मदरसों को शिक्षा की मुख्य धारा से इतना अलग-थलग कर दिया गया कि समाज में उनके बारे में तरह तरह की भ्रान्तियां पैदा हो गई। कभी सुनने में आता है कि मदरसों में आतंकवाद की शिक्षा दी जाती है, तो कुछ लोगों का विचार है वहां केवल दीनी तालीम दी जाती है तो कुछ का सोचना है कि वहां की तालीम नौकरी दिलाने के लिए बिल्कुल प्रासंगिक नहीं है।
प्रधानमंत्री मोदी का कहना कि मदरसा के छात्रों के एक हाथ में कुरान और दूसरे में कम्प्यूटर होना चाहिए, सामयिक सुझाव है । यदि पिछली सरकारों ने ऐसा किया होता तो सच्चर कमीशन नहीं बिठाना पड़ता। आजादी के 68 साल बाद पता चला कि मुसलमानों की हालत अनुसूचित जातियों से भी खराब है। मुसलमानों के ऐसे हालात के लिए आरएसएस या भाजपा को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
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मुसलमानों की गुर्बत आर बदहाली के लिए जिम्मेदार है सेकुलरवादी झंडाबरदार और मदरसा शिक्षा जिन्होंने उनका आत्मविश्वास छीन लिया। आखिर क्या कारण है कि कक्षा पांच तक मुस्लिम छात्रों का प्रतिशत ठीक रहता है लेकिन उच्च शिक्षा में केवल 3 प्रतिशत हो जाता है। साक्षरता की कमी के कारण मुसलमानों को अच्छी नौकरी नहीं मिलती। आलिम, फाजिल की उपाधि हासिल करने से डॉक्टर, वैज्ञानिक या गणित अध्यापक की नौकरी कैसे मिलेगी।
सोचने का विषय यह है कि मदरसा तालीम का मकसद क्या है, मोलवी और मुतवल्ली बनकर दीनी इन्तज़ामात करना या मुख्यधारा में आकर अपनी जगह तलाशना। यदि मकसद है दीनी खिदमत तो संस्कृत पाठशालाओं की तरह चलते जाएं लेकिन नौकरी तलाशनी है तो मोदी की बात मानकर मदरसा तालीम को आधुनिक बनाना होगा, पाठ्यक्रम को मुख्य धारा के लिए प्रासंगिक बनाना होगा। दुखद है कि कुछ लोगों को मोदी के सुझाव में छुपा हुआ एजेंडा दिख रहा है।
मुझे याद है 1951 में मेरे साथ कक्षा 6 में पदरसा से पांचवीं जमात पास करके महोना के औसाफ और अनवार आए थे। उन्होंने जून के महीने में हिन्दी पढ़ ली थी और सहज रूप से समायोजित हो गए थे। आज मदरसा में बुनियादी तालीम लेकर उच्च प्राथमिक स्कूल में दाखिला नहीं मिलेगा। पिछले 70 साल में अलग पहचान के नाम पर पाठ्यक्रमों की दूरियां बहुत बढ़ा दी गई हैं।
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रामपुर से सांसद आजम खां का बयान दुरुस्त है कि मदरसों से नाथूराम गोडसे और प्रज्ञा ठाकुर नहीं निकलते लेकिन निकलता कौन है, जिन्ना, लियाकत अली और सुहरावर्दी जो अपने लिए अलग देश पाकिस्तान मांगते और हासिल करते हैं। पाकिस्तान के आतंकवादी और कश्मीर के अलगाववादी मदरसों में ही पढ़े होंगे या पाठशाला से। इसलिए कहां से कौन निकलता है यह अनावश्यक है।
गांवों के प्राइमरी स्कूलों की तरह मदरसों में भी कम्प्यूटर और अंग्रेजी पढ़ाने की बातें खूब होती रही हैं लेकिन इसके आगे बात नहीं बढ़ीं। जिस तरह गांवों के बच्चे आधुनिक शिक्षा के अभाव में मुख्य धारा में आकर अपना हक नहीं पाते उसी प्रकार मदरसों से निकले छात्र भी अनेक कारणों से पीछे रह जाते हैं। जिन लोगों ने इतने साल तक अलग पहचान के नाम पर मुस्लिम समाज को भारत की संस्कृति, इतिहास, भाषाओं और आधुनिकता से अलग रखा वे मुस्लिम समाज के मित्र और शुभचिन्तक नहीं थे।