इस साल जंतर मंतर पर तमिलनाडु के किसानों ने जो मुहिम शुरू की उसका दायरा आज करीब करीब पूरे देश भर में विस्तारित हो चला है। हालांकि तमिलनाडु के किसानों ने मुख्य रूप से अपने राज्य के किसानों की बेहाली पर देश का ध्यान खींचने की कोशिश की थी और काफी हद तक सफल रहे। बाद में महाराष्ट्र के एक छोटे से दायरे से जो किसान आंदोलन खड़ा हुआ उसका विस्तार किसी न किसी रूप में देश के बड़े हिस्से तक हो गया।
मंदसौर में 6 जून को पुलिस की गोली से पांच किसानों की मौत के बाद गुस्सा और भड़क गया और इसमें राजनीतिक दल भी कूद पड़े। बाद में अलग अलग राज्यों में पहले तो इस आंदोलन से निपटने के लिए सरकारों ने अलग हथकंडे अपनाए। कहा गया कि आंदोलन विपक्ष प्रेरित है और मरने वाले किसान नहीं थे। लेकिन जब बात बनी नहीं तो कर्ज माफी से लेकर तमाम आदेश निकलने लगे। फिर भी जो इलाज किए गए उसके बाद मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में किसानों की आत्महत्याओं ने इतना तूल पकड़ा है कि सभी हैरत में हैं।
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भारत सरकार या राज्य सरकारों ने स्थिति संभालने की कोशिश की तब तक देश में किसान संगठनों के बीच एक नयी एकता स्थापित हो चुकी है और 20 राज्यों के 130 से अधिक किसान संगठन एक मंच के नीचे आ कर एक नया अभियान चलाने की तैयारी में हैं। वे केवल दो मुद्दों तक खुद को केंद्रित किए हैं- कर्जमाफी और स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशों के तहत एमएसपी पर 50 फीसदी राशि और प्रदान करना।
आज पूरे देश में किसान संकट में दिख रहे हैं और भारत सरकार हों या राज्य सरकारें वे उनके हितों के संरक्षण में विफल रही हैं। किसी भी संकट के सवाल पर कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह के पास एक ही जवाब होता है कि सरकार 2022 तक किसानो की आय दोगुना करने के लिए सभी संभव प्रयास कर रही है। लेकिन न तो उनको वह कृषि संकट दिख रहा है जो संपन्न पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में मालवा के साथ महाराष्ट्र तक को अपनी गिरफ्त में ले चुका है, न ही किसानों की आत्महत्याएं। सरकार इसी बात से खुश है कि अनाज का रिकार्ड उत्पादन हो रहा है। लेकिन अगर किसानों को कृषि उत्पादों का उचित मूल्य मिल रहा होता तो क्या उनके गुस्से की ऐसी परिणति होती। क्या दूध से लेकर फल सब्जियों को वे सड़क पर फेंकने को मजबूर होते। क्या प्याज से लेकर आलू तक सड़को पर मारा मारा फिरता।
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प्रधानमंत्री की अपील पर किसानों ने दालों की शानदार पैदावार की लेकिन आज हालत यह है कि वे दालों कोएमएसपी से भी कम पर बेचने को मजबूर हैं। अरहर का एमएसपी 5050 रुपए कुंतल है पर किसान 3500 से 4600 तक में उसे बेचने को विवश हैं। उनकी खेती की लागत लगातार बढ़ रही है और अगर ऐसी दशा में भी अगर किसानों को वाजिब दाम न मिलें तो वे अपनी स्थिति को खराब होने से कब तक संभाले रह सकेंगे।
इस नाते आज छोटे-छोटे इलाज की जगह सरकार को कृषि मूल्य नीति में ठोस बदलाव करने के साथ किसानों की उपज के खरीद के लिए एक ठोस तंत्र बनाना होगा। फसल आते ही बाजार की ताकतें और बिचौलिए दाम गिरा दें, इसे रोकने का ठोस विधायी तंत्र बनाना होगा। लगातार बिचौलिया कृषि बाजार को अपनी मुट्ठी में बंद करने में सफल हो रहे हैं और सरकारों पर भी उनकी पकड़ मजबूत होती जा रही है। इसी नाते किसान लगातार ठगा जा रहा है।
2014 के संसदीय चुनाव और उसके बाद के कई विधान सभाओं के चुनावों में भाजपा ने किसानों के हक में तमाम वायदे किए थे। किसान एजेंडे के तहत नीम कोटेड यूरिया के लेकर फसल बीमा तक तमाम काम किए गए हैं लेकिन असली मुद्दे यानि वाजिब दाम के सवाल पर एक कदम भी सरकार आगे नहीं बढ़ी है। न ही मूल्य नीति की तरफ ध्यान दिया गया है।
भारत सरकार कृषि लागत और मूल्य आयोग यानि सीएसीपी की सिफारिशों के तहत देश की प्रमुख 25 फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने का काम करता है। 1965 में इसका गठन किया गया था। सात सदस्यों वाला इस आयोग के दायरे में धान, ज्वार, बाजरा, रागी, गेहूं जौ, चना अरहर, मूंग उड़द, मसूर,मूंगफली, सरसों, सूर्यमुखी, सोयाबीन, कुसुम तोरिया, गन्ना, कपास, पटसन, तंबाकू, नारियल, तिल और रामतिल जैसी फसलें शामिल हैं।
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आयोग के गठन के दौरान 1965 में आठ प्रमुख जिंसों के दाम ही सरकार तय करती थी। बाद में फसलों की सूची बढ़ कर 25 हो गयीं। उदारीकरण के बाद 1995 में राततिल और तिल और 2001 में मसूर को भी एमएसपी के दायरे में शामिल किया गया। सरकारी दावा है कि देश में एमएसपी के तहत कवर की गयी फसलों का योगदान करीब 60 फीसदी है। शेष बची 40 फीसदी फसलों में से अधिकांश अन्य जिसें और बागवानी उत्पादन शामिल हैं जिनको मंडी हस्तक्षेप योजना के तहत संरक्षण दिया गया है। बेशक न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में आने वाली फसलों का राष्ट्रीय महत्व है लेकिन जो फसलें इसके दायरे में नहीं आती हैं, उनके किसानों को भारी पीड़ा से गुजरना पड़ रहा है। कई राज्यों ने एमएसपी के दायरे में नयी फसलों को लाने की सिफारिशें कीं लेकिन भारत सरकार ने इसे नहीं माना। संसद की कृषि संबंधी स्थायी समिति भी प्रमुख नकदी फसलों के साथ हर राज्य की एक या दो प्रमुख फसलों को इसके दायरे में शामिल करने की सिफारिश कर चुकी है।
हालांकि सरकारी दावा है कि कृषि उत्पादों की लागत निर्धारण के लिए एक ठोस प्रक्रिया बनी हुई है। आयोग उत्पादन लागत औऱ निवेश मूल्य में परिवर्तन, बाजार मूल्य की प्रवृत्ति, मांग और पूर्ति की स्थिति, औद्योगिक लागत संरचना पर प्रभाव जैसे तथ्यों के साथ कई पहलुओं पर विचार करता है। दावे और भी हैं। कृषि मूल्य नीति में साफ कहा गया है कि कि फसलों का दाम बुवाई के पहले घोषित करना चाहिए ताकि किसान निवेश संबंधी निर्णय ले सकें। लेकिन बीते कई सालों से इसमें गंभीर लापरवाही बरती जा रही है।
देश में मुख्य फसलों की खेती की लागत के आंकड़े जुटाने में कई राज्यों के कृषि विश्वविद्यालयों की मदद ली जाती है। लेकिन किसान नेता चेंगल रेड्डी का दावा गलत नहीं है कि 16 में से 12 धान किसान समर्थन मूल्य के चलते घाटा उठाते हैं, क्योकि इसके लिए तीन साल पुराना आंकडा उपयोग में लाया जाता है। मुद्रास्फीति कहीं विचार में नहीं रखा जाता है न ही आदानों के बढ़े दामों पर गौर किया जाता है।
वैसे तो दुनिया में करीब हरेक उत्पादक को अपनें उत्पादों का दाम तय करने का अधिकार है लेकिन किसानों की जगह हमारी प्रमुख फसलों का दाम तय करने का अधिकार भारत सरकार के पास है। किसानों की आम शिकायत है कि उनको सरकारी एमएसपी से खास फायदा नहीं है। क्योंकि सरकारी खरीद तंत्र तमाम राज्यों में बेहद कमजोर है। आयोग लागत तय करते समय आयोग राज्यों का दौरा करता है और साल भर में आयोग सरकार को पांच रिपोर्ट देता है जो खरीफ और रबी की मूल्य नीति के अलावा गन्ने, कोपरा और कच्चे जूट की मूल्य नीति से संबंधित होती है।
कृषि लागत और मूल्य के मसले को लेकर अब तक कई समितियां बनीं जिनकी कई रिपोर्टें आयीं लेकिन राजनीतिक इच्छाशीलता की कमी से हालात बदले नहीं। डॉ.वाई.के.अलघ की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों के आधार पर 2003 में एमएसपी निर्धारण के परीक्षण के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनी, फिर भी किसानों को राहत नहीं मिली। बाद में डॉ.एम.एस स्वामिनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय कृषक आयोग ने सबसे बेहतरीन सिफारिश की। वायदा करने के बाद सरकार इससे मुकर गयी। स्वामिनाथन समिति ने एमएसपी को उत्पादन लागत से 50 फीसदी अधिक करने का कहा था। लेकिन न तो यूपीए की तरह एनडीए सरकार ने भी किसानों को आहत किया। और इस नाते दर्द और बढ़ता चला गया। इसी नाते किसान संगठन पिछले काफी समय से यह मांग मुखरित कर रहे हैं कि 1969 को आधार वर्ष मान कर फसलों के दाम तय हों, लेकिन सरकार लगातार इसकी अनदेखी कर रही है।
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जिस देश में ज्यादातर किसानों की आय राष्ट्रीय औसत से कम हो, उनको अगर उपज का भी सही मूल्य नहीं मिलेगा तो वे कैसे बचेंगे। आज किसान कम उत्पादन करने पर भी मरते हैं और अधिक उत्पादन करने पर भी। भारत सरकार या राज्य सरकारें दावा कुछ भी करे लेकिन हकीकत यही है कि उदारीकरण के बाद से खेती-बाड़ी और देहात की दशा लगातार दयनीय होती जा रही है। किसानों और अन्य संगठित क्षेत्र के बीच 1970 के दशक में जो अंतर 1-2 का था वह अब बढक़र 1-8 का हो गया है। ऐसे में खेती की परंपरागत हैसियत और आदर दोनों प्रभावित हुए हैं। आज जरूरत है यह है कि सबसे पहले सरकार कृषि मूल्य नीति पर ठोस पहल करे और किसानों के साथ न्याय करे। इसकी अनदेखी राजनीतिक और सभी लिहाज से देश को भारी पडेगी।
लेखक- अरविंद कुमार सिंह- राज्यसभा टीवी में वरिष्ठ पत्रकार हैं। कई देशों की यात्रा के साथ लगातार भारत के गांवों का भ्रमण करते रहते हैं। ग्रामीण और किसान से जुड़े मुद्दों पर ख़बर फोकस रखते हैं। ये उनके निजी विचार हैं।