दुनियाभर में 22 मई को जैविक विविधता दिवस मनाया गया। हमारे देश में जनसामान्य भी जानता है ‘‘लख चौरासी में भरमाया, अन्त काल मानुस तन पाया” अर्थात 84 लाख योनियों अर्थात स्पिशीज़ का अनुमान था इस देश के पूर्वजों को। इतना ही नहीं वे जानते थे ‘‘जीवहि जीव अधार, बिना जीव जीवत नहीं” अर्थात सभी जीव परस्पर निर्भर हैं, बिना एक जीव के दूसरा जीवित नहीं रह सकता। यह थी हमारे मनीषियों की समझ जैव विविधता के विषय में।
प्राणि और वनस्पति प्रजातियों का साथ-साथ विकास हुआ और अलग-अलग आवास बना। कुछ जल में तो कुछ स्थल पर और कुछ वायुमंडल में या फिर वृक्षों पर निवास करने लगे। प्रजातियों की संख्या बढ़ती गई और लाखों में पहुंच गई। आज का वैज्ञानिक भी इससे सहमत है कि मनुष्य जीव विकास की अन्तिम कड़ी है। विविध जीव एक-दूसरे के लिए भोजन श्रृंखला बनाते हैं। उदाहरण के लिए घास और वनस्पति को हिरन और बकरी खाते हैं और उन्हें शेर खाता है। परन्तु जब हिरन को मनुष्य खाने लगेगा और शेर का भोजन छिन जाएगा तो वह मनुष्य को भी खाएगा।
हमारे देश में देवी देवताओं का वृक्षों के साथ अनन्य सम्बन्ध माना गया है। पीपल का सम्बन्ध यक्ष से, कदम्ब का कृष्ण से, बेलपत्र का शंकर से, कमल का विष्णु से, अशोक का कामदेव से और कचनार का लक्ष्मी से। इसी प्रकार पशु-पक्षियों के साथ भी देवी देवताओं का सम्बन्ध स्थापित है। शंकर की सवारी नन्दी, विष्णु की मयूर, गणेश की मूषक, दुर्गा की सिंह, लक्ष्मी की उलूक और न जाने कितने पशु-पक्षी इसी प्रकार सम्मानित स्थान प्राप्त किए हैं।
पुष्प, दूर्वा, कुश, चन्दन, तुलसी दल, बेलपत्र, आम के पत्ते, जल, फल के बिना तो पूजा-अर्चना ही सम्भव नहीं। जब एक भारतीय किसी बकरी या हिरन को देखता है तो भोजन के रूप में नहीं अपितु सहजीवी प्राणी के रूप में देखता है। यही है प्रकृति के साथ अद्वैत भाव। भारत के लोगों ने कच्छप, शूकर, मछली और नरसिंह के रूप में भी परमात्मा के दर्शन किए थे।
जैविक प्रजातियों के संरक्षण और संवर्धन के लिए जो उपाय भारत में किए जा रहे हैं उनके मिले-जुले परिणाम सामने आए हैं। जहां कुछ प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं वहीं कुछ अन्य प्रजातियां जैसे काले हिरन और नील गायों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हो रही है जो खड़ी फसलों को खा जाती हैं। इसी प्रकार बाघ, चीता, घडि़याल की चिन्ता तो है परन्तु भेडि़या, तेंदुआ, हिमचीता, सियार, जंगली कुत्ते, अनेक दुर्लभ पक्षी और रेंगने वाले प्राणियों पर ध्यान बहुत कम है। वन्य जीवों की असन्तुलित वृद्धि का प्रमुख कारण है कि जंगलों के कटने से उनके निवास उजड़ रहे हैं।
अनेकानेक जंगली प्रजातियों के साथ संकरण करके नए प्रकार की रोगावरोधी प्रजातियां उत्पन्न की जा सकती हैं। शायद इसीलिए पश्चिमी देश भारत की जैविक विविधता पर गीध दृष्टि गड़ाए बैठे हैं। पश्चिम के लोगों ने एक अद्भुत तरीका निकाला है जिससे वे संकटग्रस्त और विलुप्तप्राय प्रजातियों के ‘जीन्स’ निकालकर जीन्स बैंक बना रहे हैं। इस प्रकार जब सारे विश्व में अनेक प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी तब भी पश्चिमी देशों के जीन्स बैंकों में वे विद्यमान रहेंगी। वे जब चाहेंगे उन्हीं जीन्स की मदद से फिर से अपने देश में वही प्रजातियां उत्पन्न कर लेंगे। पता नहीं ऐसा करने के लिए वे स्वयं बचेंगे या नहीं।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समय-समय पर सम्मेलन और चर्चाएं हुआ करती हैं। इन सम्मेलनों में जहां विकसित देशों का स्वार्थ और दादागीरी उभर कर आती है वहीं विकासशील देशों की मजबूरी भी उजागर होती है। उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध के देशों के अलग-अलग स्वार्थ और अलग-अलग समस्याएं हैं। विकसित देशों का आग्रह रहता है कि जैविक विविधता को सम्पूर्ण विश्व की सम्पत्ति घोषित किया जाय और इन संसाधनों के दोहन पर विश्व का नियंत्रण हो। ये राष्ट्र न तो जैविक विविधता पर किए गए शोध परिणामों में विकासशील देशों की सहभागिता चाहते हैं और न इस सम्पदा के रखरखाव पर होने वाले व्यय में कोई भागीदारी। यदि जैविक विविधता को बनाए रखना है तो विकसित देशों को आर्थिक सहयोग करना होगा और शोध में विकासशील देशों को भागीदार बनाना होगा।