गत बुधवार को मेरे टेलीविजन शो ‘ऑफ द कफ’ के दौरान एक सार्वजनिक चर्चा में पंजाब के नवनियुक्त मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने ऐसी कई बातें कहीं जिनसे शायद उनकी पार्टी नाखुश हो। पहले तो इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) में गड़बड़ी की शंका से जुड़े प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि अगर ऐसा होता तो मुख्यमंत्री की गद्दी पर वह नहीं कोई ‘बादल’ नजर आता। गौरतलब है कि ठीक उसी दिन उनकी पार्टी के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष ने ईवीएम के खिलाफ एक प्रदर्शन का नेतृत्व किया था जो राष्ट्रपति भवन गया था।
उन्होंने कहा कि उनकी जीत यह बताती है कि राष्ट्रीय दलों को अब यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि राज्यों में भी कद्दावर नेताओं का अपना महत्त्व है। लोगों को यह पता होना चाहिए कि वे अपने नेतृत्व के लिए किसे चुन रहे हैं। उन्होंने कहा कि वह दौर अब खत्म हो गया है जब राष्ट्रीय नेता आते थे और वोट दिलाते थे।
तीसरी बात, उन्होंने कहा कि इस बार कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन की एक वजह यह थी कि उनको प्रत्याशी चयन की छूट दी गई। पिछली बार उनको 117 में से केवल 46 प्रत्याशी चुनने का मौका मिला था और पार्टी हार गई थी। ये सारी बातें पार्टी और खास दरबारियों को नाखुश करने वाली हैं।
मुझे नहीं पता कि उनकी पार्टी उनके सबसे सुर्खियां बटोरने वाले वक्तव्य पर क्या प्रतिक्रिया देती। उन्होंने कहा कि वह कनाडा के रक्षा मंत्री हरजीत सिंह सज्जन की आगामी भारत यात्रा के समय उनसे मुलाकात तक नहीं करेंगे क्योंकि उनके खालिस्तानियों से रिश्ते हैं। सज्जन पूर्व कर्नल हैं और अफगान युद्ध में अहम भूमिका निभा चुके हैं। लेकिन सिंह का मानना है कि कनाडा की उदार मानी जाने वाली जस्टिन ट्रूडो की सरकार में शामिल चारों सिख सदस्य खालिस्तानी चरमपंथियों से सहानुभूति रखते हैं। सिख रेजिमेंट के सदस्य रह चुके सिंह की बातें उतनी स्पष्ट थीं जितनी एक पंजाबी या सैनिक की हो सकती हैं। वह तो दोनों हैं।
उन्होंने कहा कि वह कनाडा जाकर पंजाबियों से बात करना चाहते थे लेकिन इन खालिस्तानी कार्यकर्ताओं के दबाव में उनको कनाडा नहीं जाने दिया गया। उन्होंने कहा कि वह ट्रूडो की उदार सरकार का सम्मान करते रहे लेकिन उनको कनाडा में प्रवेश तक नहीं करने दिया गया। कनाडा सरकार ने तत्काल प्रतिक्रिया दी और अपने मंत्रियों का बचाव करते हुए कहा कि अमरिंदर सिंह का कनाडा में स्वागत है।
वह अलग किस्सा है लेकिन हमारे मीडिया ने इसे इसलिए एक अहम कूटनीतिक सफलता के रूप में तवज्जो नहीं दी क्योंकि अमरिंदर सिंह भाजपा नेता नहीं हैं और शायद मीडिया के लिए पंजाब इतना दूर है कि वह ध्यान ही नहीं दे पाता। लेकिन क्या हो अगर भाजपा अब मौके का फायदा उठाए और राष्ट्रहित में सिंह के साहस और स्पष्टवादिता की तारीफ करते हुए उसे अपने पक्ष में इस्तेमाल कर ले? अगर पार्टी विदेशी सिख कट्टरपंथियों के खिलाफ उनकी बातों को राष्ट्रवाद से जोड़कर उनका लाभ उठाए तो?
निश्चिततौर पर अमरिंदर सिंह इस तथ्य से उत्तेजित थे कि बड़ी तादाद में विदेशी सिख कट्टरपंथियों ने पंजाब में मुख्य प्रतिद्वंदी आम आदमी पार्टी (आप) की मदद की। उन्होंने कहा कि इनमें से अधिकांश कनाडा से और कुछ ऑस्ट्रेलिया से थे। उन्होंने अमृतसर और दिल्ली में 1984 के जख्म कुरेदने की कोशिश की। चर्चा होने लगी कि अगर आप जीत गई तो वह पुरानी कहानी बार-बार दोहराई जाएगी। उनकी पार्टी इस पूरी परिघटना को लेकर उनींदी सी थी। अतीत में खुद उसकी भूमिका के साथ तमाम बुरी यादें जुड़ी हैं।
लेकिन भाजपा का क्या? क्या वैश्विक नेताओं से मेलजोल बढ़ाने के सिलसिले में, भारत के प्रति उनको आकर्षित करने की जुगत में, खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसा कुशाग्र व्यक्ति भी कुछ चूक कर गया? आखिर उन्होंने चुनाव अभियान के दौरान इन खालिस्तान समर्थकों पर हमलावर रुख क्यों नहीं अपनाया? उनकी सरकार ने प्रतीकात्मक रूप में ही सही कनाडा को उसके नए सिख मंत्रियों के अतीत के बारे में क्यों नहीं याद दिलाया? उनसे किसी तरह की आश्वस्ति क्यों नहीं चाही गई?
सच यह है कि चार में से कम से कम तीन मंत्रियों का अतीत भारत की दृष्टि में संदेहास्पद है। सज्जन के पिता विश्व सिख संस्थान नामक खालिस्तान समर्थक संस्थान के संस्थापकों में से एक थे। वह खुद अफगान युद्ध लड़ चुके हैं और वैंकूवर में एक निजी खुफिया सलाहकार सेवा चला चुके हैं जिसने मित्र राष्ट्रों को मशविरे दिए। एक अन्य मंत्री नवदीप सिंह बैंस, दर्शन सिंह सैनी के दामाद हैं जो प्रतिबंधित बब्बर खालसा के प्रवक्ता हुआ करते थे। उनका भी पुराना झुकाव छिपा नहीं है। एक अन्य मंत्री अमरजीत सिंह सोढ़ी पर भारत में आतंकवाद के आरोप थे। उन्हें अदालतों ने सबूत न मिलने पर बरी किया था।
कनाडा से भारत को निजी आश्वस्तियां मिलीं लेकिन कभी ऐसा स्पष्ट वक्तव्य नहीं जारी किया गया कि वह पुराना अभियान समाप्त हो चुका है। ऐसे में यह भी चकित करने वाली बात है कि न तो भाजपा और न ही कांग्रेस ने इस बात पर कोई आपत्ति की कि कनाडा के कट्टरपंथी उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदी को धन दे रहे थे और प्रचार अभियान में भी लगे थे।
हो सकता है अमरिंदर सिंह बहुत मुखर हों और कूटनीतिक ढंग से बात नहीं कर रहे हों लेकिन वह एक धुर राजनेता हैं। बातचीत के बाद मैंने उनकी स्पष्टवादिता के लिए बधाई दी, खासतौर पर कनाडा के मसले पर उनके रुख के लिए। इस पर उन्होंने धन्यवाद ज्ञापित करते हुए पूछा कि अब मुझे बताइए कि भाजपा इस सज्जन से कैसे निपटेगी? मैंने उन्हें खालिस्तानी कह दिया है। अब भाजपा इस कनाडाई मंत्री के लिए लाल गलीचा कैसे बिछाएगी?
एक स्तर पर यह राजनीतिक बयान था। लेकिन अगर आप गहराई से विश्लेषण करें तो इसमें गहन राजनीतिक मुद्दा निहित है। संप्रग ने कभी पाकिस्तान, आतंकवाद और चीन को लेकर नरमी नहीं बरती। परंतु सोनिया गांधी की कांग्रेस को कड़े राष्ट्रहित के मुद्दों पर नरम पार्टी की छवि मिल गई। मोदी ने इसका फायदा उठाया और हिंदुत्व की राजनीति के साथ एक जबरदस्त लोकप्रिय अपील तैयार कर ली।
अब खुद कांग्रेस के नेता अमरिंदर सिंह ने इस भावनात्मक और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दे पर मोदी सरकार को घेर दिया है। आखिर वह कनाडाई रक्षा मंत्री का स्वागत कैसे कर सकती है और क्या वह स्पष्ट मांग करेगी कि भारत की एकता और उसके आंतरिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाए? कांग्रेस हमेशा की तरह सो रही है। शायद उनको लग रहा है कि सिंह कुछ ज्यादा बोल रहे हैं।
मोदी जितनी तीक्ष्ण बुद्धि रखते हैं उसे देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने दिमाग में कोई खाका बना लिया होगा और वह मौका मिलते ही किसी तरह की आश्वस्ति या स्पष्टीकरण चाहेंगे और अमरिंदर सिंह की बात का लाभ उठाना चाहेंगे। कांग्रेस की हालत ऐसी है कि वह राष्ट्रवाद को हिंदुत्व से अलग करके नहीं देख पा रही। कोई भी राष्ट्रीय राजनीतिक दल ऐसी चूक नहीं कर सकता। इसका नतीजा चुनावों में नजर आता है।
(लेखक अंतराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं यह उनके निजी विचार हैं।)
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