मानवता के लिए उत्कृष्ट योगदान करने वालों को दिए जाने वाले विश्व के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों का ऐलान हो चुका है। ये पुरस्कार हर साल साहित्य, शांति, चिकित्साशास्त्र, रसायनशास्त्र, भौतिकी और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए दिए जाते हैं। लेकिन इस बार अपने देश में अर्थशास्त्र के नोबेल पर सबसे ज्यादा चर्चा सुनाई दी।
वह इसलिए क्योंकि इस साल जिन तीन अर्थशास्त्रियों को संयुक्त रूप से नोबेल मिला है उनमें एक अभिजीत बनर्जी हैं। वे भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक हैं। भारत में ही पले-बढ़े और पढ़े हैं। जाहिर है कि भारतीय मीडिया में उन्हें मिली प्रतिष्ठा का अभिनंदन होना ही था। वैसे जिन विद्वानों को यह पुरस्कार मिलता है उनके कार्य को बड़े हा गौर से देखा जाता है और पूरी दुनिया में उसकी चर्चा होने लगती है।
तीनों नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने गरीबी उन्मूलन पर किया काम
जिन तीन विद्वानों को अर्थशास्त्र का नोबेल मिला है उनमें एक समानता है। वह ये कि इन तीनों को यह पुरस्कार गरीबी उन्मूलन पर उनके शोध कार्यों को लेकर दिया गया है। पूंजी के बढ़ते प्रभुत्व वाले इस दौर में वैश्विक गरीबी की चिंता करने वालों को सम्मान मिलना बड़ी बात समझी जानी चाहिए। खासतौर पर जब आर्थिक वृद्धि दर, मुक्त व्यापार, मांग और आपूर्ति में तालमेल जैसे अर्थशास्त्रीय महत्त्व के विषय ही हर तरफ छाए रहते हों।
इसके अलावा चारों तरफ पूंजी निर्माण व पूंजी अधिकरण ही निर्विवाद लक्ष्य बना दिख रहा हो, ऐसे समय में गरीबों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि सुधार जैसे विषयों पर शोधकार्य को नोबेल पुरस्कार दिया जाना बहुत सारी बातें कहता है। बहरहाल यह जरूर देखा जाना चाहिए कि दुनिया में गरीबी कम करने के लिए आखिर इन नोबेल विजेताओं नें नया काम क्या किया?
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इस बार के तीनों अर्थशास्त्रियों, प्रोफेसर बनर्जी, फ्रेंच मूल की एस्थर दुफ्लो और अमेरिकी प्रोफेसर माइकल क्रेमर के शोधकार्य की खासियत यह है कि तीनों ने अपने शोध के लिए एक्सपेरिमेंटल एप्रोच अपनाई। बनर्जी और दुफलो मैसाचुसैटस इंस्टिटयूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी यानि एमआईटी में प्रोफेसर हैं। और प्रोफेसर क्रेमर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं। तीनों ने अपनी रिसर्च टीम के साथ डेवलपमेंटल इकोनॉमिक्स के क्षेत्र में शोध कार्यों के जरिये कई परिकल्पनाएं सिद्ध की हैं।
इन तीनों ने ही रैंडमाइज्द कण्ट्रोल ट्रायल्स से गरीबी मिटाने के कई समाधान सुझाए हैं। तीनों नोबेल विजेताओं के मुख्य शोधकार्यों को देख कर समझा जा सकता है कि उनका कार्य सूक्ष्म अर्थशास्त्र यानी माइक्रो इकोनॉमिक्स पर ज्यादा केन्द्रित रहा है। उन्होंने अपने शोध कार्यों में यह सिद्ध किया है कि बड़े बदलावों की जगह व्यवस्था में छोटे हस्तक्षेपों के जरिए आसानी से और ज्यादा व्यवस्थित बदलाव लाए जा सकते हैं। मसलन शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में किसी विश्वव्यापी या देशव्यापी एक बड़े कदम की बजाए इकाई स्तर पर छोटे छोटे प्रयास ज्यादा प्रभावी हो सकते हैं।
इसका एक उदहारण एस्थेर दुफ्लो ने नोबेल पुरुस्कार की घोषणा के बाद अपने वक्तव्य में दिया। उन्होने बताया कि “हमारी संस्था ‘जे-पाल’ ने राजस्थान में एक प्रयोग किया था। इस प्रयोग में जिस क्षेत्र में टीकाकरण की दर 5 फीसद हुआ करती थी वहां जब टीका कैम्पों को घर के पास तक पहुंचा दिया गया तो यह दर 5 फीसद से बढ़कर 12 फीसद पहुँच गई। और जब इन कैम्पों में अपने बच्चों को लाने वाली महिलाओं को अपने बच्चे को टीका लगवाने के लिए दाल के पैकेट देकर देखे गए तो टीकाकरण की दर 37 फीसद तक बढ़ गई।”
यहां एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह निकलता है कि निचले स्तर पर कुछ इंसेंटिव दे कर आगे आने वाली बड़ी स्वास्थ्य समस्याओं को रोका जा सकता है। और यह निवेश दीर्घावधि में किसी भी सरकार के लिए बीमारी के इलाज के खर्च और मानव संसाधन की कीमत की तुलना में बहुत कम निवेश है। सिर्फ भारत ही नहीं फ्रांस, इंडोनेशिया, साउथ अफ्रीका, जाम्बिया, केन्या जैसे करीब 81 देशों में जे-पाल यानी जमील पावर्टी एक्शन लैब से जुड़े विद्याविद और प्रशिक्षित शोधार्थी गरीबी से निजात पाने के समाधान खोजने के लिए प्रायोगिक शोध कार्यों में लगे हैं।
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छोटे छोटे हस्तक्षेपों से समाज में बदलाव लाने का दिया सुझाव
कुछ इसी तरह ही माइकल क्रेमर नें शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ साथ जनसंख्या, बेहतर शोध गुणवत्ता, लुप्त होती प्रजातियां जैसी जटिल समस्याओं को भी अर्थशास्त्रीय नजरिए से देखा समझा है। तीनो विजेताओं में माइकल क्रेमर ने ही अपने शोध कार्यों से व्यवस्था में छोटे छोटे हस्तक्षेपों के जरिए बदलाव लाने के सुझाव देने की शुरुआत की थी जिन्हें अंग्रेजी में स्मॉल इंटरवेंशन कहा जा रहा है।
क्रेमर ने शिक्षा के क्षेत्र में अपने शुरूआती प्रायौगिक शोध कार्य 1990 के दशक में केन्या के स्कूली छात्रों के साथ शुरू किये थे। इसी विषय पर बाद में बैनर्जी और दुफ्लो नें भी कई देशों में काम किया। कई बार इन तीनो अर्थशास्त्रियों ने एकसाथ मिलकर भी शिक्षा में सुधार के लिए शोध परीक्षण किए। शिक्षा के क्षेत्र में कई देशों में प्रयोगों के दौरान कभी अध्यापकों की संख्या बढ़ा कर देखी गई तो कभी स्कूल के समय के बाद अतिरिक्त कक्षाएं लगाकर बच्चों के प्रदर्शन को मापा गया.
इन तीनों विजेताओं के काम में एक चीज जो समान दिखती है वह यह है कि इन सभी का कार्य वैज्ञानिक साक्ष्यों पर आधारित है। इन्होने गरीबी उन्मूलन के लिए अल्पकालिक राहत देने की बजाय उसके मूल कारणों को समझने और उन्हें खत्म करने पर ज्यादा ध्यान लगाया है।
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सिर्फ भारत में ही नहीं पूरे विश्व में करीब तीन चैथाई गरीब आज गाँव में ही रहते हैं। और गाँव की अर्थव्यवस्था कृषि पर टिकी रहती है। इधर इन तीनों विजेताओं के कार्यों के अध्ययन से पता चलता है कि कृषि सुधार के लिए भी ये विद्वान समय-समय पर सुझाव देते आये हैं। कृषि सुधार के लिए कुछ विषय जो नोबेल विजेता उठाते रहे हैं उनमें कृषि कर्ज तक पहुंच, खाद सबसिडी, तकनीक के सहारे कृषि विज्ञान का किसानों को लाभ जैसे मुद्दे मुख्य रहे हैं।
कुल मिलाकर इस बार के तीनों नोबेल विजेताओं के शोधकार्यो को देखकर यह लगता है कि आने वाले समय में अर्थशास्त्रीय और सामाशास्त्रीय शोधकार्यों में प्रायोगिक पद्धति का चलन बढ़ जाएगा। इसी के साथ सिर्फ बाज़ार केन्द्रित विषयों की जगह अर्थशास्त्र के शोधार्थी अब सामाजिक सरोकार और मानव विकास के विषयों पर भी शोध अध्ययन के लिए ज्यादा प्रेरित होते देखे जा सकते हैं।