कालेधन पर अंकुश लगेगा यदि राजनैतिक दलों की संख्या घटे

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अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी जैसे तमाम प्रजातांत्रिक देशों में बस दो या तीन राजनैतिक पार्टियां नियोजित हैं और उनका प्रजातंत्र आराम से चलता है। उन देशों में पार्टियां विचारधारा पर आधारित होती हैं और विचारधाराएं सैकड़ों की संख्या में नहीं हो सकतीं। इसके विपरीत हमारे देश में सैकड़ों पार्टियां हैं जो अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग अलापती रहती हैं। अधिकतर पार्टियां या तो व्यक्तियों अथवा परिवारों द्वारा संचालित होती हैं अतः उनकी कोई सीमा नहीं हो सकती। इतना तो लगता है कि जिस अनुपात में देश में काला धन बढ़ा है उसी अनुपात में राजनैतिक दलों की संख्या बढ़ी है।

जब देश आजाद हुआ तो सबसे पुराना दल कांग्रेस पार्टी अनेक विचारधाराओं वाले लोगों का संगम थी जो आजादी की लड़ाई के लिए एक़त्रित हुए थे। इस दल में समाजवादी, साम्यवादी, उदारवादी, हिन्दूवादी, पूंजीवादी और ना जाने कितनी विचारधाराओं को मानने वाले लोग थे। उस रूप में कांग्रेस की भूमिका एक राजनैतिक दल के रूप में नहीं बनती थी शायद इसीलिए महात्मा गांधी ने कहा था कि कांग्रेस पार्टी को भंग कर देना चाहिए क्योंकि उसका काम पूरा हो चुका था। कांग्रेस के नेताओं ने गांधी जी की बात नहीं मानी। कांग्रेस पार्टी उसी रूप में चलती रही। कुछ साल बाद कांग्रेस पार्टी का विखंडन आरम्भ हो गया।

1925 से काम कर रही भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के अनेक खंड हो चुके हैं, सीपीआई, सीपीआई (एम), सीपीआई (एम़ एल) तथा अन्य अनेक। कुल मिलाकर करीब 10 साम्यवादी दल हैं भारत में। आखिर इतनी सारी साम्यवादी पार्टियों की क्या जरूरत जब सभी का एक ही उद्देश्य है-सम्पत्ति का न्यायसंगत बंटवारा। इसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी जो पहले भारतीय जनसंघ के नाम से जानी जाती थी, उसका जन्म 1951-52 में हुआ था। गांधी जी हत्या के बाद लोकसभा में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध लगा, तब लोक सभा में संघ का पक्ष रखने के उद्देश्य से डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। कोई माने या ना माने यह संघ की विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए बनी राजनैतिक शाखा है। दो अन्य दल रामराज्य परिषद और पहले से चली आ रही हिन्दू महा सभा के विचार भी हिन्दूवादी हैं परन्तु वे अपना तम्बू कनात अलग लगाते हैं।  

कांग्रेस के विषय में गांधी जी की आशंका पचास के दशक में ही सामने आने लगी थी जब कांग्रेस पार्टी का विघटन आरम्भ हो गया था। आचार्य जे बी कृपलानी की अगुवाई में पहले किसान मजदूर प्रजा पार्टी फिर बाद में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बनी । डॉ. राम मनोहर लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी फिर लोहिया, कृपलानी और अशोक मेहता की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बनी। बाद में ना जाने कितने समाजवादी दल बने। आज तो समाजवाद के नाम पर बनी पार्टियां परिवारवाद के दायरे से बाहर नहीं निकल पा रही हैं।

1988 में वी पी सिंह के नेतृत्व में जनता दल का गठन हुआ था जिसमें शामिल हुए थे जन मोर्चा, लोकदल, कांग्रेस (एस) आदि। ऐसा लगा था कि राजनैतिक दलों का सार्थक विलय हुआ है। कालान्तर में जनता दल के ना जाने कितने टुकड़े हुए- जनता दल (सेकुलर), जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल, बीजू जनता दल, राष्ट्रीय लोक दल और भी अनेक दल। क्या इनमें वैचारिक मतभेद हैं जो 1989 में नहीं थे जब सभी सरकार में शामिल थे। इनमें से अनेक तो क्षेत्रीय दल हो गए हैं और ऐसे ही क्षेत्रीय दलों की बढ़ती संख्या के कारण राजनैतिक दलों की आबादी बहुत अधिक हो गई है। 

राजनैतिक दलों की संख्या की हालत यह है कि 2009 के चुनाव में 367 पार्टियों ने चुनाव लड़ा था और अब तो 1400 राजनैतिक दल चुनाव आयोग के पास पंजीकृत हैं। विचित्र बात यह है कि यह सभी राजनैतिक दल सूचना के अधिकार अधिनियम से बाहर रहना चाहते हैं। क्या छुपाना है इन्हें? स्पष्ट है कि ये दल काला धन जुटाने और खर्च करने के लिए बनते हैं और यही छुपाना है इनको। यदि सरकार संविधान संशोधन करना ही चाहती हो तो सूचना के अधिकार अधिनियम को कुन्द करने के बजाय राजनैतिक दलों का परिवार नियोजन करने का संशोधन पास करे जिसमें राजनैतिक दलों का पंजीयन इतना आसान ना रहे। चुनाव आयोग को सुविधा होगी, श्रम और धन की बर्बादी घटेगी, आम आदमी को प्रचार के ध्वनि प्रदूषण से राहत मिलेगा और काले धन के उपयोग का एक श्रोत घटेगा।

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