सुखद आश्चर्य की बात है कि सैकड़ों साल पुराना और 70 साल से अदालत में लम्बित राम मन्दिर का मसला उच्चतम न्यायालय ने हल कर लिया है और सभी पक्षों को मोल्डिंग और रिलीफ पर लिखित बयान के लिए तीन दिन का समय दिया है। अदालत का निर्णय सीलबन्द है और नवम्बर में सामने आ जाएगा। फैसला किसके हक में होगा इसकी दुन्दुभी अभी से नहीं बजानी चाहिए लेकिन चूंकि अन्तिम दिन सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अपना दावा वापस लेने का विचार और अन्यत्र मस्जिद बनाने की सहमति व्यक्त की और उनके वकील धवन ने हिन्दू महासभा द्वारा प्रस्तुत नक्शा फाड़ दिया, इससे हिन्दुओं को लगना स्वाभाविक है कि फैसला उनके हक में होने की सम्भावना है। यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस अपना मौन हिन्दुत्व तो उजागर नहीं करेगी लेकिन संघ परिवार का प्रखर हिदुत्व कहीं उद्दंड न हो जाये।
बहस में विषय आया कि अदालतें भावात्मक मुद्दों पर निर्णय नहीं दे सकतीं केवल सम्पत्ति पर फैसला देंगी। यह तो आसान होना चाहिए था कि बाबर या मीर तकी अपने साथ जमीन नहीं लाए थे उस पर तो हिंदुओं का हजारों साल का संक्रमणीय कब्जा था। हिन्दुओं में नाम और रूप दोनों को मान्यता है लेकिन इस्लाम में रूप को मान्यता नहीं है। जो भी हो अब तो निर्णय सुनने के बाद ही फैसले का आधार पता चलेगा।
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दुखद तब होता यदि वाद को स्वीकार करने और लंबे समय तक जिरह के बाद अदालत फैसला न सुना पाती। विभिन्न पक्षों को आनंद और वेदना हो सकती है लेकिन आम आदमी को सुकून का अनुभव होगा यदि सब शांतिपूर्वक निपट गया।
यह मुद्दा कांग्रेस जब चाहती हल कर सकती थी लेकिन उसका हित इसे जीवित रखने में था। आजादी के बाद कांग्रेस ने बिना उद्घोष किए हिन्दुत्व का रास्ता अपनाया था और लाभ उठाया। सोमनाथ मन्दिर का निर्माण, गो वध बन्दी, सरकारी आयोजनों पर हवन पूजन, मुहूर्त देखकर मंत्रिमंडल का शपथ ग्रहण जैसे अनेक कदम उठे। लेकिन जैसे-जैसे संघ परिवार का प्रखर हिन्दुत्व बढ़ता गया, कांग्रेस मुस्लिम तुष्टीकारण के मार्ग पर चल पड़ी। कांग्रेसी हिन्दुत्व को साफ्ट कहें या मौन हिन्दुत्व कहें लेकिन मुहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस में रहते इसे हिन्दू पार्टी मानते थे। राहुल गांधी वही हिन्दुत्व पुनर्जीवित करने का असफल प्रयास कर रहे हैं।
कांग्रेस ने 1952 में गोवंश का प्रतीक दो बैलों की जोड़ी को और 1972 में गाय और बछड़ा को चुनाव चिन्ह बनाया जो विचारधारा के प्रतीक थे। इसके पहले जब 1949 में तथाकथित बाबरी मस्जिद पर हिन्दुओं ने कब्जा कर लिया तो कांग्रेस मौन रही। प्रदेश और केन्द्र में उनकी सरकार थी, यदि चाहते तो मुसलमानों को कब्जा दिला सकते थे। नेहरू जी का विशाल व्यक्तित्व था, सेकुलर छवि थी, आपस में मिल बैठकर फैसला करा सकते थे। उन्होंने कुछ नहीं किया, मामला अदालत में गया और जन्मस्थान में ताला पड़ गया। कालान्तर में मस्जिद का ताला खुलवाने और, मन्दिर का शिलान्यास कराने में कांग्रेस की अहम भूमिका रही। कांग्रेस ने बाद में अपना चुनाव प्रचार भी अयोध्या से ही शुरू किया।
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गांधी युग के कांग्रेस नेताओं पर विचार करें तो बाल गंगाधर तिलक जिन्होंने गणेशउत्सव आरंभ किया। मदनमोहन मालवीय जिन्होंने हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन जो हिन्दी के प्रबल समर्थक थे, डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद जो नेहरू की पसन्द राजगोपालाचारी का विकल्प और पटेल के निकट थे, इनमें से सभी नेता और स्वयं गांधी जी हिन्दुत्व के पक्षधर थे। कांग्रेस में आरएएस के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार भी बीस के दशक में कांग्रेस में रहे और हिन्दू महासभा के श्यामाप्राद मुखर्जी भी रहे थे। आरएएस ने शताब्दियों पहले गांधी जी को प्रातः स्मरणीय माना था और अपने प्रात: स्मरण में गांधीजी का नाम सम्मिलित किया था। गांधी के शांति और अहिंसा की परवाह किए बिना संघ परिवार ने अस्सी के दशक में आडवाणी के नेतृत्व में जन्मभूमि आन्दोलन को उग्र रूप दे दिया।
मुस्लिम समाज ने सोचा भी नहीं था कि जिन सेकुलरवादियों ने उन्हें हमेशा तरजीह दी थी वे कुछ नहीं कर पाएंगे। उनकी अलग पहचान मिटने लगी और वे समझौते के मूड में कभी नहीं रहे। अब कुछ मुसलमानों ने कहना आरम्भ किया है कि राम इमामे हिन्द हैं वह हमारे पूर्वज हैं। इंडोनेशिया के मुसलमान यही तो कहते हैं कि राम हमारे पूर्वज हैं और इस्लाम हमारा धर्म है। जिस दिन भारत का मुसलमान यह समझदारी दिखाएगा यह देश अपना पुराना गौरव हासिल कर लेगा। अयोध्या से मुसलमानों का भावात्मक जुड़ाव नहीं है लेकिन हिन्दुओं का है इसलिए मुसलमानों की समझदारी की परीक्षा की घड़ी है। देखना होगा तीन दिन के मोल्डिंग और रिलीफ के बीतने के बाद सामाजिक सौहार्द बना रहता है या नहीं। यदि बना रहा तो मोदी की झोली में एक और फूल होगा।