कहते हैं अयोध्या में 1949 की उस घड़ी जब आधी रात को बाबरी मस्जिद में अचानक घन्टा घड़ियाल बजने लगे थे, शहर में कौतूहल मच गया था और लोग आवाज की तरफ़ भागे थे। जो जिस गली में पहुंचा, उसे वहीं गिरफ्तार कर लिया गया था। तत्कालीन जिलाधीश कृष्ण करुणाकर नय्यर से जवाब तलब हुआ था। उनका कहना था कानून व्यवस्था कहीं बिगड़ी हो तो मैं जिम्मेदार हूं। मामला अदालत में गया और साल दर साल चलता रहा। जमीन पर स्वामित्व की परीक्षा के लिए अदालत की देख-रेख में उस जगह की खुदाई हुई जहां कहते हैं पुराने मन्दिर के भग्नावशेष मिले हैं जिनका अध्ययन पुरातत्ववेत्ताओं ने किया है।
अदालत में यह मसला मालियत का है और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आपसी सहमति से न तो बाबरी मस्जिद बनी थी और न राम मन्दिर बन पाएगा, टाइम पास के लिए रास्ता ठीक है। दुख की बात है कि अदालत को 68 साल लग गए इस नतीजे पर पहुंचने में कि मामला संजीदा है और आपस में मिल बैठ कर मसला हल करना चाहिए।
तब के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू यदि चाहते तो मसला 1949 में ही हल हो जाता लेकिन उन्होंने जिन्ना और माउन्टबेटन के साथ बैठकर शिमला में हिन्दुस्तान को हिन्दू और मुसलमानों में तकसीम कर दिया था लेकिन बाबरी मस्जिद की जमीन को नहीं बांट पाए या नहीं बांटा। उधर केके नय्यर इतने लोकप्रिय हो गए थे कि उन्होंने नेहरू के चहेते मंत्री केशवदेव मालवीय को भारी मतों से पराजित किया था। उनका ड्राइवर भी जीता था। निश्चित रूप से हिन्दुओं के लिए यह स्थान आस्था का विषय रहा है और मैं तब जन्मस्थान देखने गया था जब रामलला बाबरी मस्जिद में विराजमान थे। उन्हें शान्ति से मस्जिद में ही रहने देते तो क्या बुरा था, कई बार मैं सोचता हूं।
मुसलमानों के लिए बाबर आस्था का विषय नहीं है। इतिहासकार बताते हैं बाबर ने 1200 सैनिक और तोपखाना लेकर राणा सांगा के एक लाख की सेना को परास्त किया था और राणा के शरीर पर 80 घाव हुए थे। बाबर ने भारत पर जबरिया कब्जा किया था। जमीन जायदाद पर जबरिया कब्जा का निपटारा अदालत नहीं करेगी तो कौन करेगा? मुसलमानों के लिए और अब हिन्दुओं के लिए भी यह मसला आस्था का नहीं रहा क्योंकि आस्था पर अदालत फैसला नहीं सुना सकती। अदालत में यह मसला मालियत का है और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आपसी सहमति से न तो बाबरी मस्जिद बनी थी और न राम मन्दिर बन पाएगा, टाइम पास के लिए रास्ता ठीक है।
दुख की बात है कि अदालत को 68 साल लग गए इस नतीजे पर पहुंचने में कि मामला संजीदा है और आपस में मिल बैठ कर मसला हल करना चाहिए । यदि ऐसा ही था तो मुकदमा अदालत में ऐडमिट नहीं होना चाहिए था । बाबरी मस्जिद के पक्षकार जफरयाब जीलानी ने बिना लाग लपट के कह दिया है कि आपस में फैसला नहीं हो सकता। सरकार के लिए एक रास्ता अभी भी बचता है, सोमनाथ मन्दिर वाला मार्ग जब नेहरू सरकार ने संसद में प्रस्ताव पास करके मन्दिर बनाया था।
इस 68 साल की अवधि में मुकदमा अदालत में चलता रहा और अदालत के बाहर बहुत कुछ होता रहा। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है अस्सी के दशक में लालकृष्ण आडवाणी की अगुवाई में चलाया गया राम जन्मभूमि आन्दोलन जिसमें तमाम जन-धन की हानि हुई बावजूद इसके कि तब के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कहा था परिन्दा पर नहीं मार सकता। उस आन्दोलन के पुरोधा आज देश और प्रदेश की सरकार चला रहे हैं और पता नहीं क्यों अदालत के फैसले की प्रशंसा कर रहे हैं, शायद वे अदालत से बाहर निकलना चाहते हैं लेकिन आपसी समझौते की कोई गुजारिश तो किसी ने की नहीं है।
यदि संसद में प्रस्ताव आया तो ध्रुवीकरण पूरी तरह हो जाएगा और शायद यही चाहती है सरकार लेकिन इस ध्रुवीकरण के बाद भी क्या मन्दिर बन पाएगा? एक बार पहले कल्याण सिंह की उत्तर प्रदेश सरकार शहीद हो चुकी है, क्या अब मोदी सरकार की बारी है। सरकार चाहे तो एक काम कर सकती है इतिहास में आक्रमणकारियों द्वारा जमीन जायदाद हथियाने को अवैधानिक मान ले। सरकार की योजना क्या है पता नहीं लेकिन भविष्य के बारे में सोच कर डर लगता है।