स्पष्ट जनादेश राजनीतिक विश्लेषकों को उसे बहुत सामान्य बात बताने के लिए मजबूर करता है। उदाहरण के लिए नरेंद्र मोदी की आलोचना करने वालों में कई लोग बिहार चुनाव को अब देश का मिज़ाज बता रहे हैं। उनका कहना है कि वर्ष 2014 का जादू खत्म हो चुका है। यह बात इस सप्ताह मुझसे ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने भी कही। उन्होंने वर्ष 2015 के अंत के मोदी की तुलना वर्ष 2008 में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य से की। उन्होंने कहा कि वर्ष 2006 में बुद्धदेव भट्टाचार्य को औद्योगीकरण के लिए जबरदस्त जनसमर्थन मिला था। उनको लगने लगा था कि वह अपने दल का रवैया, काम करने की शैली और उसकी वैचारिक दिशा तक बदल देंगे। लेकिन
2008 के अंत तक उनकी पार्टी के विचारकों तथा अन्य लोगों ने पलटवार किया और वह नाकाम रहे। तृणमूल नेता ने कहा कि मोदी के साथ भी यही हुआ है और अब उनका किस्सा ख़त्म है।
ऐसा मानने वालों की कमी नहीं है। तमाम उदार बुद्धिमानों, कांग्रेस पार्टी और भाजपा के भीतर मौजूद मोदी से नफरत करने वाले छोटे धड़ यही मानते हैं। हां, यह किस्सा खत्म हो गया है कि नरेंद्र मोदी एक राजनीतिक चक्रवर्ती हैं जिनका अश्वमेध का घोड़ा राज्य दर राज्य जीत दर्ज कर सकता है। लेकिन एक बड़े राष्ट्रीय नेता की उनकी छवि अभी भी बरकरार है। ऐसा इसलिए क्योंकि वर्ष 2014 के बाद से राहुल गांधी के कद में कोई इजाफा नहीं हो सका है। नीतीश के लिए यह अभी शुरुआत है क्योंकि उनको अभी अपने युवा यादव उपमुख्यमंत्री के साथ निभाना होगा।
हालांकि मोदी विरोधी उनकी विदेश यात्राओं को फिजूल दिखावा करार देते हैं लेकिन तथ्य यह है कि इससे मोदी की देशव्यापी नेता की छवि मजबूत करने में मदद मिल रही है। उन युवा बिहारी मतदाताओं के लिए भले ही यह आकर्षक न हो क्योंकि उनके सामने आसान विकल्प के रूप मे नीतीश कुमार और कोई अपरिचित व्यक्ति था, लेकिन ऐसे वक्त में जबकि करीब 25 करोड़ भारतीय (अधिकांश युवा) फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं, तब मार्क ज़करबर्ग का फेसबुक मुख्यालय में मोदी को गले लगाना उनकी छवि को बहुत मजबूत करता है। किसी राष्ट्रीय चुनाव में मोदी अभी भी बहुमत हासिल करने का माद्दा रखते हैं। उनकी पार्टी की उनके ही नेतृत्व में होने वाले विभिन्न विधानसभा चुनावों में शर्मनाक पराजय और राष्ट्रीय स्तर पर उनकी विजेता की छवि बरकरार रहने में जो विरोधाभास है उसे आसानी से समझा जा सकता है।
अगर उनको कोई राष्ट्रीय चुनाव लडऩा होता तो यह राष्ट्रपति शैली में लड़ा जाता। मतदाताओं के सामने तब मोदी या किसी अनजान चेहरे या फिर शायद राहुल गांधी ही विकल्प होंगे। ज़ाहिर है उनके लिए चुनना आसान होगा। राष्ट्रीय स्तर पर ब्रांड मोदी बरकरार है, हालांकि उसके फीका पडऩे की शुरुआत हो रही है। ऐसे में कोई गारंटी नहीं कि यह ब्रांड 2019 तक शीर्ष पर बना रहेगा। फीकापन कहां आ रहा है? पहली बात, कोई भी बाजारविद् आपको बताएगा कि किसी भी ब्रांड को सबसे बड़ा खतरा ज़रूरत से ज्यादा प्रदर्शन से होता है। विदेशों में श्रोताओं को संबोधित करना, स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र को संबोधित करना या बड़ी परियोजनाओं के उद्घाटन के वक्त जनता को संबोधित करना, हो सकता है कि गलत असर न डाले लेकिन मोदी के हर राज्य में प्रचार अभियान से एक किस्म की चिढ़ पैदा हो रही है। मानो सरकार और पार्टी का भविष्य और उसकी इज्जत पूरी तरह उन पर निर्भर हो। वह बिना पार्टी की वास्तविक संभावनाओं का आंकलन किए यह काम किए जा रहे हैं। वह पार्टी से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह उन्हें इसकी सही जानकारी दे। भाजपा के लिए मोदी वही दर्जा हासिल करते जा रहे हैं जो गांधी का कांग्रेस के लिए था। यानी सत्ता हासिल करने का ज़रिया।
कांग्रेस ने अपनी राजनीति एक नेता या परिवार के इर्दगिर्द विकसित की क्योंकि वहां दूसरों के पनपने की संस्कृति नहीं है। भाजपा इसलिए विकसित हुई क्योंकि उसमें राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय नेताओं की पूरी टीम है। यहां तक कि जब वाजपेयी और आडवाणी का दबदबा था तब भी मजबूत दूसरी पंक्ति मौजूद थी। वाजपेयी सर्वाधिक प्रभावशाली प्रचारक थे। उनके बीच तौर-तरीकों, नीतियों और विचारधारा को लेकर कुछ तनाव रहता था और यह पार्टी के लिए अच्छा था, क्योंकि उसमें अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस की तुलना में आंतरिक लोकतंत्र ज्यादा था। जीत का श्रेय या हार का दोष भी अधिक व्यापक ढंग से लोगों पर पड़ता। आज मोदी-अमित शाह की जोड़ी एकदम अलग है। पुरानी जोड़ी एक-दूसरे के समान थी, जबकि आज एक नेता है और दूसरा उसका सिपहसालार। आडवाणी सख्त जुबान का इस्तेमाल करते थे जबकि वाजपेयी नैतिकता का दामन थामे रहते। अब मोदी को एकल अश्वारोही सेना की तरह बरता जा रहा है और वह हार के दोष से भी नहीं बच सकते। यह बात मोदी की छवि सीमित कर रही है।
कोई भी प्रधानमंत्री नहीं चाहता कि उसके कार्यकाल के दूसरे ही वर्ष में ऐसा हो। यह तो निर्वाचित सरकारों के काम की मात्र शुरुआत होती है। अधिकांश ज़मीनी काम सरकार दूसरे और चौथे साल के बीच ही करती है, जब वह दोबारा चुनाव की तैयारी में लगी होती है। लेकिन यह भी सच है कि मोदी लगातार चुनाव प्रचार के क्रुद्ध मिज़ाज में रहकर खुद अपना नुकसान कर रहे हैं। यह तरीका 2014 में कारगर रहा था, क्योंकि उनका सामना कम नजर आने वाले संप्रग के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से था। भारत में प्रधानमंत्री को मुख्यमंत्रियों का सहयोग चाहिए। अगर पूरे देश में सत्ताधारी दल के ही मुख्यमंत्री हों तो अच्छी बात है लेकिन अगर लोग ऐसा नहीं करते तो आप जनता के चुने मुख्यमंत्रियों के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार नहीं कर सकते। यह प्रधानमंत्री को शोभा नहीं देता।
मोदी अब तक अपनी चुनाव प्रचार वाली मानसिकता से बाहर नहीं आ सके हैं। इसे गुजरात के उनके चिड़चिड़े बचाव से भी जोड़ा जा सकता है जो राजनीतिक से लेकर नागरिक समाज तक उनके खिलाफ हुई एकता से निपटने के लिए उपजा था। वह मसला 2014 में समाप्त हो चुका। उन्हें देश की जनता ने चुना। उनको अपनी पार्टी के लिए भारत विजय करने की खातिर नहीं चुना गया।
सन् 2019 में उनका आकलन इस आधार पर नहीं होगा कि वह कितने राज्यों में पार्टी को जीता सके। मतदाताओं के प्रति उनका कर्तव्य है कि वह अब प्रशासन पर ध्यान केंद्रित करें। विदेशों या चुनाव अभियान में भाषण देने के बजाय वह संसद में चर्चा करने और कामकाज संभालने पर ध्यान दें। राहत की बात है अगले साल जिन पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहा है उनमें उनकी पार्टी कहीं भी बहुत अधिक मजबूत नहीं है। असम में पार्टी को ध्रुवीकरण के सहारे जीत हासिल करने का लालच हो सकता है लेकिन अगर वह इस चुनाव को भी मोदी बनाम संयुक्त विपक्ष नहीं बनाते हैं तो उनके लिए अच्छा होगा। अगर ऐसा हुआ तो वहां 34.2 फीसदी मुस्लिम वोट बैंक एकत्र हो जाएगा। एक प्रधानमंत्री को ध्रुवीकरण नहीं करना चाहिए। तब तो बिल्कुल नहीं जब ऐसा करने पर भी पराजय हाथ लगे। मोदी का राष्ट्रीय कद बरकरार है लेकिन वह और झटके बरदाश्त करने की हालत में नहीं हैं। वर्ष 2014 के मतदाताओं को ध्यान में रखते हुए उनको शांतचित्त हो शासन पर ध्यान देना चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं)