पिछले दो हफ्तों से छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के किसान सड़कों पर टमाटर फेंक रहे हैं। दुर्ग के एक गांव परसुली में ही लगभग 100 क्विंटल टमाटरों को या तो जानवरों को खिला दिया गया या सड़ने के लिए खेतों में ही छोड़ दिया गया। जनवरी के पहले सप्ताह तक बाजार में टमाटर के अपेक्षाकृत ठीक दाम मिले लेकिन फिर उसके बाद खुदरा कीमतों में लगातार कमी आती गई।
यहां से बहुत दूर तमिलनाडु के इरोड जिले के किसान बहुत परेशान हैं। पत्तागोभी की रीटेल कीमतें धराशायी हो गई हैं। पिछले साल पत्तागोभी की खुदरा कीमत थी 12 रुपये प्रतिकिलो, लेकिन इस साल किसानों को औसतन एक किलो का सिर्फ एक रुपया मिल रहा है। छत्तीसगढ़ में भी टमाटर के दाम मिट्टी में मिल गए हैं। उन्हें प्रति किलो एक से दो रूपया मिल रहा है, लाचार होकर किसान टमाटर की खेती छोड़ने पर मजबूर हो गए हैं। टमाटरों की जो कीमत उन्हें मिल रही है उससे तो टमाटरों को तोड़ने और उनकी बुवाई की भी लागत नहीं निकल पा रही है।
इस स्थिति के मूल में है फसल की अच्छी पैदावार। चाहे वह पत्तागोभी हो, टमाटर हो, आलू हो या प्याज या कोई और फसल, अगर उत्पादन ज्यादा होगा तो जाहिर तौर पर उपज के दाम गिरेंगे। अच्छी फसल होने पर बिचौलिओं को गठजोड़ बनाने का मौका मिल जाता है और फिर वे अपने मुनाफे के लिए कीमतों में मनमाना उतार-चढ़ाव करके किसानों का शोषण करते रहते हैं। इरोड जिले के किसान टी राजागणेश मानते हैं कि ऐसा बंपर उत्पादन की वजह से होता है। वह कहते हैं, “किसान पत्तागोभी उगाने के लिए प्रति एकड़ एक महीने में 45 हजार रुपये खर्च करता है। अगर इसमें मजदूरी, देखरेख और खाद की लागत जोड़ दी जाए तो यह बढ़कर 50 हजार हो जाता है। चूंकि पत्तागोभी की फसल तीन महीने में परिपक्व होती है इसतरह एक एकड़ पर डेढ़ लाख का खर्च आता है। अब बताइए एक किलो का एक रुपया मिलेगा तो मुनाफा कहां से होगा?”
टमाटर के मामले में भी छोटे किसानों की प्रति एकड़ लागत 90 हजार से एक लाख रुपये तक आती है। बड़े किसानों के लिए यह थोड़ी ज्यादा, यानि प्रति एकड़ 1.25 लाख रुपये रहती है। जनवरी के पहले हफ्ते में जब मैं टमाटर के किसानों से मुलाकात करने दुर्ग पहुंचा था उस समय कीमतें थोड़ी बेहतर थीं। टमाटरों की 25 किलो की एक क्रेट के 1000 रुपये मिल रहे थे। लेकिन जैसे ही कर्नाटक की फसल आई, अचानक सप्लाई बढ़ने से कीमतें गिर गईं।
अब चने का उदाहरण लेते हैं। मार्केट में ताजा फसल आ रही है। खबरों के मुताबिक, चने की कीमतें 3600 रुपये प्रति कुंतल के आसपास चल रही हैं, जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य 4400 रुपये प्रति कुंतल हैं। मतलब खुदरा कीमतों में 20 फीसदी की गिरावट देखी गई। इस साल अंदाजा है कि, बुवाई क्षेत्र में 8 फीसदी की बढ़ोतरी की वजह से चने का उत्पादन पिछले साल के 9.33 मिलियन टन से बढ़कर 10 मिलियन टन हो जाएगा। इसलिए जैसे-जैसे फसल आती जाएगी बाजार में चने के दाम गिरते जाएंगे। यहां तक कि गुजरात और मध्य प्रदेश में जहां मंडी में फसल जल्दी आ जाती है, गेहूं की कीमतें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से 6-8 फीसदी कम रहीं।
फरवरी के आखिरी हफ्ते में, तुअर दाल की कीमत 4500 रुपये प्रति कुंतल थी, जबकि तेलंगाना के तंदूर मार्केट में दाल का खरीद मूल्य सरकार द्वारा 5500 रुपये प्रति कुंतल तय किया गया था। इसी बीच छत्तीसगढ़ से सड़कों पर टमाटर फेंके जाने की खबरें आने लगीं। यह लगातार तीसरा बरस है जब टमाटर की कीमतें गिरकर 1 रुपये प्रति किलो के आसपास पहुंच गई हैं। असल में पिछले तीन बरसों से कृषि उत्पादों की कीमतें देश भर में धराशायी हो रही हैं। दो वर्षों (2014-2015) के सूखे के बाद 2016-17 में मॉनसून अनुकूल रहा इसीलिए अच्छी पैदावार हुई। अच्छी फसल से सरकार के चेहरे पर मुस्कान आ गई लेकिन किसानों की तकलीफें बढ़ गई हैं।
इस मौके पर कर्नाटक कृषि मूल्य आयोग के चेयरमैन डॉ. टी एन प्रकाश का सुझाव प्रासंगिक लगता है। मैसूर में एक भाषण में उन्होंने सभी फसलों के लिए एमएसपी को कानूनन अनिवार्य घोषित करने की मांग की। उन्होंने कहा, अगर किसी उत्पाद को एमआरपी (अधिकतम खुदरा मूल्य) से अधिक कीमत पर बेचा जाता है तो उपभोक्ताओं को कानूनी सुरक्षा मिल जाती है लेकिन देश के आजाद होने के 70 साल बाद भी किसानों के लिए इसी तरह की कोई सुरक्षा प्रणाली नहीं है।
यह लगातार तीसरा साल है जब देश के अलग-अलग हिस्सों में लगभग हर कृषि उत्पाद की कीमत एमएसपी से 20-45 फीसदी कम रही है। अधिक पैदावार होने पर व्यापारी निर्ममता से किसानों का शोषण करते हैं। कर्नाटक में यूनिफाइड मार्केट प्लेटफार्म की शुरूआत हुई जिससे देशभर में 585 ई-नाम या नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट बने। लेकिन इसके बाद भी किसानों को कोई फायदा नहीं हुआ। मॉडल प्राइस का सिद्धांत दैनिक व्यापार के औसत पर आधारित है, इसे समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि इससे भी बहुत कम कीमत मिलती है। ई-नाम दरअसल एक राष्ट्रव्यापी प्लेटफार्म है जिसे स्पॉट ट्रेडिंग की सहूलियत के लिए बनाया गया है।
हर साल 23 फसलों के लिए एमएसपी का ऐलान किया जाता है। मेरा सुझाव है कि राज्य सरकारें जल्द खराब होने वाले कृषि उत्पादों जैसे टमाटर, प्याज, आलू और दूसरी सब्जियों के लिए भी एमएसपी तय करने पर काम करें। कुछ राज्यों में पहले से राज्य कृषक आयोग हैं लेकिन वे राजनीतिक आकांक्षाओं वाले लोगों के वेटिंग रूम बन गए हैं। अब जरूरत है कि जल्द से जल्द इन्हें राज्य कृषि मूल्य आयोग में बदल दिया जाए। इन आयोगों का स्पष्ट लक्ष्य हो किसानों को अच्छी आमदनी मुहैया कराना, जैसा कि कर्नाटक में किया जा रहा है। अगर कर्नाटक 14 फसलों को केंद्र द्वारा तय एमएसपी से ऊंची कीमत दिला सकता है तो बाकी राज्य ऐसा क्यों नहीं कर सकते। इन राज्यों को बीजेपी-कांग्रेस के झगड़े से ऊपर उठना होगा।
(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं। उनका ट्विटर हैंडल है @Devinder_Sharma उनके सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )