का उदाहरण हमारे सामने है। मन को समझाने के लिए कह सकते हैं जोर जबरदस्ती, शाही फरमान और दूसरी मजबूरियां लेकिन हिन्दू धर्म में समरसता का अभाव जिम्मेदार है घर उजड़ने के लिए।
विश्व हिन्दू परिषद की नैतिक जिम्मेदारी है कि गाँव गाँव जाकर पता लगाएं कि कहीं किसी मंदिर में, पंगत में या चौपाल में किसी हिन्दू को साथ बैठने की मनाही तो नहीं है। यह काम कानून बनाने से नहीं होगा। साल में एक बार सामूहिक खिचड़ी खाने, राखी बंधवाने या शादी ब्याह में व्यवहार निभाने से समरसता नहीं आएगी। उसके लिए दिन प्रतिदिन के जीवन में घुलमिल कर रहने की आवश्यकता होगी।
इसमें सन्देह नहीं कि भारत के मुसलमान एक दिन हिन्दू थे लेकिन वे कब, कैसे और क्यों घर छोड़ कर बाहर चले गए। जहां वे हैं वहां एक साथ बैठ कर खाते, पूजा करते और रोटी बेटी का सम्बन्ध स्थापित करते हैं तो वह भाई चारा उन्हें घर वापसी के बाद मिलेगा? यह ठीक है कि संघ की शाखाओं में जाति भेद नहीं है लेकिन वहां जाने की मुसलमानों को खुली छूट भी नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि घर वापसी को सम्मानजनक, आकर्षक और लाभकर बना सकें तो शायद वे विचार करें। उसके पहले यदि कट्टरता दिखाई तो मोदी के किए धरे पर पानी फिर जाएगा और बिहार चुनाव परिणाम दोहराएगा।