मुद्रास्फीति के बढ़ने की खबर के हफ्तों के भीतर ही सरकार ने सरकारी कर्मचारियों के महंगाई भत्ते की 4 से 5 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की घोषणा कर दी। ये मात्र 1 प्रतिशत की वृद्धि सालाना 3026.28 करोड़ का अतिरिक्त भार डालने वाली है। अच्छा होता अगर सरकार इस 1 प्रतिशत बढ़ोत्तरी करने की बजाय, इस निधि का उपयोग पराली जलाने से उत्पन्न पर्यावरण संकट को दूर करने में करती। तो ये समस्या काफी हद तक सुलझ चुकी होती।
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कुछ दिनों पहले जब वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बड़े पैमाने पर आर्थिक प्रोत्साहन के लिए एक विशाल आर्थिक पैकेज की घोषणा की थी, तो आपने ग़ौर किया होगा कि प्रेस कॉन्फ्रेंस के उस डेढ़ घण्टे के भाषण में उन्होंने एक बार भी “कृषि” शब्द का प्रयोग नहीं किया। 6.92 करोड़ के इस आर्थिक पैकेज में 83,677 किमी सड़कें बनाये जाने के लिए, और 2.11 करोड़ बैंकों के खैराती पैकेज सुनिश्चित हैं। और ये दरियादिली भी ऐसे वक्त पर, जब सरकार ने पराली जलाने की वजह से पर्यावरण को हुए नुकसान से निबटने के लिए नीति आयोग और कोफेडेरेशन ऑफ़ इंडियन इंडस्ट्री के 3,000 करोड़ की मांग के संयुक्त प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया था। दरअसल ये प्राथमिकताओं का सवाल है।
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यदि इस 3000 करोड़ रुपयों का सही तरीके से निवेश पंजाब, हरियाणा, उत्तर -प्रदेश, और राजस्थान में पराली जलाने की समस्या से निबटने में किया गया होता, तो दिल्ली तथा आसपास व्याप्त प्रदूषण की समस्या पर तो काफी कुछ निज़ात पाया जा सकता था। पर सरकार ने कह दिया, पैसा नहीं है। तो क्यों नहीं सरकार ने कर्मचारियों का 1 प्रतिशत अतिरिक्त DA रोक दिया? हाईवेज़ के लिए आरक्षित 6.9 लाख करोड़ की जगह क्यों नहीं सरकार ने 6.8 लाख करोड़ की राशि ही दी ? उस पैकेज से 10000 करोड़ दे देना, पर्यावरण प्रदूषण की समस्या को हमेशा के लिए ख़तम कर देता। लेकिन जैसा कि मैंने पहले भी कहा, ये सिर्फ अहमियत देने की बात है।
अब उच्चतम न्यायालय संज्ञान ले रहा है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल पंजाब और हरियाणा सरकार के पीछे पड़े हुए हैं कि वो पराली जलाने वाले किसानों के ख़िलाफ़ सख्त कार्यवाही करे। उच्चतम न्यायालय ने ये कह के पटाखों आदि पर प्रतिबंध लगाया, कि ये “वायु की गुणवत्ता के लगातार गिरते स्तर के लिए जिम्मेदार हैं”। पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली के बाहरी इलाकों में पराली दहन भी इसी श्रेणी में रखे गए हैं।
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किसानों के पास धान की कटाई और अगली फसल वाले गेहूं की बुआई के बीच काफी कम समय होता है, इसलिए वो पराली जला देने पर मजबूर होते हैं। कोई 14 दिनों के अंतराल में किसानों को पिछली फसल को काटना, बेचना और अगली रबी फसल की बुआई भी सम्पन्न करनी होती है। धान की भूसी जला देना सबसे आसान होता है। दुर्भाग्य से किसान की इस मजबूरी को ठीक से समझा ही नहीं गया। बजाय उनकी मदद करने के, पूरी ताकत उन्हें दबा देने में लगा दी जाती है।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के अनुसार अकेले पंजाब में ही करीब 200 लाख टन पराली जलाई जाती है। ” कृषि योग्य भूमि का करीब 70 प्रतिशत किसानों द्वारा कचरा जलाने के चक्कर में जला डाला जाता है।” ट्रिब्यूनल ने कहा कि इससे कार्बन-डाई-ऑक्साइड का स्तर 70 प्रतिशत बढ़ जाता है।” कार्बन-मोनो ऑक्साइड और नाइट्रस ऑक्साइड का स्तर क्रमशः 7 और 2.1 प्रतिशत बढ़ जाता है जिससे श्वसन और दिल की समस्याएं बढ़ जाती हैं। ये भी कहा गया कि इससे जमीन के पोषक तत्व जैसे फॉस्फोरस पोटेशियम, नाइट्रोजन, सल्फर आदि कम हो जाते हैं, लगभग 1.5 लाख टन सालाना।
किसान ये दुष्परिणाम जानते हैं। पर उन्हें आर्थिक मदद चाहिए। पंजाब के किसान रूपये 6000 प्रति एकड़ की मांग कर रहे हैं, ताकि जलाने के बजाय पराली को ठिकाने लगाने में लगने वाले अतिरिक्त खर्चे को सहन कर सकें। लेकिन बजाय इस मदद को पाने के, पराली जलाने वाले किसानों पर जुर्माना लगाया जा रहा है, जेल भेजा जा रहा है, सब्सिडी रोकने की धमकी दी जा रही है। और जैसे इतना ही काफी नहीं था, जमीन के दस्तावेजों में ऐसी जमीनों को “रेड एंट्री” घोषित किया जा रहा है।
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किसान नाराज़ हैं। उन्होंने अब ट्रिब्यूनल के पराली दहन पर लगाये प्रतिबन्ध का विरोध करना शुरू कर दिया है। और अब सरकार और आंदोलनकारी किसानों का टकराव अवश्यसम्भावी लगता है। कई किसान यूनियनें तो प्रतिबन्ध के खिलाफ घोषणा कर भी चुकीं, और निश्चय ही पराली जलाने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। आने वाले दिनों में ये टकराव और बुरा होता जायेगा।
ये जानते हुए कि पहले से ही परेशान किसानों को और दबाना राजनितिक रूप से ठीक नहीं होगा, पंजाब के मुख्य मंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने केंद्र सरकार से 2000 करोड़ की मांग की है जिससे वो पराली को जलाए बिना ठिकाने लगा सकें। ” हमने 100 रुपए प्रति क्विंटल की मांग की, जो लगभग 2000 करोड़ आती है”। और वो सही हैं। आखिरकार ये एक सामजिक-पर्यावरणीय समस्या है, जिससे पूरा समाज प्रभावित है। तो क्यों नहीं 6.9 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज का एक भाग इस समस्या को सुलझाने हेतु खर्च किया जा सकता ?
NGT को कुछ कदम उठाने पड़ेंगे। पहला, सरकार से किसानों 5000 रुपए प्रति एकड़ के मुआवज़े की मांग करे। मजदूरी के आसमान छूते खर्चों के मद्देनजर मैंने अधिक मुआवज़े के बारे में सोचा है। साथ ही पंजाब कृषि विश्वविद्यालय को धान की कम समय में तैयार हो जाने वाली धान की फसलों के बारे में किसानों को जागरूक करना चाहिए, जिससे अगली फ़सल की रोपाई तक उन्हें ज्यादा वक्त मिल सके। फ़िलहाल मुझे लगता है, फसल की कटाई वगैरह ज्यादा लंबे वक्त तक…अक्टूबर के अंत तक जारी रहती है।
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ये सब जानते ही हैं, कि सिलिका की मात्रा के कारण जानवर आदि पराली नहीं खा सकते। मैं सोचता हूँ कि क्यों नहीं कृषि वैज्ञानिक किसी ऐसी किस्म का विकास करते, जिसमें सिलिका न हो ? और हाँ, हैपी सीडर, स्ट्रा रीपर, चौपर, रेटिवेटर आदि मशीनों पर सरकारी सहायता या सब्सिडी की जरूरत नहीं है। हालाँकि इन मशीनों के निर्माता काफी लॉबिंग कर रहे हैं। पर वैसे ही पंजाब के किसानों के पास काफी मशीनें हैं। और पहले से कर्जे में फंसे किसानों को और ऋण की जरूरत नहीं। दूसरे, हार्वेस्टर मशीनों में बेलर का होना भी अनिवार्य होना चाहिए।ताकि दोनों काम साथ हो सकें। मक्का के लिए ऐसी मशीनें हैं। अगर NGT ऐसे प्रयास करे, तो पराली जलाने की बात इतिहास हो जायेगी।
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साथ ही, पराली को ठिकाने लगाने के लिए इन किसानों की मदद हेतु उन मजदूरों को काम पर लगाना चाहिए , जो उपलब्ध पर ख़ाली हैं। इस वक्त 12.5 लाख मनरेगा कार्ड धारक हैं। और पंजाब अभी तक सरकार से 4000 करोड़ की सहायता नहीं ले पाया है। अगर पंजाब केंद्र सरकार से इन मनरेगा मजदूरों को काम पर लगाने की अनुमति ले लेता है, तो निश्चय ही प्रदूषण की मारक समस्या का समाधान मिल जायेगा।
लेकिन फिर…कहा था न मैंने पहले ही…ये तो अहमियत देने की बात है….