पिछले 10-11 वर्षों से मैं वार्षिक आर्थिक रिपोर्ट को बहुत ध्यान से पढ़ता आया हूं। ये भारी भरकम रिपोर्ट आम तौर पर सामान्य बजट के दो दिन पहले पेश की जाती है और साल भर के आर्थिक रुझानों का काफी सही आकलन पेश करती है।
साथ ही ये आपको ये भी बताती है कि देश में हर सरकार की आर्थिक सोच कितनी अदूरदर्शी रही है। यदि आप इस रिपोर्ट को ध्यान से पढ़ेंगे तो आप समझ जाएंगे कि इसको लिखने वाले अर्थशास्त्री विश्व बैंक/आईएमएफ व क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा पढ़ाए जा रहे आर्थिक पाठ का आंख बंद करके अनुसरण कर रहे है। अगर आपने आर्थिक सर्वेक्षण के कुछेक दस्तावेजों को भी पढ़ा हो तो ये स्पष्ट हो जाएगा कि अर्थशास्त्री रूढ़ दायरों से बाहर निकलने की कल्पना भी नहीं कर पाते हैं। पिछले कई वर्षों से असफल सिद्ध हुए सुझावों और सिफारिशें को ही बारम्बार परोस दिया जाता है।
कम से कम पिछले दस वर्षों में, जब से मैं आर्थिक सर्वेक्षण का अध्ययन कर रहा हूं, मेरा ये दृढ़ मत है कि हमारे देश में कृषि संकट का मूल कारण गलत आर्थिक विचारधारा है।
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सीधे रास्ते पर रखने के लिए जैसे घोड़ों की आंखों के आगे ब्लिंकर लगा दिए जाते हैं मेरे विचार से मुख्यधारा के अर्थशास्त्री भी जाने-अनजाने अपने दिमाग पर मनोवैज्ञानिक ब्लिंकर बांधे रहते है । शायद उनसे लीक से बाहर सोचने की अपेक्षा की भी नहीं जाती है। हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि ब्लिंकर घोड़े को जो प्रकृति उन्हें दिखाना चाहती है वो देखने से बाधित करते हैं। हमारे अर्थशास्त्रियों का वही हाल है ।
जब आप लकीर के फ़कीर बन जाते हैं तो उसका परिणाम गलतियों बल्कि भारी गलतियों के रूप में भुगतना पड़ता है। उदाहरण के लिए कृषि क्षेत्र को देखिए जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से 52 प्रतिशत आबादी को आजीविका प्रदान करता है। कम से कम पिछले दस वर्षों में, जब से मैं आर्थिक सर्वेक्षण का अध्ययन कर रहा हूं, मेरा ये दृढ़ मत है कि हमारे देश में कृषि संकट का मूल कारण गलत आर्थिक विचारधारा है। इसका उद्भव आर्थिक सर्वेक्षण है। इससे भी बड़ी त्रासदी ये है कि जो लोग आर्थिक सर्वेक्षण तैयार करते हैं वह ये भी मानने को तैयार नहीं कि जो आर्थिक उपचार वो सुझाते आए हैं वही कृषि संकट की जड़ हैं।
सीधे रास्ते पर रखने के लिए जैसे घोड़ों की आंखों के आगे ब्लिंकर लगा दिए जाते हैं मेरे विचार से मुख्यधारा के अर्थशास्त्री भी जाने-अनजाने अपने दिमाग पर मनोवैज्ञानिक ब्लिंकर बांधे रहते है । शायद उनसे लीक से बाहर सोचने की अपेक्षा की भी नहीं जाती है।
साल दर साल कृषि की स्थिति सुधारने के लिए आर्थिक सर्वेक्षण के द्वारा वही पुराने असफल फॉर्मूले सुझाये जाते हैं। फसल की उत्पादकता बढ़ाओ, सिंचाई व्यवस्था का विस्तार करो, जोखिम कम करो, लाभकारी मूल्य उपलब्ध करो और बाजार का निजीकरण करो। कम से कम पिछले दस वर्षों से मैंने आर्थिक सर्वेक्षण को कृषि में सुधार करने के लिए यही सुझाव देते देखा है। कोई आश्चर्य नहीं कि हर साल कृषि संकट कम नहीं हुआ बल्कि गहराया ही है। किसानों द्वारा आत्महत्याओं के न थमने वाले सिलसिले के बावजूद वो लोग अपनी घिसी- पिटी विचारधारा से उपजे उपचार सुझाने से बाज़ नहीं आ रहे। पिछले 22 वर्षों में अनुमानतः 3.30 लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली है और फिर भी अर्थशास्त्री एक भी समझदारी वाला सुझाव देने में नाकाबिल रहे। यह हमारे नीतिगत ढांचे पर एक दुखद टिप्पणी है।
अपनी और इससे पहले किए हुए सभी उपचारों की विफलता की बारे में जानते हुए भी आर्थिक सर्वेक्षण 2017 ने अब अपना ध्यान विवादास्पद जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) फसलों पर केंद्रित कर लिया है। उसी दोषपूर्ण तर्क का इस्तेमाल करते हुए कि कृषि संकट से उबरने का एकमात्र रास्ता फसल की उत्पादकता बढ़ाना है, आर्थिक सर्वेक्षण अब जीएम फसलों को ही संकटमोचक बता रहे हैं। इसमें ये भी सुझाव दिया गया है कि वाणिज्यीकरण का रास्ता खुलने के इंतज़ार में जीएम सरसों की बेकार किस्म ही नहीं भारत को सभी प्रकार की जीएम फसलों के लिए बाजार खोल देना चाहिए ।
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जीएम उद्योग की कही बातों की तर्ज़ पर इन्होंने जीएम फसलों को बाजार में उपलब्ध करवाने को उचित बताने के लिए प्रारूप भी तैयार कर लिया है। दलहन का उत्पादन बढ़ाने पर प्रस्तुत रिपोर्ट में मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम अध्यक्षता वाली एक समिति ने उत्पादकता बढ़ाने के लिए दलहन के क्षेत्र में जीएम प्रौद्योगिकी लाने का खुला समर्थन किया। सामाजिक स्तर पर इस सिफारिश की कड़ी निंदा होने पर मुख्य आर्थिक सलाहकार ने एक कदम और आगे बढ़कर इस नीति दस्तावेज का प्रयोग निजी बीज कंपनियों के वाणिज्यिक हितों को बढ़ावा देने के लिए किया।
वैज्ञानिक तथ्य ये है कि विश्व में कोई जीएम फसल नहीं है जिससे फसल की उत्पादकता बढ़ती हो और इस तथ्य को सीधे तौर पर नजरअंदाज़ कर दिया गया है। एकमात्र जीएम फसल जो भारत में उगाई गई है वो है बीटी कॉटन। यदि जीएम कॉटन से कपास की खेती करने वाले किसानों की आमदनी में इजाफा हुआ होता तो बीटी कॉटन उगाने वाले किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं। अनुमान है कि भारत में खेती से जुड़ी आत्महत्याओं में से 70 प्रतिशत मौतें केवल कपास के क्षेत्र से सम्बंधित हैं।
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इसके अलावा यदि फसल उत्पादकता बढ़ाना ही आगे बढ़ने का रास्ता है तो देश का फूड बाउल कहलाने वाले पंजाब में किसान इतनी बड़ी संख्या में आत्महत्या पर क्यों आमादा है। पंजाब विश्वभर में अनाज का सबसे बड़ा उत्पादक है और 98 प्रतिशत सुनिश्चित सिंचाई सुविधा युक्त होने के कारण इसके पास विश्व में सबसे बड़ा सिंचाई क्षेत्र है। फिर भी कोई दिन नहीं जाता जब यहां तीन से चार किसान आत्महत्या न कर लें।
जीएम फसल का इस्तेमाल किए बिना भी इस वर्ष दलहन के उत्पादन में कई गुना बढ़त थी लेकिन उत्पादन में एकाएक वृद्धि को सम्हालने की समझ सरकार के पास न होने के कारण कीमतें गिरी और किसान ने नुकसान झेला। 5050 रुपए प्रति क्विंटल के खरीद मूल्य के स्थान पर किसान 3500 से 4200 प्रति क्विंटल से अधिक की कीमत नहीं प्राप्त कर पाया। उत्पादकता में कमी कहां थी? कब तक अर्थशास्त्री खेती में लगने वाले कच्चे माल के आपूर्तिकर्ताओं के हितों को बढ़ावा देने के लिए गलत दृष्टिकोण परोसते रहेंगे ?
मुझे ये कहने में कोई गुरेज़ नहीं है कि 2017 का आर्थिक सर्वेक्षण पढ़ कर मुझे बहुत हताशा हुई। चूंकि अर्थशास्त्रियों ने अपने आंख पर पर्दा डाल रखा है तो समय आ गया है कि उन्हें दिखाया जाए कि वास्तविकता क्या है और किसान क्यों मर रहे हैं। अन्यथा हमें इसी प्रकार की बेकार नीति दस्तावेज परोसे जाते रहेंगे इसलिए मेरा सुझाव है कि आर्थिक सर्वेक्षण तैयार करने वाले अर्थशास्त्रियों के दल के लिए कम से कम तीन महीने ग्रामीण इलाको में बिताना अनिवार्य कर देना चाहिए।
इस दल की अगुवाई मुख्य आर्थिक सलाहकार करें और इसमें नीति आयोग के सदस्य भी शामिल हों। मुझे विश्वास है कि आप मानेंगे कि अर्थशास्त्रियों/नौकरशाहों को ग्रामीण स्थिति से रूबरू करवाना अति आवश्यक है। अन्यथा जिस भयंकर संकट से देश पिछले दस वर्षों से गुज़र रहा है वह कम होने की जगह और गहरा जाएगा।
(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं। ट्विटर हैंडल @Devinder_Sharma ) उनके सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )