क्या यह मंत्रिमंडल इस मायने में भी विशिष्ट है कि इसमें कोई ईसाई शामिल नहीं है। ऐसा तब है जबकि पूर्वोत्तर के ईसाई बहुल प्रांतों में ईसाइयों का शासन है। मेघालय, मिजोरम और नगालैंड लगभग पूरी तरह ईसाई प्रांत हैं और पंजाब तथा जम्मू कश्मीर को छोड़ दिया जाए तो देश के शेष 24 राज्यों में से एक में भी अल्पसंख्यक मुख्यमंत्री नहीं है।
इस चर्चा की शुरुआत हम अदालती तौर तरीके उधार लेकर कर सकते हैं। यानी पहले सुस्पष्ट तथ्यों पर बात करते हैं और इसके बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि यह अच्छी बात है या बुरी। उपराष्ट्रपति पद से मोहम्मद हामिद अंसारी की विदाई के साथ ही भारतीय राजनीतिक इतिहास का एक नया अध्याय शुरू हुआ है। मैंने कई अल्पकालिक सरकारों के इतिहास को खंगाला, लेकिन मुझे कम से कम बीते 50 साल में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिला जब हमारे शीर्ष राजनीतिक पदों: राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और शीर्ष मंत्रियों (गृह मंत्री, वित्त मंत्री, रक्षा मंत्री या विदेश मंत्री) पर किसी न किसी अल्पसंख्यक की मौजूदगी न रही हो। मुझे पता है कि आप गूगल की मदद लेकर मुझे गलत साबित करने की कोशिश करेंगे लेकिन कृपया यह याद रखिएगा कि केवल मुस्लिम और ईसाई ही नहीं, सिख भी अल्पसंख्यक हैं।
अब जरा नरेंद्र मोदी सरकार के सदस्यों पर नजर डालिए। यह आजाद भारत के इतिहास में एक विशिष्ट मंत्रिमंडल है जहां केवल एक अल्पसंख्यक सदस्य मंत्रिमंडल का हिस्सा है। राजग साझेदार अकाली दल की हरसिमरत कौर वह मंत्री हैं। उन्हें खाद्य प्रसंस्करण विभाग (उनके वफादार निराश होकर कहते हैं कि यह चटनी, अचार, जैम और जूस का मंत्रालय है) दिया गया है। कनिष्ठ मंत्रियों पर नजर डालें तो कुछ नाम नजर आते हैं। मुख्तार अब्बास नकवी अल्पसंख्यक समुदाय के सबसे वरिष्ठ मंत्री हैं, उन्हें स्वतंत्र प्रभार हासिल है। विदेश मंत्रालय में एम जे अकबर राज्यमंत्री हैं।
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इसके अलावा कोई नाम नजर नहीं आता। हालांकि कई बार नाम भ्रामक भी हो सकते हैं, विशेषतौर पर ईसाइयों के नाम। तो क्या यह मंत्रिमंडल इस मायने में भी विशिष्ट है कि इसमें कोई ईसाई शामिल नहीं है। ऐसा तब है जबकि पूर्वोत्तर के ईसाई बहुल प्रांतों में ईसाइयों का शासन है। मेघालय, मिजोरम और नगालैंड लगभग पूरी तरह ईसाई प्रांत हैं और पंजाब तथा जम्मू कश्मीर को छोड़ दिया जाए तो देश के शेष 24 राज्यों में से एक में भी अल्पसंख्यक मुख्यमंत्री नहीं है। आगे बात करें तो मोदी-शाह के नेतृत्व वाली भाजपा इंदिरा गांधी के बाद की सबसे ताकतवर सरकार है। इस सरकार के प्रमुख अल्पसंख्यक चेहरों की बात करें तो शाहनवाज हुसैन, एसएस आहलूवालिया के बाद तेजिंदर पाल बग्गा ही याद आते हैं। आप कांग्रेस, वाम या अन्य क्षेत्रीय दलों का नाम लेकर प्रतिवाद कर सकते हैं कि वहां भी तादाद बहुत ज्यादा नहीं है। परंतु इससे तो हमारा निष्कर्ष ही मजबूत होता है कि देश के अल्पसंख्यक कभी सत्ता से इतनी दूर नहीं रहे। ऐसे में मौजूदा असहजता जायज है।
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हमारी राजनीति सबसे विचित्र विरोधाभासों को हमारे सामने लाती है। मसलन लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी (यह क्रम जानबूझकर चुना गया है) ने अपनी पार्टी को सन 1984 के बाद फर्श से अर्श पर पहुंचाया। उन्होंने इसके लिए हिंदू बहुसंख्यक समाज की अल्पसंख्यकों को लेकर मानसिकता का लाभ उठाया। वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष धड़े की मान्यता के उलट यह सारी कवायद बहुसंख्यक समाज की आत्मदया की उपज नहीं थी। दशकों के कांग्रेस शासन के दौरान नेहरू की सख्त लेकिन अपेक्षाकृत सहज धर्मनिरपेक्षता के बाद हमने इंदिरा गांधी का अल्पसंख्यकवाद भी देखा और शाह बानो मामले में राजीव गांधी का आत्मसमर्पण भी। यह सब इतना नाटकीय था कि खुद कांग्रेस के उदार मुस्लिम चक्कर में पड़ गए। उस वक्त के उभरते मुस्लिम नेता और राज्यमंत्री रहे आरिफ मोहम्मद खान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति से निकले थे। उन्होंने शाह बानो मामले के बाद विरोध स्वरूप त्याग पत्र दे दिया। रूढ़िवादी हिंदू मतदाताओं (जरूरी नहीं कि वे भाजपा के मतदाता हों) के सामने इस पार्टी का सुधारवादी रुख हिंदू कोड बिल के रूप में सामने आया था। वह पार्टी इस तरह मुस्लिमों को कैसे लुभा सकती है? इस सोच ने आडवाणी को जगह बनाने का अवसर दिया और अल्पसंख्यकों के प्रति बहुसंख्यकों के बदले रुख ने देश की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया। आज की अल्पसंख्यक मुक्त भारत सरकार इसी का परिणाम है।
सन् 1993-94 में मैंने लंदन स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रैटजिक स्टडीज के लिए एक विशेष लेख लिखा था कि कैसे भारत अपनी भूमिका दोबारा निर्धारित कर रहा है। लेख में मैंने भाजपा के उदय की उम्मीद जाहिर की थी। बतौर प्रधानमंत्री अपने खिलाफ पहले अविश्वास मत का जवाब देते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने उसके अंश का उल्लेख करते हुए गहरी निराशा से कहा था कि कुछ अस्वाभाविक घटित हुआ है। हिंदू बहुसंख्यकों के मन में अल्पसंख्यक बोध हावी है। वह इस पर बहस चाहते थे।
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इसका बचाव करना तो दूर की बात है। वह इसे लेकर निराश थे और कह रहे थे कि इस बारे में कुछ करना चाहते हैं। ध्यान दीजिए कि सन् 1998 में बहुसंख्यकों की चिंता को रेखांकित करने के लिए उनकी तारीफ हुई। दो दशक बाद हामिद अंसारी पर हमला हो रहा है जबकि उन्होंने अल्पसंख्यकों से जुड़ी वही चिंताएं सामने रखी हैं। हमें उनको ध्यान से सुनना चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे हमने वाजपेयी को सुना। मान लेते हैं कि वाजपेयी सही थे, तो क्या हमारी राजनीति ने खुद में जरूरत से ज्यादा ही सुधार किया है? क्या अंसारी की चिंता जायज है? क्या सुधार की जरूरत है? आखिरी बात, क्या अल्पसंख्यक मायने रखते हैं?
तीन युवा, अपूर्ण और अलग-अलग एशियाई लोकतांत्रिक देश इस सवाल से जूझते रहे हैं। सन् 1993 में मेरे साथ एक साक्षात्कार में स्वर्गीय शिमॉन पेरेज ने कहा था कि बंगाल की खाड़ी से लेकर भूमध्य सागर तक जिन दो देशों ने मुस्लिम अल्पसंख्यकों समेत अपने नागरिकों को निष्पक्ष अधिकार दिए हैं वे हैं इजरायल और भारत। अल्पसंख्यक उनके देश के लिए मायने रखते थे लेकिन उसने उन्हें पूर्ण लोकतांत्रिक अधिकार नहीं दिए। एक उदार, आधुनिक लोकतांत्रिक यहूदी राष्ट्र की विचारधारा के इर्दगिर्द उपजी यह दुविधा जॉन लेकारे की ‘द लिटिल ड्रमर गर्ल’ को पढ़ते हुए भी हमारे दिमाग में आती है। अगर इजरायल पश्चिमी तट के इलाकों को अपने पास रखना चाहता है और सभी अरब नागरिकों को मताधिकार देता है तो वह एक यहूदी राज्य रहेगा। अगर वह इससे इनकार करता है तो वह गणराज्य नहीं रह जाएगा। इजरायल एक अजीबोगरीब लोकतंत्र है जहां हर किसी के पास मताधिकार है लेकिन गुणवत्ता नहीं। अगर वहां अरब उच्च पदों पर नहीं पहुंचते तो कोई सवाल नहीं करता।
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पाकिस्तान की स्थिति भी ऐसी ही है। इजरायल की तरह वह भी एक विचारधारा आधारित देश है और उसके सामने भी वही सवाल है। अगर अल्पसंख्यकों को समान राजनीतिक अधिकार हैं तो वह इस्लामिक गणराज्य कैसे हो सकता है? उसके संस्थापकों ने अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया था लेकिन राजनीति में आरक्षित सीटों वाले अल्पसंख्यक बने रहे। उसने कुछ रोचक प्रतीकात्मक शुरुआत की। मसलन अंतरप्रांतीय तालमेल के लिए दर्शन लाल के रूप में नया मंत्री बनाना या सेना में सिख अधिकारी हरचरण सिंह, सेना का पहला हिंदू शहीद लांस नायक लाल चंद राबड़ी आदि। ठीक उसी समय वहां ऐसे राजनेता को बाकायदा मान मिलता है जो हिंदू लड़कियों के अपहरण को उचित ठहराता है और उनके जबरन धर्मांतरण का हिमायती है। वहां हिंदुओं का व्यापक शोषण जारी है और उनकी आबादी लगातार कम हो रही है। पाकिस्तान में हिंदू, सिख और ईसाइयों के अलावा अहमदिया जैसे अल्पसंख्यक भी हैं जिनको खारिज किया जाता रहा है। भारतीय दक्षिणपंथियों की इस दलील में दम है कि कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष सरकारें अल्पसंख्यक वोट बैंक का खेल खेलती रहीं। यह भी सच है कि अल्पसंख्यकों ने भाजपा के खिलाफ मतदान किया और कांग्रेस तथा उसके सहयोगियों को सत्ता में बनाए रखा, लेकिन अब उत्तर प्रदेश में हमने देखा कि उनका वोट बैंक मायने नहीं रखता। निस्संदेह हमारी सरकार उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करेगी, उनके सामाजिक हालात सुधारेगी लेकिन सत्ता में हिस्सेदारी सांकेतिक ही रहेगी। पाकिस्तान की तरह हम अपने दर्शन लाल खोज लेंगे। तब हम पाकिस्तान की राह पर होंगे कि अल्पसंख्यक मायने ही नहीं रखते। आलेख का खात्मा एक सवाल के साथ: अब जबकि हम राष्ट्रवाद को नए सिरे से परिभाषित कर रहे हैं तो क्या पाकिस्तान हमारी प्रेरणा बनेगा?
शेखर गुप्ता, फाउंडर और एडिटर इन चीफ द प्रिंट (http://theprint.in” और अंतराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं ‘ट्वीटर हैंडल- @ShekharGupta