जब से उत्तर प्रदेश में अवैध बूचड़खानों पर, अवैध शब्द पर गौर कीजिए, बंदिश लगाई गई है, गाय एक बार फिर से सियासत के चौराहे पर बीचों-बीच आ खड़ी हुई है। अव्वल, सेकुलरवाद की रोटी खा रहे राजनीतिज्ञों को लगता है कि बूचड़खानों में सिर्फ गायें काटी जाती हैं। जनाब, उनमें बकरे भी काटे जाते हैं।
जो भी हो, केन्द्र में जब से नई सरकार बनी है, कुछ हिन्दू संगठन गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की मांग कर रहे हैं। कुछ संगठन, गाँव-कस्बों-शहरों में गेरूए रंग से दीवारों पर लिख रहे हैं कि गाय मारने वालों को फांसी दी जाए।
ठीक है। यह सियासत की भाषा है। यह ऐसी ही रहेगी। गाय हिन्दुओं के लिए पवित्र पशु और माता समान है। लेकिन खेतिहर भारत के लिए गाय उससे भी ज्यादा ज़रूरी है और इसीलिए गोवंश को बचाना बेहद ज़रूरी है। यह भी बेहद जरूरी है कि जब दुनिया ऑर्गेनिक खेती की तरफ बढ़ रही है तो गो-आधारित खेती, यानी खेती में गोबर और गोमूत्र का प्रयोग करके ही उपज को बढ़ाया जा सकता है।लेकिन, दुनिया में पवित्र जीवों समेत सभी जीवों के जान की कीमत बराबर है, और हम आत्मवत्सर्वभूतेषु की परंपरा मानने वाले देश से हैं, फिर भी मेरी निजी राय है कि इंसान की जान की कीमत थोड़ी ज्यादा कूती जानी चाहिए।
अमूमन गोरक्षा शब्द से गांधीजी का नाम जोड़ा जाता है। लेकिन, उसी दौर में ‘गौ-रक्षा’ के नाम पर कुछ सांप्रदायिक लोग गांधी की बातों का भी बेजा इस्तेमाल कर ले जाना चाहते थे। गांधी इससे बेखबर नहीं थे। 16 मार्च, 1921 को ऐसे लोगों के लिए ‘दुष्ट’ और ‘दुश्मन’ जैसे कठोर शब्दों का प्रयोग करते हुए ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा, ‘अपनी यात्रा के दौरान मुझे बहुत से ऐसे हिंदुओं से मिलने का मौका मिला है, जो गोरक्षा के लिए जल्दी मचा रहे हैं
। मैं उनका ध्यान एक घरेलू कहावत की ओर आकृष्ट करने की धृष्टता करूंगा, उतावला सो बावला. …हिंदू जोर-जबर्दस्ती से यह काम नहीं करा सकते। हमें याद रखना चाहिए कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बढ़ती हुई मित्रता को नष्ट करने वाली शक्तियां अभी तक सक्रिय हैं। दुष्ट लोग उस डोर को तोड़ डालने की पूरी कोशिश कर रहे हैं जिससे दोनों बंधे हुए हैं। हमें ‘दुश्मन’ के हाथों नहीं खेल जाना चाहिए।’
बहरहाल, गोरक्षा के नाम पर विभाजनकारी शक्तियां दोनों तरफ से सक्रिय हो गई हैं। लेकिन, गोरक्षा के नाम पर मरने-मिटने के लिए तैयार लोगों से एक सवाल गाय की रक्षा के लिए आपने और कौन-कौन से कदम उठाए हैं।मिसाल के तौर पर, गायों और बैलों के लिए चारे की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए प्रशासन और गोरक्षा संगठनों ने क्या कदम उठाया है।आप कभी बुंदेलखंड में चले जाएं। मध्य प्रदेश या उत्तर प्रदेश दोनों तरफ के बुंदेलखंड में कई साझा समस्याओं के साथ एक समस्या बहुत आम है, वह है, अन्ना प्रथा का।
बुंदेलखंड यूं तो सदियों से कम बारिश का इलाका रहा है, लेकिन पिछले एक दशक से लगातार आ रहे सूखे ने अकाल जैसी परिस्थितियां पैदा कर दीं, तो लोगों के लिए अपने मवेशियों के लिए चारा जुटाना मुश्किल हो गया। ऐसे में छोटे और सीमांत किसान ही नहीं, मंझोले किसानों ने भी अपने घर के मवेशियों को बाहर निकाल दिया है। अब यह मवेशी सड़कों पर छुट्टा घूमते हैं। आप उरई से लेकर इलाहाबाद किधर भी चले जाएं, सड़कों पर आवारा और चारे के लिए भटकते, गायों-बैलों से आपका सामना होकर ही रहेगा। हज़ारों की संख्या में भटकने वाले यह मवेशी खेतों में घुसकर फसल को भी चट कर जाते हैं।
पहले फसलों के वक्त इन मवेशियों को किसान वापस घर ले आते थे लेकिन बारिश और मौसम के बदलते मिजाज़ ने मवेशियों के अपने घर लौटने को दुश्वार बना दिया।भारत में मवेशियों के लिए हरे चारे की करीब 35.6 फीसद कमी है, सूखे चारे की कमी 26 फीसद। देश के सिर्फ 5 फीसद खेती लायक ज़मीन पर चारा उगाया जाता है। आबादी के बढ़ते दवाब ने चरागाहों को भी सिकोड़ दिया है।
भारत, दूध का दुनियाभर में सबसे बड़ा उत्पादक है, लेकिन मवेशियों के लिए चारे की उपलब्धता यहां बहुत बड़ी चुनौती है। सवाल है कि क्या बुंदेलखंड में अन्ना प्रथा की वजह से मारे-मारे फिर रहे इन मवेशियों के लिए चारा कभी मिल भी पाएगा? गोरक्षा के लिए तलवार उठाने वालों को इस तरफ भी सोचना चाहिए। अन्ना प्रथा के शिकार लाखों गाय-बैल बुंदेलखंड की सड़कों पर घूम रहे हैं, वह बोल नहीं सकते, वरना यह सवाल ज़रूर पूछते।
(यह लेख, लेखक के गुस्ताख़ ब्लॉग से लिया गया है।)
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