29 सितम्बर 2010 में नंदूरबार जिले (महाराष्ट्र) के तेंभली गांव की रंजना सोनावने को ऐसी पहली भारतीय नागरिक का गौरव हासिल हुआ था, जिसे एक नम्बर (यूनीक आइडेंटीफिकेशन नम्बर) 782474317884 होने का गौरव हासिल हुआ था।
अब पता नहीं वे अब भी पहले नम्बर धारक के तौर पर याद की जा रही हैं या नहीं, या फिर नम्बर के हिन्द-प्रशांत सागर में कहीं गुम हो गयीं हैं, जिसकी खबर न सरकार को है और न ही नम्बर प्रदाता प्राधिकरण को। इसके बाद के साढ़े दस वर्षों से नम्बर गेम हर जगह अपनी निर्णायक भूमिका निभा रहा है, लेकिन यह नम्बर भारतीयों की भारतीयता के सिरहने बैठकर उन्हें मुंह चिढ़ाता है।
सवाल यह उठता है कि आखिर वह राजनीतिक दल और वर्तमान नेतृत्व, जो आधार को ही नहीं, बल्कि यूपीए सरकार को इसके लिए कठघरे में खड़ा कर रहा था, वह इसे अब दैवीय सिद्धांत की तरह संपोषित कर रहा है, आखिर क्यों ? क्या वास्तव में नैतिकता, पारदर्शिता, विकास और जवाबदेही का एक मात्र उपक्रम आधार ही है या फिर आधार के पीछे कई प्रकार की जटिल प्रक्रियाएं छुपी हुई हैं, जिनका न ही मकसद स्पष्ट है और न ही उसके पीछे का नैतिक तानाबाना ?
कभी सोवियत संघ के एक बड़े या यूं कहें कि महान नेता ने एक बात कही थी कि यदि किसी देश में व्यवस्था की गलती से कोई किसी एक व्यक्ति की मृत्यु होती है तो यह त्रासदी होती है, लेकिन यदि बहुतों की मृत्यु होती है, वह सिर्फ आंकड़े होते हैं। सच यही है कि लोकतंत्रों में भी, जहां लोगों की चुनी हुई सरकारें हैं, वहां भी लोग सिर्फ एक आंकड़ा या एक नम्बर बनते जा रहे हैं, इससे अधिक कुछ नहीं।
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पता नहीं यह दुनिया की प्रगति का नमूना है अथवा पतन का ? क्या इसे सरकारों की अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धियों में एक माना जाए कि वे अपने नागरिकों के व्यक्तित्वों का निर्माण करते-करते उन्हें एक नम्बर में बदलने तक सीमित रह गयीं ?
पता नहीं यह दुनिया की प्रगति का नमूना है अथवा पतन का ? क्या इसे सरकारों की अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धियों में एक माना जाए कि वे अपने नागरिकों के व्यक्तित्वों का निर्माण करते-करते उन्हें एक नम्बर में बदलने तक सीमित रह गयीं ? जब हम एक नम्बर हैं, तो संख्या कोई न तो अधिकार होंगे और न ही स्वयं पर आधारित सुरक्षा की ताकत। फिर अपने इर्द-गिर्द के लोगों को कैसे सुरक्षित रख पाएगी ? फिर तो उसकी चोरी और हेरा-फेरी दोनों ही हो सकती हैं। यदि ऐसा हुआ तो वह संख्या स्वयं जिम्मेदार मानी जाएगी या फिर उसके लिए कोई अन्य दोषी होगा।
क्या संख्या प्रदाता और सरकार भी इसके लिए दोषी होगी? अब तक की स्थितियां तो यही बताती हैं कि सरकार पवित्र है और प्राधिकरण एक ऐसा मॉनीटर जो कभी जवाबदेह नहीं हो सकता ? फिर हम किधर जा रहे हैं या जाएंगे, क्या कोई बता पाएगा?
यह सवाल इसलिए उठा क्योंकि विगत 4 जनवरी को भारत के एकद समाचार पत्र में एक खबर छपी थी, जिसमें बताया गया था कि किस प्रकार से एक अज्ञात डाटा प्रदाता ने व्हाट्स ऐप के जरिये एक रिपोर्टर को केवल 500 रुपये में ही लोगों की आधार संख्या यानि वह संख्या, जिससे वे जाने जाते हैं या जाने जाएंगे, उपलब्ध करा दी। इस खबर में यह दावा किया गया है कि नाम, पता, फोन नंबर जैसी लोगों की तमाम निजी जानकारियां भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) के पोर्टल के जरिये आसानी से जुटाई जा सकती हैं।
यह भी कहा गया कि मात्र 300 रुपये में इन जानकारियों के प्रिंट आउट बेचे जा रहे हैं। मजेदार बात यह हुई कि 100 करोड़ लोगों की निजता गिरवीं रखने वाले प्राधिकरण ने कोई कार्रवाई उन लोगों के खिलाफ नहीं की जो ‘आधार’ नम्बरों को बेच रहे थे, बल्कि पत्रकार पर ही आपराधिक षड्यंत्र का आरोप लगाकर उसके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करा दी।
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जब मामला देश की करोड़ों की आबादी से सम्बंधित हो, जिनकी निजता को मात्र कुछ पैसों में, तब जिस प्राधिकरण को गम्भीर और जवाबदेह होना चाहिए था, वह देवत्व जैसा व्यवहार करने लगा। सच तो यह है कि यूआईडीएआई वास्तविकताओं का सामना करना नहीं चाहता है
जब मामला देश की करोड़ों की आबादी से सम्बंधित हो, जिनकी निजता को मात्र कुछ पैसों में, तब जिस प्राधिकरण को गम्भीर और जवाबदेह होना चाहिए था, वह देवत्व जैसा व्यवहार करने लगा। सच तो यह है कि यूआईडीएआई वास्तविकताओं का सामना करना नहीं चाहता है, शायद वह भगवान या किसी देवता की श्रेणी में पहुंच चुका है, जहां प्रश्न करना अपराध माना जाता है। सवाल यह भी है कि यह प्राधिकरण आखिर राजतंत्र जैसा आचरण क्यों कर रहा है?
जब इस आधार की अवधारणा भारत में आई थी तब मैंने कुछ शोध अध्ययनों को गम्भीरता से देखा था और यह जानने की कोशिश की थी कि आखिर इस आधार के पीछे क्या-क्या है? कुछ लिखा भी था और विरोध के तत्व भी दिखे थे, लेकिन अब विरोधी ही इसे पवित्र धर्म के रूप में अंगीकृत कर बैठे। दरअसल इस सदी के पहले दशक में बायोमीट्रिक बाजार में पश्चिम से पूर्व की ओर एक निर्णायक शिफ्टिंग देखी गई थी, जिसका कारण था पूरब की जनसंख्या।
इससे कुछ पहले ही फेडरल ब्यूरो ऑफ इनवेस्टीगेशन (अमेरिका) ने क्लाबर्ग, पश्चिमी वर्जीनिया में जब ‘विज्ञान जीवन में सर्वोत्तम साधन है’ पर विशेष बल देते हुए बायोमीट्रिक महत्ता स्पष्ट की थी और घोषणा की कि वह अगली पीढ़ी में बायोमीट्रिक कार्य में बड़ा निवेश करने जा रहा है, जिसमें त्रिविमीय मुखाकृति (3-डी फेसियल इमेज) और आवाज स्वर पहचान (वायस रिकगनीशन) भी शामिल होंगे, तभी यह स्पष्ट हो गया था कि पश्चिम अब वस्तु एवं रक्षा के साथ-साथ मानव बाजार (बायोमीट्रिक बाजार) में घुसकर कुछ ऐसा करने जा रहा है, जिसके दूरगामी परिणाम होंगे।
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एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अफगानिस्तान के हेलमण्ड प्रांत में, अमेरिकी सेना अफीम किसानों का बायोमीट्रिक्स डाटाबेस तैयार कराया था ताकि सुरक्षा उद्देश्यों से उनके पहचान पत्र बनाए जा सकें।
ध्यान रहे कि एफबीआई बहुत सी सरकारी संस्थाओं में से एक है, जो बायोमीट्रिक्स क्रांति के भविष्य को एक आकार देने के लिए रणनीतिक स्तर पर कार्य कर रही है। इसका मतलब है कि बाजार इसके जरिए एक साथ कई उद्देश्य पूरा करेगा। पहला सीधा कारोबार, दूसरा डाटा संरक्षण और विक्रय, तीसरा ऐसे संगठनों या सरकारों को डाटा बेचना जो उसको इस्तेमाल अपने महत्वाकांक्षी उद्देश्यों के लिए कर सकते हैं।
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अफगानिस्तान के हेलमण्ड प्रांत में, अमेरिकी सेना अफीम किसानों का बायोमीट्रिक्स डाटाबेस तैयार कराया था ताकि सुरक्षा उद्देश्यों से उनके पहचान पत्र बनाए जा सकें। ट्रांजिट वीजा की सूक्ष्म जानकारी के लिए रेटिना का स्कैन डिवाइस एयरपोर्ट पर तैयार किया जाता था।
एफबीआई का तर्क था कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से विकसित बायोमीट्रिक्स एक आत्यंतिक जरूरत है। सुरक्षा के क्षेत्र में कुछ हद तक इसका प्रयोग समझ में भी आता है, लेकिन जीवन के प्रत्येक सामान्य व्यवहार या कार्यकलाप में इसका प्रयोग समझ से परे है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इसके जरिए बाजार और सरकार दोनों अपना-अपना उद्देश्य पूरा कर रहे हों।
बाजार की बात करें, तो उदाहरण के तौर पर रिलायंस जियो ने 25 मिलियन सिम बेचे जो आधार से लिंक हैं। इसका मतलब यह हुआ कि रिलायंस के पास भारत के 25 मिलियन लोगों को डाटाबैंक मौजूद है, जिसके पास वे मनमानी सूचना, विज्ञापन आदि भेज सकते हैं। यह भी सम्भव है कि रिलायंस किसी पार्टी के साथ मिलकर इसका आर्थिक और राजनीतिक इस्तेमाल करे। रही बात सरकार की तो देश के प्रत्येक नम्बर या नागरिक का आधार लिंक हो जाने से सरकार के पास व्यक्ति प्रत्येक जानकारी, उसका प्रत्येक मूवमेंट, प्रत्येक आर्थिक गतिविधि… सरकार की निगरानी में होगी।
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सरकार जब चाहे आपको ब्लॉक कर दे। यदि ऐसा हुआ तो आपकी सारी गतिविधियां ठप हो जाएंगी। यानि आप न तो यात्रा कर सकेंगे, न मेडिकल सुविधा प्राप्त कर सकेंगे, न हवाई यात्रा कर सकेंगे और न रेलगाड़ी का, न अपना बैंक खाता ऑपरेट कर सकेंगे, न फोन इस्तेमाल कर सकेंगे और न स्कूल में दाखिला ले सकेंगे।
सरकार जब चाहे आपको ब्लॉक कर दे। यदि ऐसा हुआ तो आपकी सारी गतिविधियां ठप हो जाएंगी। यानि आप न तो यात्रा कर सकेंगे, न मेडिकल सुविधा प्राप्त कर सकेंगे, न हवाई यात्रा कर सकेंगे और न रेलगाड़ी का, न अपना बैंक खाता ऑपरेट कर सकेंगे, न फोन इस्तेमाल कर सकेंगे और न स्कूल में दाखिला ले सकेंगे। सोचिए यदि बाजार और सरकार आपस में मिल गये, जैसा कि पहले ही हो चुका है, तब नागरिक अधिकारों का क्या होगा?
जो भी हो, सरकार को भले ही यह उचित लग रहा हो कि प्रत्येक नागरिक को सिर्फ एक नम्बर बनाकर स्थापित कर दे और उससे अपेक्षा करे कि वह एक नम्बर बनकर ही रहे, सक्रिय एवं प्रतिबद्ध नागरिक की तरह नहीं, तो यह काफी अटपटी लगने वाली बात है। जिसे रोटी की जरूरत है, जिसे नौकरी की जरूरत है, जिसे स्वस्थ जीवन की जरूरत है, अच्छे पर्यावरण की जरूरत है या फिर अच्छी शिक्षा और नैतिक मूल्यों के उत्थान की, क्या आधार नम्बर इन सबको उपलब्ध कराने की गारण्टी देता है?
यदि हां तो इसका स्वागत है लेकिन यदि गारण्टी नहीं देता है तो फिर इसकी पवित्रता एवं नैतिकता पर संदेह करने से रोकना कहां तक वाजिब है? अहम सवाल तो यह है कि अब हम एक नागरिक होंगे या एक नम्बर मात्र?