चलिए आज मैं आपको विक्रम और बेताल की कहानी सुनाता हूं। यह पूछने से पहले कि इसका कृषि संकट से क्या लेना-देना है मेरा सुझाव है कि आप कहानी सुन लीजिए।
विक्रम, बेताल को अपनी पीठ पर लाद ले जा रहा था और बेताल ने हमेशा की तरह उनसे एक सवाल पूछ लिया, ‘एक पिता के तीन बेटे थे। सबसे बड़ा बेटा प्रबुद्ध और मेधावी बुद्धि वाला था, बीचवाला सामान्य बुद्धि वाला आम आदमी था, तीसरे में कुछ विकलांगता थी। पिता के पास एक रोटी थी जिसे उसे अपने तीनो बेटों में बांटनी थी। अब ये बताओ कि वो उस रोटी को किस अनुपात में अपने बेटों के बीच बांटेगा?’
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ये कहानी कुछ दिन पहले देश के विख्यात पुराणशास्त्री देवदत्त पटनायक द्वारा प्रसिद्ध पत्रकार शोमा चौधरी के साथ गुड़गाँव में बातचीत करते हुए सुनाई गई थी। उन्होंने दर्शकों से कहा कि घर पहुंचने के बाद सोच समझ कर इस प्रश्न का जवाब दें परन्तु साक्षात्कार शोमा चौधरी ने झट से उत्तर देते हुए कहा, ‘स्पष्ट है कि वो रोटी के तीन बराबर टुकड़े करके तीनो को देंगे।’ इस पर पटनायक ने कहा, ‘मुझे ऐसा नहीं लगता। यदि विकलांग पुत्र को एक तिहाई रोटी मिलेगी तो उसे आवश्यकतानुसार पोषण नहीं मिल पाएगा, इसी प्रकार यदि सबसे बड़े पुत्र को एक तिहाई रोटी मिलेगी तो उसकी बुद्धि के पोषण के लिए भी वह कम पड़ेगी, इसलिए पिता को बहुत सोच समझ कर निर्णय लेना था।’
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किसानों की औद्योगिक विकास की वेदी पर बलि दी जा रही है। प्रत्येक वर्ष तय किया जानेवाला न्यूनतम समर्थन मूल्य वास्तव में खेती के उत्पादन मूल्य से कम होता है। कृषि लागत और मूल्य आयोग इस बात को मानता है परन्तु उसकी भूमिका किसानों को भुगतान की कीमतों और उपभोक्ताओं के लिए बाजार मूल्य के बीच संतुलन बनाना है।
देवदत्त पटनायक ने समझाया कि हम जो सैद्धांतिक मान्यताएं बनाते हैं उनमें और वास्तविकता में ज़मीन आसमान का अंतर होता है। किसी ध्येय अथवा लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कुछ बलिदान देने की भी आवश्यकता होती है। फिर उन्होंने निर्णायक तौर पर कहा, ‘अगर आपका उद्देश्य उद्योग को बढ़ावा देना है तो आपको कृषि का बलिदान देना होगा।’ आगे वो बोले कि आप ये नहीं कह सकते कि आप उद्योग को बढ़ावा देना चाहते है पर कृषि को भी व्यवहार्य बनाये रखना चाहते हैं। इस प्रकार काम नहीं हो सकता है। दोनों में से एक क्षेत्र को हानि झेलनी होगी।
वो बिलकुल ठीक कह रहे हैं। जब से 1991 में आर्थिक सुधारों को शुरू किया गया था तभी से अनुवर्ती सरकारें यही करती आई हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उद्योग को बढ़ाने के लिए कृषि का बलिदान दिया गया है। वस्तुतः मैं कई बार कह चुका हूं कि आर्थिक सुधारों को व्यवहार्य बनाये रखने के लिए कृषि की बलि दी जा रही है और जैसा आप जानते हैं आर्थिक सुधार उद्योग से ही जुड़े हुए हैं। इसलिए एक प्रकार से देवदत्त पटनायक ने उसी बात की पुष्टि की है जो मैं लम्बे समय से कहता आया हूं। कृषि की भूमिका उद्योग के लिए सस्ता कच्चा माल उपलब्ध करवाने, रियल एस्टेट और अवस्थापना सहित उद्योग के लिए भूमि उपलब्ध करवाने और उद्योग के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध करवाने तक सिमट गई है।
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नीति निर्धारकों के लिए किसानों की केवल दो भूमिकाएं हैं : या तो वो वोट बैंक समझे जाते हैं या भूमि बैंक।
मैं नहीं जानता कि विक्रम ने बेताल को क्या जवाब दिया लेकिन यदि आप खाली समय में बैठ कर विचार करें तो आप मानेंगे कि देवदत्त पटनायक ने बहुत पते की बात कही है। दो उदाहरण पेश करके मैं आपके सामने इस बात को सिद्ध करता हूं। 1990 के दशक के शुरुआत में जब मैं इंडियन एक्सप्रेस में पत्रकार था, मुझे याद है कि मैंने कृषि लागत और मूल्य आयोग की खरीफ रिपोर्ट का अध्ययन किया था। फसल उगाने के प्रत्येक मौसम में कृषि लागत और मूल्य आयोग एक रिपोर्ट जारी करता है जिसमें फसलों के न्यूनतम लागत मूल्य की गणना की जाती है। उस रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा था कि कई वर्षों से वस्त्र उद्योग को प्रतिस्पर्धी बनाए रखने के लिए कपास किसानों को वैश्विक बाज़ार कीमतों से 20 प्रतिशत कम भुगतान किया जा रहा था। यही नीति अब भी जारी है।
कृषि की भूमिका उद्योग के लिए सस्ता कच्चा माल उपलब्ध करवाने, रियल एस्टेट और अवस्थापना सहित उद्योग के लिए भूमि उपलब्ध करवाने और उद्योग के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध करवाने तक सिमट गई है।
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वस्त्र उद्योग को व्यवहार्य रखने के लिए कपास किसानों को 20 प्रतिशत कम भुगतान किया जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कपास की कीमत कम होने का कारण है अमेरिका द्वारा अपने कपास किसानों को दी जाने वाली वृहत सब्सिडी । 2005 में मैंने हांगकांग डब्ल्यूटीओ मिनिस्टीरियल के दौरान किए गए अपने विस्तृत अध्ययन के दौरान बताया था कि अमेरिकी सब्सिडी किस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय कपास मूल्यों में गिरावट लाती है जिसके परिणामस्वरूप भारत और पश्चिमी अफ्रीका के किसान अयोग्य उत्पादक प्रतीत होते हैं।
‘योर सब्सीडीज़ किल आवर फार्मर्स’ शीर्षक से लिखे गए एक पत्र, जिसे न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित किया गया था, उसमें चार पश्चिमी अफ्रीकी देशों के प्रमुखों ने बिलकुल स्पष्टता से दर्शाया था कि किस प्रकार अमेरिका द्वारा दी जा रही सब्सिडी अफ्रीका के कपास किसानों का जीना दूभर कर रही है। हम कितनी सब्सिडी की बात कर रहे हैं? 2005 में अमेरिका ने केवल 20,000 किसानों को 3.9 बिलियन डॉलर मूल्य की फसल की पैदावार के लिए 4.7 बिलियन डॉलर की सब्सिडी प्रदान की थी।
ये बड़ी भारी कपास सब्सिडी अमेरिकी वस्त्र उद्योग को व्यवहार्य रखने के लिए दी गई थी। इसके पीछे किसानों की सहायता करने का भाव नहीं था बल्कि ये वस्त्र उद्योग के लिए प्रोत्साहन था। कपास सब्सिडी वैश्विक कीमतों में गिरावट लाती हैं जिसके कारण भारत और अफ्रीका के किसान कपास के क्षेत्र से बाहर हो जाते हैं। इसके बाद सस्ते और बड़े स्तर पर सब्सिडी प्राप्त वस्त्र भारत, चीन और अन्य विकासशील देशों द्वारा आयात किए जाते हैं। भारत को देखें तो वास्तव में किसानों द्वारा की गई आत्महत्या के मामलों में 70 प्रतिशत मामले कपास किसानों के होते हैं। ये किसान एक सोची समझी नीति के शिकार हैं जिन्हें उनको उचित आय प्राप्त करने से रोका जाता है ताकि वस्त्र उद्योग फल फूल सके।
किसानों की औद्योगिक विकास की वेदी पर बलि दी जा रही है। प्रत्येक वर्ष तय किया जानेवाला न्यूनतम समर्थन मूल्य वास्तव में खेती के उत्पादन मूल्य से कम होता है। कृषि लागत और मूल्य आयोग इस बात को मानता है परन्तु उसकी भूमिका किसानों को भुगतान की कीमतों और उपभोक्ताओं के लिए बाजार मूल्य के बीच संतुलन बनाना है। इसका मतलब है कि उपभोक्ताओं को खुश रखने के लिए किसानों को ग़ुरबत में रखा जा रहा है। क्या इसका अर्थ ये नहीं कि वर्ष दर वर्ष वास्तव में किसान उपभोक्ताओं को सब्सिडी दे रहे हैं?
मैं और मेरे दल के सदस्य एक अध्ययन रिपोर्ट को तैयार कर रहे हैं जिसमें ये सामने आया है कि भारत के किसानों से हर वर्ष 12.60 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी की जा रही है। हर वर्ष उद्योग और उपभोक्ताओं को खुश रखने के लिए उन्हें इस राशि से वंचित रखा जा रहा है। ये है वो आर्थिक बलिदान जो उद्योग को व्यवहार्य रखने की खातिर कृषि से लिया जा रहा है।
(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं। ट्विटर हैंडल @Devinder_Sharma ) उनके सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )