सघन खेती ने पिछले कुछ दशकों में न केवल कृषि संकट को और गहरा किया है बल्कि प्राकृतिक संसाधनों को भी इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। बताया जाता है कि खेती का यह तरीका 25 फीसदी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। दुनिया भर में यह विश्वास अपनी जड़ें जमा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के पीछे खेती एक प्रमुख कारण है। इसलिए इस बात की मांग बढ़ रही है कि खेती के तौर-तरीकों में बदलाव लाया जाए। साथ ही सुरक्षित और जैविक भोजन के उत्पादन की मांग जोर पकड़ रही है।
खेती को प्रभावित करने वाले पर्यावरणीय संकट के मूल में वे विशाल कृषि सब्सिडियां हैं जिन्होंने अपने पीछे बर्बादी के निशान छोड़े हैं। लोगों को सस्ता भोजन मिल सके और आर्थिक सुधारों की व्यवहार्यता साबित की जा सके, इसके लिए दुनिया ने अनजाने ही बहुत बड़ी कीमत चुकाई है।
फूड एंड लैंड यूज कोएलिशन (एफओएलयू) 2019 दुनिया भर के वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों का एक संगठन है, इसका मानना है कि सस्ते भोजन का अप्रत्यक्ष मूल्य इंसान की सेहत, प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण को चुकाना पड़ता है। इसकी रिपोर्ट ने आगाह किया है कि अगर चीजें ऐसी चलती रहीं तो आधी दुनिया 2030 तक कुपोषण का शिकार हो जाएगी। इस रिपोर्ट में कृषि संकट के पीछे कारणों का अनुमान लगाने के अलावा उन दस उपायों की सूची भी दी गई है जिन्हें अपनाए जाने की आवश्यकता है।
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अल्प पोषण या छिपी हुई भूख इस कृषि संकट का सबसे दुखद परिणाम है लेकिन इसके कारण होने वाला प्राकृतिक संसाधनों का विनाश और पर्यावरणीय संकट भी किसी नरसंहार से कम नहीं होंगे। इस रिपोर्ट के अनुसार एक साल में भोजन उगाने में करीब 700 अरब डॉलर खर्च किए जाते हैं। चूंकि इसमें हर सब्सिडी को शामिल करना असंभव है इसलिए माना जा सकता है कि यह राशि इससे भी कहीं ज्यादा होगी।
लेकिन इससे पहले कि आप किसी नतीजे पर पहुंचे आपको बता दें कि ये सभी सब्सिडियां या छूट किसानों तक नहीं पहुंचतीं। उन्हें डायरेक्ट इनकम सपोर्ट के तौर पर इनका बस एक छोटा सा अंश भर ही मिलता है।
एक दूसरे अध्ययन ने प्रॉड्यूसर सब्सिडी इक्वीवेलेंट (पीएसई) के आधार पर नतीजा निकाला है कि इस लिस्ट में 2016-17 में सबसे ऊपर ऑर्गनाइजेशन फॉर इकॉनमिक कोऑपरेशन एंड डेवेलपमेंट (ओईसीडी) और चीन हैं। ये दोनों ही क्रमश: 235 और 232 अरब डॉलर सब्सिडी देते हैं।
विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के कृषि पर पहले 10 वर्षों के समझौतों पर तैयार एक रिपोर्ट के प्रमुख लेखक के रूप में मैंने अनुमान लगाया था कि इनमें से 80 प्रतिशत से अधिक सब्सिडी वास्तव में कृषि व्यवसाय करने वाली कंपनियों के खाते में गई थी। उस समय डब्ल्यूटीओ ने अंदाजा लगाया था कि अमीर देशों ने लगभग 360 अरब डॉलर सब्सिडी के रूप में दिए थे। इस रिपोर्ट को 2005 के हांगकांग के मंत्रीस्तरीय सम्मेलन में पेश किया गया था।
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इस सब्सिडी का अधिकांश भाग निर्यात आधारित कृषि के लिए था जिसके लिए सघन खेती को अपनाया गया। इसका दुष्प्रभाव मृदा स्वास्थ्य पर पड़ा, भूजल दूषित हुआ, वर्षा वनों को काटकर उनकी जगह पाम ऑयल के लिए ताड़ के पेड़ लगाए गए, पशुपालन हुआ, जैव-ईंधन वाली फसलें उगाई गईं, औद्योगिक स्तर पर जानवर पाले गए जिससे न केवल पर्यावरण प्रदूषित हुआ, जैव विविधता पर चोट पहुंची बल्कि इससे अस्वास्थ्यकर भोजन की पैदावार हुई।
वैश्विक कृषि सब्सिडी के 700 अरब डॉलर का केवल 1 प्रतिशत पर्यावरणीय रूप से सुरक्षित कृषि प्रथाओं के लिए गया है। भारत में भी सालाना सब्सिडी का 1 प्रतिशत से कम पुनर्योजी कृषि या जैविक और समग्र कृषि के लिए जाता है। फूड एंड लैंड यूज कोएलिशन के प्रिंसिपल जेरेमी ओपेनहेम ने अखबार ‘द गार्जियन’ को बताया था, ‘सब्सिडी का बहुत छोटा हिस्सा सकारात्मक पर्यावरणीय परिणाम लाने में इस्तेमाल होता है जो कि पागलपन है।’
उन्होंने कहा, ‘हमें इन सब्सिडियों को सकारात्मक उपायों में बदलना होगा।’ इसलिए चुनौती विशाल है लेकिन सुरक्षित भोजन उगाने की सही दिशा में उठाए गए छोटे कदमों से जल्द ही जमीनी बदलाव सामने आएंगे।
हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों से अपील की है कि वे रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल कम करना शुरू कर दें लेकिन वैज्ञानिक बिरादरी का मानना है कि इससे हरित क्रांति से जो लाभ मिले रहे हैं वे खतरे में पड़ जाएंगे। लेकिन नेचर (मार्च 2018) में छपे एक शोध पत्र के अनुसार, इसके विपरीत चीन ने उर्वरकों का प्रयोग 15 प्रतिशत कम करके चावल, गेहूं और मक्के की उत्पादकता में औसतन 11 प्रतिशत की बढोतरी की है।
लेकिन उल्लेखनीय बदलाव तब हुआ जब चीन ने बरसों एक मिशन के तहत काम करके 14,000 वर्कशॉप आयोजित कीं, 65,000 नौकरशाहों, तकनीकी विशेषज्ञों और 1,000 शोधकर्ताओं को इस काम में लगाया। इस बीच चीन ने यह भी ऐलान किया है कि वह 2020 तक उर्वरक और कीटनाशकों की सब्सिडी में बढ़ोतरी की दर शून्य कर देगा। कोई कारण नहीं है कि भारत इससे प्रेरणा लेकर राज्य कृषि प्रसार तंत्र को जैविक खेती की ओर न मोड़ सके, साथ ही साथ हर साल उर्वरक सब्सिडी कम करने के लिए ठोस कदम भी उठाए।
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उर्वरक सब्सिडी में कमी के करने के साथ चीन का प्रयास है कि फसल चक्रण, कृषि अवशेषों के इस्तेमाल और कुछ समय के लिए भूमि को परती छोड़ने जैसी आदतों को बढ़ावा दिया जाए। हरित क्रांति के समय प्रदर्शन भूखंडों की स्थापना की अत्यधिक सफल रणनीति के आधार पर, चीन के पास कम से कम 40 स्थायी कृषि प्रदर्शन फार्म हैं। भले ही इनकी संख्या बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन इससे पता चलता है कि वह रासायनिक खेती से दूर जाने के लिए कितना प्रतिबद्ध है।
इसी तरह जब पंजाब और हरियाणा पानी की बहुत अधिक खपत करने वाली फसलों को उगाने की वजह से गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं, ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड प्रांत ने उन किसानों की मदद के लिए 50 करोड़ ऑस्ट्रेलियन डॉलर वाला एक फंड बनाया है जो खेती में पानी के इस्तेमाल कम करने का काम कर रहे हैं।
सवाल है कि पंजाब के किसानों को इसी तरह का प्रोत्साहन पैकेज क्यों नहीं दिया जा सकता ताकि वे धान की जगह कम पानी की खपत करने वाली फसलों को उगाने की प्रेरणा ले सकें? अगर उद्योगों को 1.45 लाख करोड़ का प्रोत्साहन दिया जा सकता है तो कोई कारण नहीं दिखाई देता कि किसानों को ऐसा प्रोत्साहन क्यों नहीं मिल सकता।
लेकिन अनिवार्य रूप से शुरू में यह सुनिश्चित करना होगा कि कृषि विश्वविद्यालय अपने अनुसंधान कार्यक्रमों को इस तरह से बनाएं जो रासायनिक चीजों को इस्तेमाल न करने पर आधारित हों। इसके लिए मानसिकता परिवर्तन जरूरी है जिसमें कुछ समय भी लग सकता है लेकिन निश्चित तौर पर यह असंभव नहीं है।
इसके साथ, जरूरी है कि कृषि के लिए मिलने वाला बजटीय समर्थन भी पर्यावरणोन्मुखी हो। विश्व स्तर पर एफओएलयू रिपोर्ट प्रयास कर रही है कि कम से कम 500 अरब डॉलर की कृषि सब्सिडी धारणीय कृषि, गरीबी उन्मूलन और पारिस्थितिक बहाली पर खर्च की जाए। निश्चित रूप से यह मुश्किल काम है लेकिन नामुमकिन नहीं।
(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं)
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