“अपराधियों का मुकाबला करना मेरे लिए कोई नई बात नहीं है लेकिन जिसका कोई चेहरा न हो ऐसा अपराधी मेरे लिए नया था।”

आईपीएस अफसर रीमा राजेश्वरी अपने कॉलम खाकी कनेक्शन के जरिए जन-समस्याओं को समझने, उनसे जूझने और उनसे मिलने वाले सबक हमारे साथ साझा करेंगी। इन चुनौतियों से निबटने के दौरान देश के ग्रामीण अंचल से जुड़े उनके अनुभव भी हमें पढ़ने को मिलेंगे।
#तेलंगाना

यह घटना तब की है जब मुझे तेलंगाना स्थित जोगुलंबा गडवाल जिले के पुलिस प्रमुख का पद संभाले महज 8 हफ्ते ही हुए थे। यहां नाडीगड्डा इलाके की प्रचलित लोकशैली बुर्राकथा में एक मशहूर कथा है बाला नागम्मा ओग्गू कथा। एक समय में यह ग्रामीणों के मनोरंजन का लोकप्रिय जरिया हुआ करती थी। इसमें लोकगायक तंबूरा बजाते हुए आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के गांव-गांव घूमा करते थे।आज भी गर्मी के दिनों में स्थानीय त्यौहार जात्रा के समय इन्हें देखा जा सकता है। इनका इतिहास बड़ा पुराना है। ये लोकगायक ब्रिटिश सरकार और निजाम के हुकूमत के खिलाफ समाज में कथाएं गा-गाकर जागरुकता फैलाते थे, इसीलिए इन सरकारों ने इन पर प्रतिबंध लगा रखा था। इन गायकों के विषय अक्सर सामयिक सामाजिक मुद्दे होते थे या फिर कोई प्राचीन हिंदू मिथकीय कथा।


दो बदनसीब लोकगायिकाएं

2018 की गर्मियों में मेनम्मा और महेश्वरम्मा नाम की महिलाएं भी इसी पुरानी लोकपरंपरा का निर्वाह करती हुईं जात्रा में गाने निकली थीं। लगभग 50 की उम्र की ये दोनों लोकगायिकाएं उन स्थानों पर जातीं जहां स्थानीय बाजार, मेले या पैठ लगे होते थे क्योंकि यहां उन्हें दान के रूप में ठीक-ठाक पैसा मिल जाता था। इन दोनों के पूर्वज भी जंगम कवि थे यानि वे घूम-घूम कर देवताओं की स्तुति गाया करते थे। आज भी इस समुदाय के लोग माथे पर सिंदूर और हल्दी के तिलक लगाकर देवी-देवताओं की स्तुति करके, भविष्यवाणियां करके और कुछेक देवस्थलों में सेवाकार्य करके अपना पेट पाल रहे हैं। 11 मई 2018 का दिन इन दोनों महिलाओं के लिए भी हमेशा की तरह सामान्य था, लेकिन मुसीबतें तब शुरू हुईं जब शाम को इनके गांव जाने वाली आखिरी बस इनसे छूट गई।

ये दोनों बरगद के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर आराम करने लगीँ। जब रात हुई तो ये आसारा लेने के लिए पास ही स्थित स्थानीय देवता के मंदिर में चली गईँ। आधी रात के समय इन्हें एक गांववाले ने मंदिर में आराम करते देख लिया। वह तुरंत दौड़कर गांव आया और सभी को जगाकर बताया कि उसने बच्चों का अपहरण करने वाली ठीक वैसी ही दो औरतें देखी हैं जैसा व्हाट्सऐप विडियो में दिखाई गई थीं। 10 मिनट के अंदर पूरा गांव इकट्ठा हो गया, लोगों ने इन दोनों औरतों को मंदिर से जबरन निकाल कर ग्राम पंचायत के दफ्तर में बंद कर दिया। गांवावालों को पक्का यकीन था कि पिछले दो हफ्तों से सभी व्हाट्सऐप ग्रुपों में बच्चों को अगवा करने वाली जिन महिलाओं का जिक्र हो रहा था ये वही हैं। इस विडियो में कहा गया था कि वे सावधान रहकर अपने बच्चों को बचाएं और संदिग्ध लगने वाले किसी भी शख्स पर हमला कर दें। इन औरतों को घसीटकर बाहर लाया गया और एक बांस के साथ इस तरह कसकर बांधा गया कि वे हिलडुल भी नहीं पा रही थीं। इसके बाद भीड़ ने कानून अपने हाथ में ले लिया और गांववाले इन दोनों औरतों से पूछताछ करने लगे। कुल मिलाकर अब भीड़ का कानून चल रहा था।

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अफवाहों के आगे समझदारी बेबस हुई

दोनों औरतें विनती कर रही थीं कि वे पड़ोसी जिले की रहने वाली हैं और उन्हें छोड़ दिया जाए। “ये दोनों औरतें बच्चा चोर हैं हमारे बच्चे चुराने आई हैं” यह बात गांव वालों के दिमाग पर इस तरह हावी थी कि उन्हें बुजुर्गों की समझदारी भरी बातें भी सुनाई नहीं दे रही थीं। भीड़ अभी उनकी जांच-पड़ताल कर ही रही थी कि किसी समझदार शख्स ने स्थानीय पुलिस को फोन कर दिया। कुछ देर बाद पुलिस आई और भीड़ को चीरती हुई ग्राम पंचायत भवन के उस कोने तक पहुंची जहां दोनों पीड़ितों को बंदी बनाकर रखा गया था। पुलिस की टीम में चार सदस्य थे और भीड़ में करीब 200 से ज्यादा लोग।

सब-इंस्पेक्टर ने पूछा, “यह सब किसने किया?” कोई जवाब नहीं आया। इसके बाद भीड़ के बीच से कोई चिल्लाया, “ये हमारे बच्चे चुराने आई हैं।” इसके समर्थन में कई आवाजें गूंजीं। वहां की हवा में सामूहिक उन्माद तैर रहा था। उनके भीतर डर बैठ चुका था, यह डर उन विडियोज ने पैदा किया था जो पिछले कई दिनों से तमाम व्हाट्सऐप ग्रुपों में दिखाए जा रहे थे। मार्च के महीने से बच्चा चुराने वाले गिरोहों के डर से गांववालों की रातें जागते हुए कटती थीं। खैर, किसी तरह गांव के ही कुछ बुजुर्गों की मदद से पुलिस ने उन दोनों औरतों को सुरक्षित निकालकर पुलिस स्टेशन तक पहुंचाया। इसी बीच सब-इंस्पेक्टर ने उस थाने के एसएचओ को फोन किया जिसके अंतर्गत उन दोनों औरतों के गांव आते थे। वहां से इन दोनों औरतों के पहचान पत्र व्हाट्सऐप पर मंगवाए। इसके बाद पुलिसवालों ने एक-एक गांववाले को यह मैसेज दिखा कर साफ किया कि ये दोनों औरतें पड़ोसी जिले वानापर्थी की लोकगायिकाएं हैं कोई बच्चाचोर नहीं। इस पूरी कवायद में तीन घंटे लग गए।

अनजाना डर, ऐसा दुश्मन जिसे पहचानना मुश्किल

जोगुलंबा गडवाल जिले में यह भीड़ की हिंसा की पहली घटना थी। इसके बाद के दिनों में दैनिक घटनाओं की समीक्षा के दौरान मैंने महसूस किया कि एक खास किस्म की सोच उस इलाके में फैल रही थी। यह हम सभी के लिए एक चुनौती थी। अपराधियों का मुकाबला करना मेरे लिए कोई नई बात नहीं है लेकिन जिसका कोई चेहरा न हो ऐसा अपराधी मेरे लिए नया था। हमें पता ही नहीं था कि लड़ना किससे है।

मॉब लिंचिंग ने हाल के महीनों में देश-दुनिया सबका ध्यान अपनी ओर खींचा है। समाज में इसके खिलाफ गर्मागरम बहस हो रही है, सभी वर्गों के लोगों ने इसपर अपनी नाराजगी भी जताई है। भारत में शायद ही कोई जगह बची होगी जहां सोशल मीडिया पर फैलने वाली अफवाहों ने अपना असर न छोड़ा हो, इससे बड़ा भयावह माहौल बन गया है।

देश के कुछ हिस्सों में सोशल मीडिया पर फैल रही बच्चों के अपहरण की अफवाहों से गुस्साई भीड़ के हाथों होने वाली हत्याएं कानून-व्यवस्था संभालने वाले अधिकारियों के लिए चिंता का विषय हैं। मार्च के आखिरी हफ्ते में गडवाल में भी खतरे की घंटी बजी थी जब गांव में गश्त पर गए एक पुलिसकर्मी ने मुझे बताया कि भयानक गर्मी में भी लोग दरवाजे बंद करके घर के अंदर सो रहे हैं। यह असामान्य बात थी। उस पुलिस अफसर को लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं जिले के दूसरे हिस्सों में भी ऐसा ही हो रहा हो। मैंने अलग-अलग जगहों पर अपनी टीम को यह जानने भेजा कि सच क्या है। हैरानी की बात है, हमारा संदेह निकला। गांवों में जाने वाले विलेज पुलिस अफसरों ने ग्रामीणों से बातें करके बताया कि लोगों को एक अनजाना भय सता रहा है, यहां तक कि दूर आदिवासी इलाकों में भी यही स्थिति थी।

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अफवाहों को सोशल मीडिया का सहारा मिला

गांववालों को अपने फोन पर व्हाट्सऐप ग्रुपों के जरिए खास किस्म के विडियो, तस्वीरें और वॉयस क्लिप मिल रहे थे। ये बड़े वीभत्स थे जिनमें भीड़ लोगों पर हमला करती दिखाई गई थी। एक विडियो में एक आदमी अपनी जान की भीख मांग रहा था, चार लोग उसे घेरकर खड़े हैं, एक आदमी उसके कटे हुए शरीर में हाथ डालकर अंदरूनी अंग निकाल लेता है। कुछ ऐसी अपुष्ट सूचनाएं भी मिल रही थीं अंतरराज्यीय पारदी गैंग फिर से नाड़ीगड्डा इलाके में सक्रिय हो गया है। पारदी ऐसा आपराधिक समूह है जिसे अंग्रेजों के समय से ही अपराधी घोषित किया गया है। बच्चा चोरों और पारदी गैंग के सक्रिय होने की अफवाहों से डरे हुए गांव वालों ने अपने गश्तीदल बना लिए थे। ये लोग रात में गांव के आसपास गश्त लगाते और हर उस शख्स से पूछताछ करते और बंधक बना लेते जो उन्हें अजनबी लगता।

शुरू हुई नागरिकों की सहभागिता

असल में लोग अपने मित्रों, परिचितों और रिश्तेदारों के भेजे हुए व्हाट्सऐप मैसेज पर आंख बंद करके भरोसा कर रहे थे, और खुद भी आगे बढ़ा रहे थे क्योंकि हर मैसेज के आखिर में लिखा होता था, ‘हर जानने वाले को इसे फॉरवर्ड करें।’ यह सामूहिक पागलपन 9 दिनों तक जारी रहा और हम हैरानी से इसे देखते रहे। तब पहली बार हमें अहसास हुआ कि तकनीक उन इलाकों में भी जा पहुंची है जहां शिक्षा पहुंचनी बाकी है। तकनीक के अनचाहे परिणाम हमारी आंखों के सामने थे। ये घटनाएं हैरान करने वाली थीं। एक ऐसा समय आया जब मैंने अनचाहे डर के पीछे मौजूद खतरे को महसूस किया। इसका परिणाम यह हुआ है कि हमने एक गहन जागरुकता अभियान शुरू किया। उस समय मेरे पास दो विकल्प थे, पहला कि ये भड़काऊ मैसेज जहां से आना शुरू हुए वहां पहुंचा जाए। दूसरा विकल्प था घर-घर जाकर लोगों को शिक्षित और जागरुक किया जाए। पहला विकल्प तकनीकी रूप से मुश्किल था क्योंकि व्हाट्सऐप मैसेज इस तरह होते हैं कि इन्हें भेजने वाला और पाने वाले वाले के अलावा इसकी जानकारी किसी और को नहीं हा सकती। अब हमारे पास सिर्फ दूसरा ही रास्ता रह गया था। इस तरह से मेरे करियर का अब तक का सबसे बड़ा नागरिक सहभागिता अभियान शुरू हुआ।

मेरे विचार से हमारी प्राथमिक जिम्मेदारी थी नागरिकों के बीच सुरक्षा की भावना को बढ़ावा देना। लोगों को व्हाट्सऐप, फेसबुक और दूसरे डिजिटल मीडिया प्लेटफार्म के जरिए लगातार गलत जानकारियां दी जा रही थीं। इनके पास उनकी सच्चाई की पुष्टि करने का कोई साधन भी नहीं था। इन सब चीजों का सीधा असर कानून-व्यवस्था पर पड़ रहा था और ये अफवाहें कभी भी हालात बिगाड़ सकती थीं।

डीप फेक हैं फेक न्यूज से भी खतरनाक

मैंने इस पर काफी विचार किया कि हम ऐसा कौन सा ठोस कदम उठाएं कि स्थानीय व्हाट्सऐप ग्रुपों में भविष्य में ऐसे वीभत्स, डरावने मैसेज न बढ़ाए जाएं। इसका एक ही हल था कि हम अपने जन सहभागिता वाले अभियान पर भरोसा करें और लोगों की भागीदारी बढ़ाएं। फिर भी हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी यह जानना कि भविष्य में आने वाले हिंसक विडियो कहां से आएंगे। इनमें से डीप फेक विडियो की चुनौती तो हमारी भी क्षमताओं के परे थी। ये ऐसे विडियो होते हैं जिनमें फेस मैपिंग और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस की मदद से विडियो बनाए जाते हैं। (इनके जरिए आप किसी भी व्यक्ति के मुंह से अपनी मनचाही बातें कहलवा सकते हैं। ये गंभीर अपराध है।) इस भयानक खतरे से लड़ने के लिए हम इतना ही कर सकते थे कि लोगों को इसके प्रति जागरुक करें। अप्रैल से हम सोशल मीडिय पर होने वाली हर घटना पर बारीक नजर रखे हुए थे। इसलिए हमने पुलिस अफसरों का एक अर्जेंट ट्रेनिंग सेशन करवाया जिसमें उन्हें सिखाया गया कि वे जनता को सोशल मीडिया पर फैल रही अफवाहों और फेक न्यूज के खिलाफ कैसे शिक्षित करें। मैंने उन्हें सिखाया कि कैसे फर्जी फोटो और गलत जानकारी की पहचान करें। हमने घर-घर जाकर नागरिकों को सिखाया कि फर्जी विडियो को कैसे पहचानें और अपील की कि उन्हें जल्दबाजी में आगे न बढ़ाएं।


कई चरणों में चला हमारा अभियान

तेलंगाना और देश के दूसरे हिस्सों में भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा की घटनाएं घटने से बहुत पहले ही हमने अपना अभियान शुरू कर दिया था। हमारे अभियान का पहला चक्र मार्च के आखिरी हफ्ते में पूरा हुआ था। हमने 45 दिनों में इसे तीन अलग-अलग चरणों में पूरा किया था। पहले चरण में हमने विलेज पुलिस अफसरों को प्रशिक्षण दिया कि कैसे फर्जी मैसेज को पहचानें और जनता को उसके बारे में जानकारी दें। दो हफ्तों तक मेरी टीम हर गांव, हर आदिवासी बस्ती में गई और उनसे अपील की कि अफवाहों पर भरोसा न करें। दूसरे चरण में, हमने स्थानीय ढोलवादकों को इस बात की ट्रेनिंग दी कि वे पुलिस की जानकारी को रोचक तरीके से आम जनता में पहुंचाएं। हमने उन्हें सिखाया कि कैसे एक मिनट में अपना संदेश सुनाएं। ये लोग पुलिसवालों के साथ गांव-गांव जाते और हमारा संदेश जनता तक पहुंच जाता।

मैंने व्यक्तिगत तौर पर गांवों के सरपंचों, उप सरपंचों, मंडल और जिला परिषद के सदस्यों को ट्रेनिंग दी। इसमें जोगुलंबा गडवाल जिले के 194 सरपंच और वानापर्थी जिले के 233 सरपंच आए। समाज में शांति व्यस्था से सरोकार रखने वाले लोगों को इस अभियान में शामिल करने से हमारी ताकत कई गुना बढ़ गई। तीसरे चरण में हमने फर्जी खबरों और अफवाहों पर गाने बनवाए और स्थानीय लोक गायकों से उन्हें गाने को कहा। ये गाने स्थानीय संस्कृति के हिसाब से तैयार किए गए थे और लोगों में जबर्दस्त लोकप्रिय हुए। इनकी बदौलत हमने अफवाहों का प्रभावी ढंग से सामना किया।

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समय आ गया है कि समाज नींद से जागे और फेक न्यूज को नकार दे

इस बात से इनकार नहीं है कि अफवाहें और गलत जानकारियां भारत में बहुत बड़ी सुरक्षा चुनौती बनती जा रही हैं। नफरत और अफवाहों को फैलाने के लिए व्हाट्सऐप बहुत बड़ा माध्यम बनता जा रहा है। कानून व्यवस्था लागू करने वाली एजेंसियां समाज में अफवाह फैलाकर डर पैदा करने और सुरक्षा के लिए खतरा बनने वाली कोशिशों के राज को सुलझाने का भरसक प्रयास कर रही हैं। लेकिन मुझे लग रहा है कि जानबूझकर समाज में भय व्याप्त करने के प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन यह नहीं पता कि ऐसा कौन और क्यों कर रहा है। व्हाट्सएप ने भारत में ऑनलाइन सामाजिक-राजनीतिक और धार्मिक सक्रियता की बढ़ती भावना को भी जन्म दिया है और इससे सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा मिल रहा है।

भारत ऐसा देश है जहां लोगों की तकनीक तक तो पहुंच है लेकिन वे खुद तकनीक रूप से अशिक्षित हैं। ऐसे लोगों को सिर्फ यह बताने से काम नहीं चलेगा कि ये करें या ये ना करें। ज्ञान और उस पर अमल किया जाना ये दोनों प्रक्रियाएं साथ चलनी चाहिए। कुछ डिजिटल प्लेटफॉर्म ने इस दिशा में कदम उठाए हैं लेकिन मुझे लगता है कि यह सोशल मीडिया कंपनियों की जिम्मेदारी है कि वे नफरत, डर और अफवाहें फैलाने वाले मैसेज को रोकने के लिए काम करें।

तकनीक हमारे जीवन का इतना अटूट हिस्सा बन चुकी है कि उसे जनता की सुरक्षा से अलग करके नहीं देखा जा सकता। इससे पैदा होने वाली समस्याओं के हमें विशेष समाधान खोजने होंगे। भारत की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आंचलिक विभिन्नताओं समेत तमाम विरोधाभासों के मद्देनजर कानूनी स्तर पर हमें खास भारत के परिप्रेक्ष्य में भीड़ की हिंसा के खिलाफ कानून लाना होगा। इससे यह संकेत देने में मदद मिलेगी कि भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा ऐसा अपराध है जिसकी सभ्य समाज में कहीं जगह नहीं है। हम जिन तकनीकों की मदद से भविष्य का निर्माण कर रहे हैं, अपराधी उन्हीं का इस्तेमाल हमारे खिलाफ करने को तैयार हैं। इसलिए समय है कि समाज नींद से जागे और फेक न्यूज को नकार दे।  

(रीमा राजेश्वरी तेलंगाना कैडर की युवा पुलिस अफसर हैं। पुलिस प्रशासन को बेहतर बनाने के लिए उनके मौलिक तौर तरीकों की देशभर में तारीफ होती रही है। वह नेशनल पुलिसिंग अकादमी, हैदराबाद में अपने बैच की सर्वश्रेष्ठ महिला अधिकारी रह चुकी हैं।)

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