बजट की उम्मीदों के बीच एक किसान का दर्द, बजट हमारे लिए बस शब्द है!

agriculture

किसान को इस बार के आम बजट से क्या उम्मीदें हैं, क्या चाहता है एक आम किसान और क्या हैं बजट के मायने किसान के लिए बता रहे हैं बिहार के पूर्णिया के चनका में रहने वाले किसान और पत्रकार गिरीन्द्र नाथ झा 

खेत में मक्का अभी पौधे के रूप में है। पटवन और खाद आदि की चिंता के साथ फ़िलहाल हम किसानों की दैनिक दिनचर्या का आरम्भ होता है। ऐसे में जब कोई जागरूक इंसान गाँव के चौपाल पर सरकार के आम बजट की बात आरंभ करता है तो उसे किसान का गुस्साया चेहरा ही नसीब होता है।

बिहार के पूर्णिया जिला के चनका गाँव के इस किसान से यदि कोई बजट के बारे में पूछता है तो उसका सीधा जवाब है कि हम जिस लागत में फ़सल उपजाते हैं, उस हिसाब से यदि हमें आमदनी हो जाए तो हम सरकार के बजट पर बात कर पाएँगे। जबकि सच्चाई यह है कि आम बजट में हर साल किसान और किसानी की जो आँकड़ों वाली बात होती है वह बस किताबी बात है।

देश की 70 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है और कृषि पर ही निर्भर है। ऐसे में किसानों की खुशहाली की बात सभी करते हैं, सरकार से लेकर कृषि वैज्ञानिक तक, किंतु उनकी मूलभूत समस्याएं वैसी की वैसी ही बनी हुई हैं।

देश की 70 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है और कृषि पर ही निर्भर है। ऐसे में किसानों की खुशहाली की बात सभी करते हैं, सरकार से लेकर कृषि वैज्ञानिक तक, किंतु उनकी मूलभूत समस्याएं वैसी की वैसी ही बनी हुई हैं।

एक किसान के तौर पर मेरा मानना है कि जो देश की व्यवस्था है, उसमें जागरूक किसान का कोई स्थान नहीं है। यदि होता तो हमारी बात सुनी जाती। जंतर-मंतर तक किसान पहुँचे, लेकिन बात वहीं की वहीं है। आख़िर हम पढ़ाई की तरह न्यूनतम आमदनी गारंटी, न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को तर्कसंगत स्तर पर लाए जाने, प्राकृतिक आपदाओं में किसानों को मुआवजा देने आदि मसलों पर किसानी कर रहे लोगों को साक्षर क्यों नहीं कर रहे हैं? आख़िर मुख्यधारा की मीडिया गाँव से रिपोर्टिंग क्यों नहीं कर रही है? आख़िर किसान को टेलिविज़न स्टूडियो में बैठाकर धान-गेहूँ और अन्य फ़सलों पर सवाल-जवाब का मौक़ा क्यों नहीं दिया जा रहा है। दरअसल जो ग्राउंड में हैं, उन्हें मुखर हम देखना नहीं चाहते।

आख़िर मुख्यधारा की मीडिया गाँव से रिपोर्टिंग क्यों नहीं कर रही है? आख़िर किसान को टेलिविज़न स्टूडियो में बैठाकर धान-गेहूँ और अन्य फ़सलों पर सवाल-जवाब का मौक़ा क्यों नहीं दिया जा रहा है। दरअसल जो ग्राउंड में हैं, उन्हें मुखर हम देखना नहीं चाहते।

देश के लाखों किसानों को आम बजट में सहूलियतों का इंतजार है।

बजट की जब बात होती है तब कृषि आय पर टैक्स आदि की भी बात होती है। ऐसे में मेरे जैसे किसान का बस यही कहना है कि कृषि की आय का निर्धारण करना आसान नहीं है, लेकिन जो लोग अपनी दूसरे किसी तरह की आय को कृषि की आय को दिखाकर उस पर छूट ले रहे हैं, उसे रोका जाना चाहिए। सबका साथ, सबका विकास करने के लिए यह ज़रूरी है कि देश के किसान देहाती इलाक़ों में रहते हैं या जो कृषि पर आधारित हैं, उनकी आमदनी बढ़ाने के लिए नीति बनाई जाए।

बजट को लेकर गाँव-घर में ख़ूब बातें तब ही संभव है जब किसान सबल हो। किसान को पहले मज़बूत बनाने की ज़रूरत है, जबकि होता यह है कि हम किसान को मजबूत के बदले ‘मजबूर’ बनाने में जुटे हैं।

(लेखक- बिहार में पूर्णिया जिले के चनका में रहने वाले जागरुक किसान और पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं।)

यह भी पढ़ें: आलू का रेट : 2014 में 7-8 रुपए, 2015-16 में 5-6, जबकि पिछले साल 2-3 रुपए किलो था

किसान और खेती को बचाना है तो उठाने होंगे ये 11 कदम : देविंदर शर्मा

सरकार महंगाई कम करने के लिए किसानों की बलि क्यों दे रही है ?

Recent Posts



More Posts

popular Posts