भारत की कृषि को सबसे बड़ा जुआ माना जाता है क्योंकि फसल खलियान में आने के बाद भी कई बार बाजार नहीं जा पाती है, कई दफा तो किसानों को मंडियों से मौसम या कम भाव के दबाव के कारण खाली हाथ घर लौटना भी कोई बड़ी बात नही है, क्योंकि हमारे देश में उत्पादन और मूल्य की गारंटी नहीं है। इसी कारण हमारे देश में बढती जनसंख्या और कृषि की घटती जोत देश की अर्थव्यवस्था के लिए एक चिंता का विषय बना रहा है।
आज भी देश में कृषि वह सेक्टर है जो कि 50 प्रतिशत से ज्यादा अकुशल जनसंख्या को रोजगार एवं 15 प्रतिशत जीडीपी में हिस्सेदारी रखता है। एनएएफआईएस सर्वे के मुताबिक वर्ष 2015-16 में किसानों की मासिक आय 8,059 रुपये हो गई जो बढ़कर इस वर्ष 10 हजार का आंकड़ा छू सकती है जबकि उसका औसत मासिक खर्च 6,646 रुपये था। इस लिहाज से हर महीने इन परिवारों को 1,413 रुपये की बचत होती है।
इसमें 35 फीसदी खेती, 34 फीसदी मजदूरी, 16 फीसदी सरकारी एवं निजी सेवाओं, 8 फीसदी पशुपालन और 7 फीसदी अन्य गतिविधियां से आमदनी होती है। इन सब हालातों में मध्य करीब 52.5 प्रतिशत किसान परिवारों पर औसत 1,04,602 रुपये कर्ज बकाया था, जबकि आज भारत की स्थिति यह है कि 88.1 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के बैंक खाते खुल गए हैं, पर इनमें से केवल 24 प्रतिशत ही तीन महीने में एक बार एटीएम कार्ड का इस्तेमाल करते, इस आर्थिक परिदृश्य में जीरो ड्यूटी के एग्रीमेंट पर सोचना एक प्रश्न है।
सब की सब व्यापार के वर्चस्व की लड़ाई
आज विश्व स्तर पर अमेरिका और चीन दोनों देशों में जो भी आपसी टकराहट है वो सब की सब व्यापार के वर्चस्व की लड़ाई है क्योंकि 2005 और 2016 में अमेरिका ने विश्व बाजार में बढती प्रतियोगिता में अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए टीपीपी यानी ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप के माध्यम से 12 देशों को साथ लेकर विश्व बाजार के 30 % हिस्से को अपने पक्ष में कर लिया।
यह भी पढ़ें : किसान अछूते नहीं रहेंगे इस व्यापार युद्ध से…
इसी के एग्रीमेंट के जवाब में चीन ने बड़ी कूटनीति और कुशलता से 16 देशों के साथ आरसीईपी यानी रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप जिसमें आसियान के दस सदस्य देशों ब्रुनेई, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमा, फिलिपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम और छह एफटीए पार्टनर्स चीन, जापान, भारत, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीच प्रस्तावित मुक्त व्यापार समझौता करने की योजना को बढावा दिया है।
उल्लेखनीय है आरसीईपी के द्वारा सभी 16 देशों को शामिल करते हुए एक ‘एकीकृत बाजार’ बनाए जाने का प्रस्ताव है, जिससे इन देशों के उत्पादों और सेवाओं के लिए एक-दूसरे देश में पहुंच आसान हो जाएगी। यह उन देशों के लिए फायदेमंद साबित होगा जिनकी अर्थव्यवस्था उद्योग आधारित या जहां पर उद्योग बहुत कम है एवं इससे व्यापार की बाधाएं कम होंगी।
दुनिया का सबसे प्रमुख क्षेत्रीय समझौता
साथ ही, निवेश, आर्थिक एवं तकनीकी सहयोग, विवाद समाधान, ई-कॉमर्स आदि को बढ़ावा मिलेगा। इसे दुनिया का सबसे प्रमुख क्षेत्रीय समझौता माना जा रहा है क्योंकि इसमें शामिल देशों में दुनिया की करीब आधी जनसंख्या रहती है। इन देशों की दुनिया के निर्यात में एक-चौथाई और दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद में करीब 40 फीसदी योगदान है।
यह भी पढ़ें : पीएम किसान सम्मान निधि योजना किसानों के लिए कितनी मददगार?
जैसा कि हम सब जानते हैं कि भारत की कृषि पर कई प्रकार के संकट सामने हैं जिसमें जोत का आकार, सिंचाई व्यवस्था, जलवायु परिवर्तन, वाजिब मूल्य, गरीबी के कारण तकनीकी का आभाव, ग्रामीण पलायन, बेरोजगारी और आयात जैसे कई संकट हैं। अगर इस मध्य 16 देशों के मध्य आयात-निर्यात शुल्क कम करने को लेकर समझौता होता है तो आने वाले कुछ समय के लिए देश के उपभोक्ताओं को वस्तु एवं सेवाएं सस्ती तो मिलेंगी मगर देश को लम्बे अन्तराल बाद इसका खामियाजा उठाना पड़ेगा।
ऐसा इसलिए क्योंकि आज जिन 16 देशों के साथ हमारे मुक्त व्यापार समझौते हैं, उनमें से 11 देशों के साथ हमारा व्यापार घाटा है। विश्व स्तर पर देखते है कि एक समय हमारा देश सोने की चिड़िया था किन्तु आज हम 340 अरब डॉलर का निर्यात और 530 अरब डॉलर का आयात कर रहे और इसी के चलते रुपये का अवमूल्यन हो रहा है जो कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
भारत में मंदी का असर दिख रहा
वर्तमान में नोटबंदी, जटिल जीएसटी प्रक्रिया और कर एवं वैश्विक परिस्तिथियों के कारण भारत में मंदी का असर दिख रहा है यदि हम ऐसे समय में आरसीईपी के साथ बढ़ेंगे तो आने वाले दिनों में रुपये का अवमूल्यन बढ़ेगा, देश में बेरोजगारी बढ़ेगी, छोटे उद्योग बंद होंगे और ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमा जाएगी।
भारत की अर्थव्यवस्था प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है क्योंकि आज हमारे देश में करीब 50 लाख करोड़ (5 ट्रिलियन) का कृषि उत्पाद का मूल्य है जिसमें 187 मिलियन टन दूध जो कि करीब 5 से 6 लाख करोड़, 176 मिलियन टन धान जो कि करीब 3 से 4 लाख करोड़ एवं 102 मिलियन टन गेहूं जो कि 2 से 2.5 लाख करोड़ का बाजार मूल्य रखते हैं एवं इनके मूल्य को स्थिर और लागत अनुरूप रखने के लिए दूध उत्पाद पर करीब 60 % एवं अन्य कृषि उत्पाद पर 30 % का आयात शुल्क है।
यह भी पढ़ें : संवाद: दूध उत्पादक किसानों के हितों से ना हो समझौता
इसके बावजूद भी हमारे देश के किसान लागत के लाभकारी मूल्य के लिए संघर्ष कर रहे और हर दिन देश में करीब 30-35 किसान आत्महत्या हो रही है, इसके बावजूद अगर हमारा देश आरसीईपी की बातचीत के हिसाब से 90 से 92 फीसदी वस्तुओं पर आयात शुल्क हटाने का प्रस्ताव है और बाकी पर आयात शुल्क घटाकर पांच फीसदी से नीचे लाने की योजना है। ऐसे में दूध उत्पादक के साथ साथ दलहन,तिलहन और अनाज वाली फसलों के किसानो के ऊपर संकट आ जायेगा।
बड़ी चिंता आर्थिक मंदी और बंद होते उद्योग भी
दूसरा भारत के लिए बड़ी चिंता आर्थिक मंदी और बंद होते उद्योग भी है। केयर के मुताबिक भारत की निर्यात विकास दर 2019 के पहले आठ महीनों में 11.8 प्रतिशत से घटकर 1.4 प्रतिशत पर आ गई है। अगर ये गिरावट जारी रही तो भारत का व्यापार घाटा और बढ़ेगा क्योंकि भारत दूसरे देशों को निर्यात करने से ज्यादा खुद आयात करेगा। जिसके परिणाम स्वरूप हमारे देश की छोटी-छोटी इंडस्ट्रीज बंद हो सकती है और आने वाले समय में हमें दूसरे देश पर आश्रित होना पड़ेगा।
भारत को क्या हो सकता है फायदा?
जानकारों का मानना है कि इस समझौते से भारत को एक विशाल बाजार हासिल हो जाएगा। घरेलू उद्योगों को यदि प्रतिस्पर्धी बनाया गया तो इसे दवा इंडस्ट्री, कॉटन यार्न, सर्विस इंडस्ट्री को अच्छा फायदा मिल सकता है। इस करार से भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में वृद्धि दर्ज की जा सकती है, खासकर एक्सपोर्ट से जुड़े एफडीआई में। इसके अलावा इस करार से देश के एमएसएमई क्षेत्र को भी खासा फायदा मिलने की उम्मीद है। इस करार के अमल में आने के बाद एशिया-पेसिफिक क्षेत्र में भारत का कद और सूख बढ़ सकता है।
यह भी पढ़ें : कहीं उपभोक्ता बन कर न रह जाएं किसान
मेरे विचार से आज की वैश्विक बाजार में हमें अन्य देशों के साथ व्यापार संबंध बनाना आवश्यक है जबकि लंबे समय से हमारी नीति दूसरे देश को अपनी बाजार से दूर रखने की है, जबकि वर्तमान में हमें अपने नीति को दूसरे बाजारों तक पहुंच पर केंद्रित करने की आवश्यकता है। भारतीय उद्योगों को संरक्षण देने से ना केवल आयात और निर्यात में नुकसान होता है बल्कि हम वैश्विक बाजार में कम प्रतिस्पर्धी और कम गतिशील बन जाते हैं।
किन्तु वर्तमान देश की परिस्तिथिया हैं उसके अनुसार हमें जीरो शुल्क की नीति से बचना चाहिए क्योंकि उन देशों के लिए फायदेमंद है जिनके यहाँ किसानों को सब्सिडी ज्यादा है एवं कृषि व्यवसाय सहायक है, किन्तु हमारे देश में कृषि प्रमुख एवं सब्सिडी पर भी आगे डब्ल्यूटीओ की बंदिशे बढ़ेगी, इस समझौते में जो छोटे-छोटे देश उनके पास उद्योग नहीं और नहीं वो उद्योग से विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं। इसलिए उनको जीरो शुल्क के समझौते फायदे मंद रहेंगे किन्तु हमारे लिए आरसीईपी का समझौता वर्तमान में उपयुक्त नहीं है दो रुपये देकर एक रुपया कमाना चाणक्य नीति या कूटनीति का हिस्सा नहीं है।
(केदार सिरोही कृषि अर्थशास्त्री एवं किसान नेता हैं और यह उनके निजी विचार हैं)