बरसात ने दस्तक दी, अब किसान को अचानक खेतों की जुताई, खाद और बीज के लिए पैसे की आवश्यकता होगी। बैंकों से उधार की व्यवस्था तो है, लेकिन समय पर काम नहीं होता, मनरेगा लगभग बन्द है और किसान टूट चुका है। घरों में इतना अनाज नहीं है कि बेचकर व्यवस्था करे।
सरकारों ने किसानों को समय-समय पर खैरात दी है, लेकिन वह कितने दिन चलती। मनरेगा चलेगा और मजदूरी सीधे बैंक में जाने लगी तब सुधार हो सकता है। अभी तो गाँव के छुटभैया साहूकरों से वह कर्जा लेगा क्योंकि बैंकों के चक्कर लगाने में खरीफ़ की बुवाई का समय निकल जाएगा।
काश जीरो बजट खेती सम्भव होती तो किसान को बिना खर्चा ही पैदावार मिल जाती। लेकिन यह तो वनवासियों के लिए ही सम्भव है, जो न जोतते हैं और न बोते हैं। गृहस्थ अपने परिवार का पेट नहीं भर पाएगा, यदि प्रति एकड़ उपज नहीं बढ़ाएगा जिसके लिए न्यूनतम बजट तो सम्भव है, जीरो बजट नहीं।
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वर्तमान समस्या का निदान है आबादी पर नियंत्रण, नीड और ग्रीड में सन्तुलन, खेती की प्राचीन पद्धतियों का आरम्भ, जिसमें शामिल हैं कम पानी की मांग वाले रोग अवरोधी अपने बीज, बहुफसली खेती, पशुपालन और गोबर की खाद, फलदार पेड़ और तालाबों सें मुफ्त की मछली।
अभी तो महंगाई के कारण खेती में लागत बहुत बढ़ गई है। धान की फसल पैदा करने में लगभग 15,000 रुपया प्रति एकड़ का खर्चा आता है। घर के खर्चों के लिए मजदूरी के अलावा कोई रास्ता नहीं और वह भी हर समय मिलती नहीं। ट्रैक्टर और हारवेस्टर से खेतों का काम कुछ ही सप्ताहों में समाप्त हो जाता है, बाकी 300 दिन क्या करे किसान।
मनरेगा को खेती से जोड़ने की बात केवल ख्याली पुलाव बनकर रह गई है। जिन किसानों के खेतों में मेंथा और सब्जियां लगी हैं उनके पास काम है और कुछ पैसा आ जाएगा, लेकिन जो पैसा सरकार से मिलना है जैसे मनरेगा की पुरानी बकाया मजदूरी, गन्ने और गेहूं का बकाया या मुआवजा जो सरकार से मिलना है, उसका भुगतान महीनों के बजाय हफ्तों में किया जा सकता है तो खरीफ़ की बुवाई समय से सम्भव हो सकती थी।
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शादी-ब्याह का मौसम बीत गया लेकिन जुलाई में बच्चों की फीस और किताबें चाहिए। किसान अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ाना चाहता है, अच्छे कपड़े पहनाना और अच्छा भोजन खिलाना चाहता है, परन्तु उसके पास नियमित और भरोसे की आमदनी नहीं है। गरीब किसान के पास पूंजी नहीं है इसलिए उसके खेत तब बोए जाएंगे जब वह बड़े किसानों के खेतों में काम करके मजदूरी लाएगा या फिर गाँव के साहूकार से उधार मिलेगा। खेत न बो पाया तो किसान भुखमरी की हालत में पहुंच जाएगा।
जीरो बजट खेती सम्भव न भी हो, न्यूनतम बजट वाली खेती यदि करनी है तो मृदा स्वास्थ्य पर ध्यान देना पहली प्राथमिकता होगी। सरकार की जिम्मेदारी है कि वह रोगप्राय विेदेशी बीजों को त्याग कर, कीटनाशक, फफूंदनाशक दवाओं के कारखाने बन्द करे। किसान को वैकल्पिक तरीके बताने होंगे, लेकिन यदि आबादी पर कड़ाई से नियंत्रण न किया तो चाहे उल्टे खड़े हो जाइए बढ़ती आबादी का पेट नहीं भर पाएंगे। खाद्य सुरक्षा, मनरेगा या मिडे-डे मील कुछ पूरा नहीं कर पाएगा
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सरकारों को खाद्य सुरक्षा व्यवस्था लागू करने के लिए अनाज के पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम यानी सस्ते अनाज की दुकानों पर ही निर्भर होना पड़ेगा। जब किसान खेत ही नहीं बो पाएगा तो इन दुकानों पर अनाज कहां से आएगा। डर इस बात का भी है कि खाद्य सुरक्षा योजना का हश्र मिड-डे मील जैसा न हो जिसमें बड़ी संख्या में बच्चे बीमार होते रहते हैं यहां तक कि मरते भी हैं। यदि अन्न की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया गया तो कुपोषण मिटाना तो दूर, यह पेटभराऊ भी नहीं होगा।
किसानों को आर्थिक संकट से निकालने का एक ही उपाय है कि गाँवों में स्थायी रोजगार के अवसर मुहैया कराए जाएं जहां किसानों द्वारा उगाई गई चीजों का कच्चे माल की तरह प्रयोग हो और किसानों को उन उद्योगों में नियमित रोजगार मिले। उनका भला ना तो मनरेगा से होगा और ना ही मिड-डे मील या खाद्य सुरक्षा से, खैरात से तो कतई नहीं। उन्हें चाहिए खेती के साथ नियमित आय और आर्थिक स्वावलम्बन।
गांव कनेक्शन के प्रधान संपादक डॉ. एसबी मिश्र के दूसरे लेख यहां पढ़िए।