ऐसे में जब जलवायु परिवर्तन की वजह से जीएम फसलों और अधिक उपज देने वाली संकर फसलों का प्रदर्शन अनिश्चित हो गया है, हमारे देश की मूल फसलें खाद्य और पोषण सुरक्षा को सुनिश्चित करने में पूरक साबित हो सकती हैं। असलियत तो यह है कि कोई भी देश समूची मानवता की भूख मिटाने में सक्षम अपनी मूल फसलों की अंतर्निहित क्षमता को अनदेखा नहीं कर सकता।
अब समय आ गया है कि सरकार नींद से जागे, कमर कस ले और तब तक न रुके जब तक कि मंजिल न मिल जाए अर्थात जब तक जानलेवा कुपोषण पर जीत न हासिल हो जाए। कुपोषित, गरीबी से पीड़ित लोगों की मौत से बड़ी सामाजिक समस्या कोई और नहीं हो सकती। आवश्यकता है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुरूप व आधुनिक तकनीकी की मदद से राज्य स्तर पर खाद्य सुदृढ़ीकरण इकाइयां लगाई जाएं जहां पोषक अनाज और फलियों का मिश्रण बनाया जाए। इनमें बाजरा, जई, किनुआ, उच्च गुणवत्ता वाले प्रोटीन युक्त मक्का, मूंगफली, सोयाबीन आदि शामिल हैं। इस पोषक-खाद्य मिश्रण को गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों, भूमिहीन श्रमिकों और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए मुहैया कराया जाए। इसके अलावा यह कुपोषित और रोगियों को ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों और बच्चों को मिड डे मील के माध्यम से उपलब्ध कराया जाए।
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लेकिन सवाल अब भी वही है कि देश के पारंपरिक और गैर-पारंपरिक इलाकों में दाल उत्पादन के सघनीकरण की कार्ययोजना कौन तैयार करेगा। इन इलाकों में पूर्व रबी, रबी, खरीफ, ग्रीष्म काल और वसंत ये कई फसली मौसम हैं इनका इस्तेमाल करके व इनका और मौजूदा फसली सीजनों का तालमेल बैठाकर दालों के इलाकों का विस्तार किया जा सकता है। इससे देश दालों के मामले में आत्मनिर्भर बनेगा और आयात के झंझट से मुक्त हो सकेगा। आज दालों का आयात हमारी जरूरत नहीं बल्कि मजबूरी बन गया है और देश की अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर रहा है।
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इसी तरह तिलहन उत्पादन के लिए भी एक नई कार्ययोजना बननी चाहिए ताकि नए इलाकों में इनकी खेती की अपार संभावनाओं का लाभ उठाया जा सके। उदाहरण के लिए, पूर्वी घाट इलाके में रामतिल या नाइजर की खेती की जा सकती है, मुख्य चावल उत्पादक इलाकों में चावल की भूसी से तेल निकालने पर ज्यादा जोर दिया जाना चाहिए और संचित इलाकों में प्रचलित अनाज-अनाज फसल पद्धति की जगह अनाज-दलहन फसल पद्धति का अनुपालन किया जाना चाहिए।
भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसके अधिकांश किसान गरीब और सीमांत किसान हैं। ये किसान कम उर्वर मिट्टी की समस्या से जूझ रहे हैं, खासकर हरित क्रांति के बाद से; इन इलाकों में अनाजों और दलहन फसलों के फसल चक्र को बढ़ावा दिया जाना चाहिए साथ ही राज्य कृषि विश्वविद्यालय और आईसीएआर की बताई हुई अनाज और दलहन फसलों की सहफसली खेती भी की जानी चाहिए। दलहन फसलें या दालें मिट्टी में नाइट्रोजन और कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ाती हैं, इसके अलावा ग्रामीण भारत में उनके और भी कई उपयोग हैं। इसके बावजूद दालों का आयात करके छोटे किसान और अंततोगत्वा देश की कृषि अर्थव्यवस्था को बर्बादी की ओर ले जा रहे हैं।
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भूमिहीन आदिवासी किसानों के लिए स्पेशल पैकेज: इन किसानों को कुछ नगद प्रोत्साहन के अलावा सहजन, जिमिकंद, सागो, शकरकंद, बेल वाली सब्जियों के बीज या पौध दी जानी चाहिए। इसके साथ इन्हें भेड़ या बकरी का एक जोड़ा, आधा दर्जन अंडे और मीट देने वाले पक्षी और मधुमक्खी पालन की किट भी दी जानी चाहिए। आदिवासियों के कौशल विकास के लिए योजनाएं चलाई जानी चाहिए ताकि वे स्थानीय वन्य उत्पादों का प्रसंस्करण कर सकें। इसके लिए कॉरपोरेट जगत द्वारा सामाजिक सरोकारों के तहत दिए जा रहे है सीएसआर फंड का इस्तेमाल किया जा सकता है। इस बारे में एक निश्चित परियोजना प्रस्ताव संबंधित मंत्रालय को सौंपा जा चुका है।
इस बात की फौरन जरूरत है कि हर किसान परिवार तक पहुंचने के लिए राज्यवार कार्ययोजना तैयार की जाए। इसके लिए मौजूदा संसाधनों और जरूरतों का डेटाबेस बनाया जाना चाहिए। किसानों की स्थायी आमदनी सुनिश्चित करने के लिए उन्हें पशु, पोल्ट्री पक्षी, मछली के बीज, कृषि औजार, बीज, पौध, जैव उर्वरक, माइक्रो न्यूट्रिएंट और आवश्यक ट्रेनिंग दी जानी चाहिए।
जरूरत पड़ने पर वित्तीय मदद भी उपलब्ध कराई जानी चाहिए। साथ ही साथ स्थानीय स्तर पर कृषि उद्यमी भी तैयार किए जाएं जो बाजार और विपणन व्यवस्था मजबूत करने में छोटे किसानों की मदद करें। दशकों पुरानी रस्मी योजनाओं और अनुत्पादक रिसर्च प्रोजेक्टों को खत्म करके इस काम के लिए पैसे की व्यवस्था की जा सकती है। इस तंत्र को मजबूत करने के लिए, वर्षाजल भंडारण, वॉटरशेड विकास व पानी के न्यायोचित इस्तेमाल की व्यवस्था लागू की जानी चाहिए और इसकी पहुंच छोटे किसान तक सुनिश्चित की जाए। केवल किसानों की आय दोगुनी करने का नारा लगाकर खेती का भला नहीं होगा, उसके लिए ये कदम उठाने होंगे।
(ये लेखक डॉ. एमएस बसु के अपने विचार हैं। डॉ. बसु आईसीएआर गुजरात के निदेशक रह चुके हैं।)