ज़रा सोचिये। ऐसा क्यों है कि कर्ज माफ़ी के लिए एक किसान को सड़कों पर उतरना पड़ता है, राजमार्ग रोकने पड़ते हैं, मोर्चा निकालना पड़ता है, आंसू गैस और यहां तक कि गोलियों का सामना करना पड़ता है। क्यों मैंने कभी किसी बड़े कॉर्पोरेट को इसी कर्ज माफ़ी के लिए जंतर-मंतर पर ऐसे ही धरने पर बैठे हुए नहीं देखा?
मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में चल रहे आंदोलन के बाद जिसमें पुलिस फायरिंग में छह किसानों की जान चली गई, आखिरकार महाराष्ट्र सरकार 30,500 करोड़ रुपयों की कर्ज माफ़ी के लिए तैयार हो ही गई। इससे पहले उत्तरप्रदेश सरकार ने भी छोटे और सीमांत किसानों का 36, 359 करोड़ का कर्ज माफ़ करने की घोषणा की है।
किसानों का आंदोलन अब पंजाब, हरियाणा राजस्थान, मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ तक फैलता जा रहा है। हालत इतनी खराब है कि पंजाब के मोगा में एक किसान कर्ज माफ़ी की घोषणा का इंतज़ार करने में भी असमर्थ था और उसने आत्महत्या कर ली।
पिछले 21 वर्षों में 3.18 लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली। हर 41 मिनट में देश में कहीं न कहीं कोई किसान आत्महत्या कर रहा होता है। ज्यादातर इसलिए क्योंकि किसान ऋण चुकाने की हालत में नहीं होते। दरअसल वो वैसे भी अनेकों स्रोतों से लिए कर्ज तले दबे होते हैं।
ये भी पढ़ें: जब जीएम के दावे पूरी तरह गलत साबित हो चुके हैं तो सरकार क्यों दे रही है इसे बढ़ावा ?
कर्ज माफ़ी की मांग के लिए धरने शुरू हो चुके हैं। किसान यूनियनों ने उत्तरी भूभाग में कर्ज़ माफी के लिए 16 जून को तीन घंटे का ‘रेल रोको’ और ‘रास्ता रोको’ आंदोलनों का ऐलान कर दिया है लेकिन ऐसा क्यों है कि किसान समुदायों को अपनी तकलीफें दर्द और जरूरत समझाने के लिए आंदोलन करने का सहारा लेना पड़ता है? क्या नीति निर्माता देश में हो रही किसानों की मौतों के बारे में नहीं जानते? सचमुच खेतीबाड़ी का ये आपातकाल है।
पिछले 21 वर्षों में 3.18 लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली। हर 41 मिनट में देश में कहीं न कहीं कोई किसान आत्महत्या कर रहा होता है। ज्यादातर इसलिए क्योंकि किसान ऋण चुकाने की हालत में नहीं होते। दरअसल वो वैसे भी अनेकों स्रोतों से लिए कर्ज तले दबे होते हैं। नवम्बर 2016 में कृषि राज्य मंत्री ने संसद में स्वयं कहा कि देश के किसान हर साल लगभग 12.60 लाख करोड़ के कर्ज तले कराहते जा रहे हैं इसीलिए कर्ज माफ़ी न सिर्फ सही राजनीति बल्कि सही अर्थशास्त्र भी है।
देविंदर शर्मा के सरकारी नीति , कृषि और किसानों से संबंधित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
लेकिन इससे पहले कि हम ये देखें कि ऋण माफ़ी की योजना किस तरह किसानों से भेदभाव करती है, मैं ये समझ नहीं पाता कि कॉर्पोरेट किस आसानी से वो कर्ज माफ़ करा ले जाते हैं, जिसके लिए किसानों को इतनी जद्दोजहद करनी पड़ती है। विरोध प्रदर्शन की तो छोड़िये, उन्हें अपनी कार तक से बाहर भी नहीं आना पड़ता। ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि जिसके लिए किसानों को अक्सर सड़क पर उतरकर गोलियां तक खानी पड़ जाती हैं, वही बड़े व्यवसायियों को इतनी आसानी से कैसे मयस्सर हो जाता है? आखिर जब किसान और उद्योगपति एक ही बैंक से कर्ज लेते हैं तो क्या कारण है कि उद्योगपतियों के संग इतनी नरमी से पेश आया जाता है?
ये भी पढ़ें: किसान आंदोलन नेताओं के बहकावे पर नहीं होते
जब उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने किसानों की कर्ज माफ़ी का ऐलान किया था, तो स्टेट बैंक की प्रमुख अरुंधति भट्टाचार्य ने कहा था कि ऐसे कर्जमाफी कर्ज के अनुशासन को बिगाड़ती है। उसके कुछेक हफ्तों बाद ही उन्होंने वित्तमंत्री को पत्र लिखकर भारीभरकम कर्ज के नीचे दबे दूरसंचार सेक्टर के लिए खैराती योजना की दरकार की। मुझे समझ नहीं आता आखिर क्यों स्टेटबैंक के उच्चाघिकारी को ऐसा करना पड़ा। क्यों नहीं दूरसंचार विभाग के उच्चाधिकारियों को दिल्ली में धरने पर बैठने को मजबूर होना पड़ा, जैसे किसानों को होना पड़ता है?
ये भी पढ़ें: किसान और कॉर्पोरेट के लिए कर्ज़ माफी का पैमाना एक हो
इस तरह बैंकिंग व्यवस्था भेदभाव करती है। जब किसान उसी सफाई व्यवस्था को काम में लाना चाहते हैं, जो उन्होंने कॉर्पोरेट बैलेंस शीट के लिए सुरक्षित रखी हुई है, तो बैंक किसानों पर नाराज़ होते हैं।
ये भेदभाव यहीं खत्म नहीं होता जबकि वित्त मंत्री अरुण जेटली स्पष्ट कर चुके हैं कि कर्ज माफ़ी का प्रबन्ध राज्यों को अपने संसाधनों से करना होगा, फिर भी एक वरिष्ठ दूरसंचार मंत्री के आधीन एक मंत्रिमण्डलीय कमेटी का गठन किया गया है जो इस मंत्रालय की ऋण माफ़ी के किसी खैराती पैकेज का इंतज़ाम कर सके। बिज़नेस स्टैंडर्ड (23 मार्च) ने भी लिखा कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) खुद ही स्टील कम्पनियों के कर्ज (डूबन्त ऋण) के मुद्दे को देखने वाला है। उस रिपोर्ट के अनुसार, पीएमओ और वित्त मंत्रालय उन प्रमुख स्टील कम्पनियों और अन्य ऐसे ही 40 ऋण ग्रस्त कम्पनियों के
लिए नए पैकेज के लिए काम कर रहे हैं। इन सबका कर्ज कोई 1.5 लाख करोड़ रुपए है।
ये भी पढ़ें: बातें गांधी की करेंगे और काम नेहरू का, तो किसान तो मरेगा ही
कृषि सेक्टर के खिलाफ भेदभाव यहीं खत्म नहीं होता। जबसे महाराष्ट्र सरकार ने किसानों की कर्ज माफ़ी का एलान किया है, मैं देख रहा हूं कि विभिन्न टीवी चैनल लोगों को धोखा देने में जुट गए हैं कि कैसे ये कदम देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगा, महंगाई बढ़ाएगा, होम लोन की सालाना किस्तें बढ़ जाएंगी वगैरह-वगैरह। जानबूझकर किसानों को दोषी करार दिया जा रहा है लेकिन जब व्यवसाइयों को माफ़ी मिलती है तो ऐसा नहीं होता। बल्कि कॉर्पोरेट खैरात को आर्थिक प्रगति के लिए जरूरी दिखा दिया जाता है, जबकि किसानों की कर्ज माफ़ी को वित्तीय फिसलन।
बैंक ऑफ़ अमेरिका मेरिल लिंच रिपोर्ट के अनुसार 2019 के आम चुनाव तक अंदाजन कोई 2.57 लाख करोड़ या जीडीपी के दो फीसदी तक कृषि कर्ज माफ़ी का अंदेशा है लेकिन फिर ये रिपोर्ट महान कॉर्पोरेट ऋण माफ़ी के आर्थिक व्यवस्था पर पड़ते प्रभाव के बारे में कुछ नहीं बताती।
ये भी पढ़ें: गरीब किसान और अमीर बकाएदारों में इतना भेदभाव क्यों?
मैं मानता हूं कि ये 2.57 लाख करोड़ की कृषि ऋण माफ़ी एक बड़ी रक़म है। पर ये मेरिल लिंच रिपोर्ट उन चार लाख करोड़ के बारे में बात क्यों नहीं करती जो टेलीकॉम इंडस्ट्री की कर्ज माफ़ी के लिए प्रस्तावित है। किसानों को दोषी दिखाकर मेरिल लिंच दरअसल कॉर्पोरेट कर्ज माफ़ी के ऐब छिपा रही है। बैंक ऐसे ही काम करते हैं। ये नैतिक और मूल्यों की दृष्टि से बिल्कुल गलत है। बैंकिंग नियमों को गरीबों से भेदभाव नहीं करना चाहिए।
(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं। ट्विटर हैंडल @Devinder_Sharma )