अभी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐलान किया था कि सरकार गोबरधन योजना के तहत गाय का गोबर और खेती से निकलने वाला दूसरा कचरा बेचने के लिए ऑनलाइन प्लेटफॉर्म बनाने पर विचार कर रही है। वेस्ट टू वैल्थ या कचरे से कमाई वाली इस स्कीम का मकसद है किसानों की आय बढ़ाना, ग्रामीण इलाकों में रोजगार के साधन पैदा करना और बायोगैस का प्रचार करना, इसके अलावा इस कदम से गांव भी साफ-सुथरे होंगे, ऐसा सरकार का मानना है।
भारत में अनुमानत: 30 करोड़ गाय-भैंस हैं जोकि हर रोज लगभग 30 लाख टन गोबर करते हैं। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन की 2014 की रिपोर्ट कहती है कि इस गोबर का सही इस्तेमाल करके भारत में 15 लाख लोगों को रोजगार दिया जा सकता है।
इसमें कोई शक नहीं है कि यह देश के सबसे उर्वर मस्तिष्क वाले लोगों की योजना है। इन्हीं लोगों ने चार साल पहले देश में रोजगार सृजन का वादा किया था और अब पकौड़ा बेचने की स्कीम के बाद मेक इन इंडिया प्रोग्राम के तहत गोबर के उपले ऑनलाइन बेचने की वकालत कर रहे हैं। डिजिटल इंडिया की दौड़ में शामिल देश के गरीब किसान और गांवों में रह रहे पढ़े-लिखे बेरोजगार युवा इससे ज्यादा और क्या उम्मीद कर सकते थे।
कोई बात नहीं, गाय के गोबर की जैविक खाद के बिना देश की धरती को भूखा रहने दीजिए। इस देश का किसान भी तो भूखे पेट सोने को मजबूर है। यह देश मिट्टी की सेहत के साथ समझौता कर सकता है, फसलों की पैदावार की कुर्बानी दे सकता है, जैविक खेती के कार्यक्रमों को बीच राह में छोड़ सकता है, अंतरराष्ट्रीय समझौतों का पालन करते हुए कृषि आधारित उत्पादों का मनमाना आयात कर सकता है और इस तरह अंतत: सबका साथ सबका विकास का वादा भी तो पूरा होता है।
गोवंश के कटने पर प्रतिबंध की वजह से मुमकिन है देश में इंसुलिन उत्पादन में कमी आ जाए। औषधि के रूप में इस्तेमाल होने के लिए इंसुलिन इन्हीं के अग्नाशय से निकाली जाती है। देश में लाखों डायबिटीज के मरीज हैं जो रोज इंसुलिन लेते हैं। एक डायबिटिक मरीज को जीवित रखने के लिए एक साल में जितनी इंसुलिन जरूरी है उतनी 26 पशुओं के अग्नाशय से निकाली जाती है।
इंसुलिन की इस कमी की भरपाई के लिए गोमूत्र का इस्तेमाल किया जा सकता है। गोमूत्र के प्रयोग से डायबिटीज को नियंत्रित किया जा सकता है साथ ही मोटापे से भी मुक्ति पाई जा सकती है। इंसान के शरीर में तीन तरह के दोष या विकार होते हैं – वात, पित्त और कफ। इनमें किसी एक की अधिकता होने पर हमें तमाम तरह के रोग हो जाते हैं। गोमूत्र में इन तीनों को संतुलित करने की क्षमता होती है। देसी गाय के मूत्र की इस खूबी और गुणवत्ता की वजह से उसे दवा के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि देसी गायों में भी गुजरात की गिर नस्ल की गाय के मूत्र में सबसे अधिक औषधीय गुण होते हैं। इसलिए इस गोमूत्र को छानकर उसे ऑनलाइन बेचकर भी रोजगार सृजन किया जा सकता है।
देखा जाए तो गिर नस्ल की गायों का गोमूत्र इकट्ठा करना भी एक आकर्षक रोजगार हो सकता है। जूनागढ़ एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने गिर गाय के मूत्र में सोने के कण मिलने का दावा किया है आयुर्वेद के जानकारों ने भी इससे अपनी सहमति जताई है। इसके अलावा हम मृत पशुओं के विभिन्न अंशों जैसे हड्डियों, सींगों, खुर और खाल से कई चीजें बना सकते हैं और इनके आधार पर संगठित उद्योग खड़ा कर सकते हैं।
अब समय आ गया है कि एक निश्चित ग्रामीण आय के लिए गायों पर ध्यान केंद्रित किया जाए, ताकि इंडिया शाइन का नारा सार्थक हो सके। जय भारत !!
(डॉ. एम. एस. बसु आईसीएआर गुजरात के निदेशक रह चुके हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)