कॉलेज राजनीति का अखाड़ा, छात्र वोट बैंक बने

लखनऊ

तीन दर्जन विश्वविद्यालय और 700 से अधिक कॉलेजों के साथ उत्तर प्रदेश को एकेडमिक प्रशस्ति के पथ पर होना चाहिए था। जब से वोट डालने की उम्र 21 से घटाकर 18 साल कर दी गई थी, सभी विश्वविद्यालय और कॉलेजों के छात्र राजनैतिक दलों के वोट बैंक बन गए। सभी दलों ने अपनी छात्र इकाइयां परिसरों में गठित करके उनके कार्यालय छात्रावासों में बना रखे हैं।

ऐसे लोग गोष्ठियां करके केवल छात्र समस्याओं और शिक्षा से जुड़े मसलों पर ही परिचर्चा नहीं करते, बल्कि कश्मीर घाटी और सुकमा घाटी की घटनाओं के विचारों के बीज डाल देते हैं। भारत के टुकड़े करने की बात करते हैं ।

कष्ट की बात है कि आजादी के 70 साल बाद भी कोई स्पष्ट शिक्षा नीति नहीं बनी। कभी कहते हैं हाईस्कूल बोर्ड परीक्षा में कक्षा 9 और 10 तथा इंटरमीडिएट की परीक्षा में कक्षा 11 और 12 का पूरा कोर्स रहेगा, तो कभी केवल 10 और केवल 12 के कोर्स रहेंगे। कभी बयान आते हैं कि कक्षा 8 तक कोई फेल ना किया जाए, लेकिन परीक्षा बराबर होती रहती है।

हमारी शिक्षा प्रणाली में ज्ञान की परीक्षा न होकर याद्दाश्त की परीक्षा होती है। यहीं से जन्म होता है नकल और सामूहिक नकल का। सामूहिक नकल के विषय पर देश के प्रधानमंत्री को टिप्पणी करनी पड़ी। ठेके पर नकल कराने वाले परीक्षा केन्द्रों की पहचान की जाती है, उन्हें ब्लैक लिस्ट भी किया जाता है और फिर पता नहीं क्यों उन्हीं केन्द्रों पर परीक्षा कराई जाती है।

परीक्षाओं के बाद उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन केन्द्रीय व्यवस्था में होता है। इसमें सभी परीक्षक एक हाल में एकत्रित होते हैं, और प्रति कापी मानदेय कमाते हैं। उनका प्रयास रहता है दिन भर में अधिक से अधिक कापियां जांची जाएं। आज के डिजिटल युग में आवश्यकता है थोक भाव मूल्यांकन समाप्त करने और परीक्षा का समय घटाने की। वर्ष 2009 में माध्यमिक शिक्षा अभियान के अन्तर्गत शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए प्रत्येक अध्यापक पर छात्रों की संख्या 31 और अतिरिक्त भवन, पुस्तकालय और प्रयोगशालाओं की व्यवस्था की बात हुई थी। बात अधिक नहीं बढ़ी अन्यथा सुधार हुआ होता।

वहीं, संस्थानों में पढ़ाई के दिन बहुत घट चुके हैं इन्हें बढ़ाने की जरूरत है। गाँव कनेक्शन द्वारा समय समय पर लिखा गया है और पिछली सरकार को लिखित में दिया गया था कि महापुरुषों के नाम से अवकाश बंद हों और उस दिन विद्यालय में उस महापुरुष के नाम पर छोटा ही सही कार्यक्रम हो, और उसके विषय में बताया जाए। प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस ओर काम किया 15 दिन का अवकाश घटाया है।

वास्तव में देश के पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय अब्दुल कलाम ने यही बात कही थी। इस तरह के अवकाश महापुरुषों के सम्मान में नहीं राजनैतिक लाभ के लिए होते हैं। आधुनिक भारत के लिए इन महापुरुषों का सन्देश क्या है, बच्चे नहीं जान पाते। यह सराहनीय है कि अब स्कूल बन्द न करके उस दिन उस महापुरुष के नाम पर कोई छोटा कार्यक्रम किया जाएगा और अध्यापक बच्चों को बताएंगे उस महापुरुष के विषय में।

परीक्षा और मूल्यांकन के दिन घटाने के साथ ही प्रवेश के दिन भी घटने चाहिए और आज की डिजिटल सुविधाओं का लाभ उठाकर 40 दिन के बजाय 10 दिन में कार्यक्रम समाप्त किया जा सकता है। पुराने समय में साल में करीब 24 सार्वजनिक अवकाश होते थे, राजनैतिक कारणों से अब 51 अवकाश होते हैं। ग्रीष्मावकाश, रविवार, अध्यापकों की छुट्टियां और शीत और वर्षा के व्यवधान को घटाकर 200 दिन भी पढ़ाई के लिए नहीं मिलते हैं।

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