जब नई पीढ़ी शहर के इतिहास को बिसराते हुए, आधुनिकता की दौड़ में अपनी पुरातात्विक विरासत की अनदेखी करने लगें तो हालात बदतर हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ हो रहा है, दिल्ली की पुरातात्विक धरोहर कोस मीनारों के साथ जबकि ये मीनारें शहर की ऐतिहासिक विरासत की धरोहर हैं। ‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी’ जैसी पहचान वाला समाज अपनी भाषाओं के साथ उससे जुड़ी अपनी पहचान से भी दूर हो रहा है।
कोस और मीनार, इन दो शब्दों को मिलाकर बनता है एक तीसरा शब्द, कोस-मीनार। कोस मूल रूप से संस्कृत शब्द रोस से जनित है। एक पुरानी मशहूर कहावत है, पोस्ती ने पी पोस्त, नौ दिन चला अढ़ाई कोस। गौरतलब है कि फारसी में अफीम को पोस्त कहते हैं। ‘कोस’ शब्द दूरी नापने का एक पैमाना है। ‘कोस’ का मतलब है दूरी की एक माप जो लगभग दो मील यानि सवा तीन किलोमीटर के बराबर होती है। ‘प्राचीन भारत में कोस से मार्ग की दूरी मापी जाती थी।
‘न्रू’ धातु में समाहित प्रकाश वाले भाव से ही बना हिब्रू भाषा में ‘मनोरा’ अर्थात चिराग़, लैम्प। अरबी भाषा में इसका रूप हुआ ‘मनारा’। बाद में ‘मनारा’ शब्द ने मीनार का रूप लिया यानी प्रकाश स्तंभ। मस्जिदों के स्तंभ भी ‘मीनार’ कहलाने लगे क्योंकि यहां से लोगों को जगाने का काम किया जाता था। दिलचस्प बात यह है कि तंदूर जहां रोशनी (आग) का कुआँ है, वहीं मीनार रोशनी का स्तंभ है। गौरतलब बात यह है कि पुराने जमाने के लाईट हाऊस में सबसे ऊपरी मंजिल पर आग ही जलाई जाती थी।
आज दिल्ली शहर में चिड़ियाघर, सरिता विहार, बदरपुर रोड और मथुरा रोड सहित जीटी रोड पर बनी कोस मीनारें विकास की दौड़ में पीछे छूट गई हैं। सरकार को इन विरासती ऐतिहासिक धरोहर को बचाने के लिए कारगर कदम उठाने के साथ स्कूली किताबों में भी इन मीनारों की जानकारी को शामिल करने की जरूरत है ताकि आने वाली पीढ़ी इस बारे में जान सकें।
दिल्ली के पुराना किला के करीब बने चिड़िया घर में देश-विदेश से घूमने के लिए आने वाले अधिकतर पर्यटक-दर्शक-सैलानी भीतर एक छोटा सा स्तूप जैसी कोस मीनार होने की बात से ही अनजान है। इस कोस मीनार तक चिडिय़ाघर के अधिकारियों की अनुमति के बिना नहीं पहुंचा जा सकता। ईंटों और चूने के साथ बनी 30 फीट ऊँची यह कोस मीनार वास्तुकला के हिसाब से बेशक खूबसूरत न हो पर उसके गुजरे जमाने के यातायात-संचार का एक जरूरी हिस्सा होने की बात से इंकार नहीं किया जा सकता। यह शेरशाह सूरी के समय में बनाई गई थी। एक अफगान सरदार का बेटा शेरशाह ही भारत की डाक सेवा का जन्मदाता माना जाता है।
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इसी तरह, कुछ साल पहले ही दिल्ली उच्च न्यायालय के एक आदेश के कारण सरकार ने बदरपुर बस स्टैंड के नजदीक बनी कोस मीनार (कोटला माहीग्राम) के आसपास से अतिक्रमण हटाया था। आज सड़क के किनारे और मेट्रो रेल के पुल के बीच में खड़े स्तंभनुमा प्रतीक चिन्ह वाली कोस मीनार पुरातात्विक धरोहरों की श्रेणी में आती है। जहांगीर के समय (1605-1627) की बनी यह कोस मीनार लगातार सड़क के भराव के कारण अब केवल 4 फीट की रह गयी है।
यह कोस मीनार राजधानी में अपनी तरह की डायनासोर प्रजाति की इमारतों में से एक है। इसकी चारों तरफ अतिक्रमण-तोड़फोड़ से बचाने के लिए एक लोहे का जंगला बाड़े के रूप में लगा दिया गया है। कभी इसके साथ रही सराएं और चौकियों के कोई निशान अब नहीं देखने को मिलते हैं। अब उनकी जगह एक एक मेट्रो स्टेशन, एक ऑटो स्टैंड और दुकानों की कतार नजर आती है। मेट्रो रेल की लाइन और सड़क के पुल की बीच में आ चुकी कोस मीनार यहाँ से रोजाना गुजरने वाले मुसाफिरों का ध्यान नहीं आकर्षित कर पाती है।
ऐसा नहीं लगता है, उनमें से ज्यादातर इस बात को जानते हैं कि कभी यहां इस तरह की सैकड़ों कोस मीनार थी। ऐसी ही एक कोस मीनार अपोलो अस्पताल के पीछे जसोला में भी है। नई दिल्ली स्थित लोधी गार्डन में भी एक कोस मीनार है, जिसमें ऊपर की तरफ निगरानी रखने के लिए एक खिड़की भी बनी हुई है। यह मीनार लोधी गार्डन के भीतर कोने में बने शौचालय के पास है। यह कोस मीनार एक पतले सिलेंडर के आकार की ऊपरी तरफ एक सजावटी निगरानी खिड़की वाली है। लोदी गार्डन मूल रूप से गांव था जिसके आस-पास 15वीं-16वीं शताब्दी के सैय्यद और लोदी वंश के स्मारक थे।
कुछ वर्ष पहले संसद में रखी गई नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) रिपोर्ट में कोस मीनारों की दुर्दशा और उन्हें सुरक्षित रखने के लिये कोई कारगर व्यवस्था न होने के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के कामकाज की कड़ी आलोचना की थी। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की सुरक्षित स्मारकों में 110 कोस मीनारें हैं। ये कोस मीनार मुख्यत: दिल्ली, सोनीपत, पानीपत, कुरुक्षेत्र, अंबाला, लुधियाना, जालंधर, अमृतसर से पेशावर (पाकिस्तान) तक व दिल्ली-आगरा राजमार्ग पर स्थापित हैं।
एक तरह से कहा जा सकता है कि सड़कों के किनारों पर बनवाईं कोस मीनारें, आजकल के मील निर्देशक पत्थरों की पूर्वज थीं। यों तो जियाउद्दीन बरनी के अनुसार, अलाउद्दीन खिलजी के समय में शाही डाक ले जाने के लिए तेज धावकों और घुड़सवारों का इस्तेमाल होता था। वर्ष 1310 में लिखे गए एक दस्तावेज से पता चलता है कि अलाउद्दीन खिलजी जब भी राजधानी से बाहर होता था, वह राजमार्ग पर हर आधी कोस पर चौकियाँ स्थापित कर देता था, जिनमें डाक ले जाने वाले घुड़सवार या धावक होते थे। डाक का इंतजाम “महकमा बारिद” करता था। सन् 1321 में जब गयासुद्दीन तुगलक ने मुहम्मद तुगलक को वारंगल फतह करने भेजा तो डाक का यह सिलसिला दक्षिण तक फैल गया, लेकिन सिर्फ शाही संदेशों को लाने-ले जाने तक ही सीमित रहा। फिर भी यह विकसित होता रहा।
विदेशी यात्री इब्नबतूता के लेखों से पता चलता है कि उस जमाने में हर तीन कोस पर गांव बसाए गए जिनके बाहर कोस मीनार स्थापित किए गए। इनमें डाकिए रखे गए। इनके पास दो गज लंबा सोटा होता था जो कि एक सिरे पर तांबे के बड़े बड़े घुंघरू बंधे होते थे। यह डाकिया एक हाथ में डाक थैला लेकर सोटा बजाता हुआ दौड़ता था। घुंघरूओं की आवाज एक मील दूर से ही सुन कर आगे वाले मीनार का डाकिया तैयार हो जाता था और थैला प्राप्त होते ही बिना किसी देरी के आगे दौड़ पड़ता था।
अगर इतिहास की दृष्टि से देखें तो ये मीनारें अफ़ग़ान शासक शेरशाह सूरी और मुग़ल बादशाहों अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ की गवाह रही हैं। “दिल्ली और उसका अंचल” पुस्तक में वाई डी शर्मा लिखते हैं कि शेरशाह ने अनेक सड़कों का निर्माण कर उसने संचार व्यवस्था में सुधार किया, उसके साथ पेड़ लगवाएँ, मस्जिदें और कुएं तथा नियमित अंतराल पर सराएं बनवाई और शाही डाक ले जाने के लिए विभिन्न स्थानों पर घोड़े तैनात किए। इनमें से सिंधु से लेकर बंगाल में सोनार गाँव तक, लाहौर दिल्ली और आगरा से गुजरने वाली और उसके द्वारा सिधाई के रूप में बनवाई जो वर्तमान ग्रैंड ट्रंक रोड के रूप में जानी जाती है, सुविख्यात है।
शेरशाह ने 1542 ई. में ग्रैंड ट्रंक (जी.टी.) रोड का निर्माण कराया था और इसके किनारों पर बनी इन अधिकतर कोस मीनारों को 1556-1707 के कालखंड में बनवाया गया। जिन रास्तों पर इन कोस मीनारों को बनवाया गया, वे प्राचीन मौर्य साम्राज्य काल के प्राचीन स्थल मार्ग ही थे। यही कारण है कि ये मीनारें, प्रसिद्ध युद्ध स्थलों, स्मारकों एवं प्राचीन नगरों के समीप ही पाई गईं। महाजनपद काल में ग्रैण्ड ट्रंक रोड, उत्तरापथ कहलाती थी।
तब यह गंगा नदी के किनारे बसे नगरों को तब के पंजाब प्रांत से जोड़ते हुए ख़ैबर दर्रे से होती हुई अफ़ग़ानिस्तान तक जाती थी। मौर्य साम्राज्य के समय में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार उत्तरापथ से ही गांधार तक पहुंचा था। मौर्य काल में तक्षशिला पूरे साम्राज्य से जुड़ा हुआ था। मौर्य शासकों ने तक्षशिला से पाटलिपुत्र तक राजमार्ग बनवाया था। 15 वर्ष तक मौर्य दरबार में रहे यूनानी यात्री मैगस्थनीज़ के अनुसार, चंद्रगुप्त मौर्य की सेना इस राजमार्ग की देखभाल करती थी। एक तरह से यह मार्ग सदियों तक प्रयोग होता रहा।
कोस मीनारों का संबंध डाक के साथ साथ सुरक्षा व्यवस्था के साथ भी जुड़ा हुआ था। “तुजुक-ए-बाबरी” के हवाले से पता चलता है कि बाबर ने आगरा से काबुल तक सर्वेक्षण कराया था और चकमक बेग के निर्देशन में हर नौ मील पर 12 गज ऊंची मीनारें बनवा कर डाक चौकियाँ स्थापित की थीं। अबुल फज़ल ने “अकबरनामा” (1575) में भी कोस मीनारों का उल्लेख है। मुग़ल दौर में पश्चिम में राजधानी आगरा (अकबर की राजधानी दिल्ली नहीं बल्कि आगरा थी) से अजमेर वाया जयपुर, उत्तर में आगरा से लाहौर वाया दिल्ली और दक्षिण में आगरा से मांडू वाया शिवपुरी के रास्ते बनवाएँ गए थे।
“राजस्थानः जिलेवार सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन” पुस्तक में मोहनलाल गुप्ता बताते हैं कि अकबर ने 1573 में आगरा से अजमेर के रास्ते पर प्रत्येक पड़ाव पर पक्के विश्राम गृहों का निर्माण करवाया ताकि वह प्रतिवर्ष बिना किसी बाधा के अजमेर जा सके। प्रत्येक कोस की दूरी पर एक मीनार खड़ी की गई जिस पर उन हजारों हरिणों के सींग लगवाये गए जो अकबर तथा उसके सैनिकों ने मारे थे। इन मीनारों के पास कुंए भी खुदवाए गए।
बादशाह जहाँगीर ने अपने जीवन का अधिक समय लाहौर और काबुल में गुजारा और इसी कारण उसकी दिलचस्पी सड़कें बनाकर उनके साथ-साथ कोस मीनारें, पुल और सरायों का निर्माण करके संचार व्यवस्था के विकास करने में रही। कोस मीनारें शाही कामकाज में पैगाम-खतों को एक जगह से दूसरी जगह तक लाने-ले जाने वाले हरकारों, घुड़सवार सिपाहियों सहित ढोल बजाकर संदेश देने वाले ढोलवालों का ठिकाना भी थीं। इन कोस मीनारों के पास एक धौंस (बड़ा नगाड़ा) रखा होता था जो चौबीस घंटों में हर घंटे की समाप्ति पर भारी चोब से बजाया जाता था। इतना ही नहीं, ये मीनारें बतौर सौदागरों-मुसाफिरों की आरामगाहों के हिसाब से भी तैयार की गईं और उनके करीब सरायें बनवाई गईं।
मुगलिया सल्तनत के दौर में शाही घुड़सवारों ने इन्हीं प्राचीन स्थल मार्गों को अपनाया। यह सड़क ‘सड़के-ए-आज़म’ या ‘बादशाही सड़क’ के नाम से भी जानी जाती थी। साहित्य अकादेमी से प्रकाशित “मुकद्दमा-ए-शेऽर-ओ-शायरी” में अल्ताफ हुसैन हाली लिखते हैं, “कलकत्ते से पेशावर तक सात-सात कोस पर एक-एक पुख्ता सराय और कोस-कोस भर पर एक-एक मीनार बना हुआ था।” स्वतंत्र भारत में ग्रैंड ट्रंक रोड को ही आधुनिक राष्ट्रीय राजमार्ग में परिवर्तित कर दिया गया। आज जी.टी. रोड 2,500 किलोमीटर (लगभग 1,600 मील) से अधिक की दूरी तक है।
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