समाज में कर्जा माफी की परम्परा कोई स्वस्थ आर्थिक प्रबन्धन का तरीका नहीं है, किसान का स्वावलम्बन और उसमें खुद की क्षमता की वह कर्ज लेकर उसे समय पर चुका सके । उसकी कुर्की न हो, उसे आत्महत्या न करनी पड़े और बंधुआ मजदरूर न बनना पड़े । लेकिन यदि समाज कर्जे में इतना डूब जाए कि अपने बल पर बाहर निकलने की सम्भावना न रहे तो एक बार बाहर निकालना ही पड़ेगा । देखना यह होगा कि दुबारा न डूबे इसके लिए क्या किया गया। जिन सीमान्त किसानों की खेती लाभकर हो ही नहीं सकती उन्हें बेहतर विकल्प उनके अपने गाँवों में देना होगा ।
किसान कर्जा केवल खेती के लिए नहीं लेता है अन्य कामों के लिए भी उसे लेना पड़ता है । सरकार ने केवल फसली ऋण माफ किया है और किसान कर्जदार बनकर जन्मा था कर्जदार बनकर मरेगा जब तक उसे स्वावलम्बी बनाने के लिए ग्रामीण स्तर पर कृषि आधारित औद्योगिक अवसर उपलब्ध न कराए जायं।
पिछले 70 साल से प्रजातांत्रिक खेल चल रहा है कि सरकार खैरात देकर बदले में किसान का वोट लेती है । कभी लगान माफ, कभी सिंचाई माफ, कभी बिजली बिल तो कभी उधारी माफ। मोदी सरकार को यह सिलसिला तोड़ना होगा यदि दूरगामी विकास की सोचेंगे, एन्टी बायोटिक दवाई बार-बार नहीं दी जाती ।
किसान अपने बच्चों को शहर भेजकर अच्छे स्कूलों में पढ़ाना चाहता है, उन्हें अच्छे कपड़े पहनाना और अच्छा भोजन खिलाना चाहता है, वह अच्छें मकान में रहना और अच्छे अस्पतालों में इलाज कराना चाहता है परन्तु यह सब तभी हो सकता है जब उसके पास नियमित और भरोसे की आमदनी हो । आज के युग में गरीब किसान के पास पूंजी नहीं है जबकिं बड़ी पूजी के साथ शहरी सम्पन्न लोग या ग्रामीण सम्पन्न किसान खेती की नई विधियों का लाभ उठा रहे हैं औरं लघु और सीमान्त किसान जमीन के छोटे टुकड़े से चिपके हैं और मिल गई तो मजदूरी करके परिवार का पेट पाल रहे हैं । मजदूरी न मिली तो कर्जा लेकर बच्चे जीवित रखते हैं।
विडम्बना यह है कि किसान जिन चीजों को बेचना चाहता है वह सस्ती हैं और जो खरीदना चाहता है वह महंगी हैं यानी महंगाई सब चीजों पर एक समान नहीं आई है । अब से करीब 40 साल पहले शादी ब्याह के लिए किसान 250 किलों गेहूं बेचकर 10 ग्राम सोना खरीद सकता था लेकिन अब उतना ही सोना ,खरीदने के लिए उसे 2000 किलो गेहूं बेचना होगा । उसे बच्चे की फीस भरने, इलाज कराने, कपड़ा खरीदने और मकान बनाने के लिए ईंट, सीमेन्ट और लोहा खरीदने के लिए अब कई गुना गेहूं बेचना पड़ रहा है । सरकारी समर्थन मूल्य पर उसका गेहूं आसानी से बिकता नहीं और बिके भी तो उससे लागत ही मुश्किल से वसूल होती है।
पिछले 10-15 साल में कामकाजी जानवरों की संख्या बहुत घट गई है, केवल गोवंश का जयकारा लग रहा है । ट्रैक्टरों ने बैलों को खेती से बाहर कर दिया है, जिससे बड़ी मात्रा में किसानों को निःशुल्क मिलने वाली ऊर्जा मिलनी बन्द हो गई है । अब किसान कर्जा लेकर ट्रैक्टर से जुताई कराता है और कर्जा लेकर खाद खरीदता है । सोचने का विषय है किसान कर्जदार हुआ ही क्यों और क्या करें कि दुबारा दलदल में न फंसे।
सकारों ने किसानों को कर्ज की सुविधा बहुत सरल कर दी है, इसलिए कर्जा खूब लेता है किसान, लेकिन उन्हीं सरकारों ने कर्जा माफी की परम्परा भी डाली है । कर्जा माफी की आशा में किसानों की ऋण अदा करने की आदत कमजोर हो गई है और आज की तारीख में किसान केवल कर्जदार ही नहीं उसके खेतों की नीलामी और उसके आत्महत्या करने तक की नौबत आती है। आज भी गाँव के छुटभैया साहूकरों से वह कर्जा लेता है क्योंकि बैंको के चक्कर लगाने में कीमती समय चला जाता है। उत्तर इस सवाल का चाहिए कि कर्जदार हुआ ही क्यों किसान ।
किसानों को आर्थिक संकट से बचाने का एक ही उपाय है कि गाँवों में स्थायी रोजगार के अवसर मुहैया कराए जायं । ऐसे उद्योग लगाए जाएं जहां किसानों द्वारा उगाई गई चीजों का कच्चे माल की तरह प्रयोग हो और किसानों को उन उद्योगों में नियमित काम मिले । उनका भला ना तो मनरेगा से होगा और ना ही मिड्डे मील से । किसानों कों चाहिए आर्थिक स्वावलम्बन जो खैरात से नहीं आएगा । कर्ज माफी को ऑपरेशन के पहले का एन्टीबायोटिक इंजेक्शन समझना चाहिए । इलाज अभी बाकी है ।