दिवाली के बाद दिल्ली-एनसीआर का वायु गुणवत्ता सूचकांक अब (एक्यूआई) 500 के अंक तक पहुंच गया है जो इस पैमाने का सबसे ज्यादा खतरनाक स्तर है। स्थिति पर काबू पाने के लिए सरकार ने स्वास्थ्य आपातकाल घोषित कर कई कदम उठाने की घोषणा की है।
पटाखों, पराली, वाहनों, निर्माण कार्यों, उद्योगों के धुएं और धूल से स्मॉग की एक चादर आसमान पर छा गई है। गिरते तापमान, बढ़ती आद्रता और मन्द हवाओं के कारण हालात और बिगड़ गए और पूरा उत्तर भारत एक गैस चैम्बर बन गया है।
अमेरिका की अंतरिक्ष एजेंसी ‘नासा’ के अनुसार पंजाब-हरियाणा में पराली जलाने की घटनाएं काफी तेजी से बढ़ी हैं। दिल्ली में 4 से 15 नवंबर के बीच दिल्ली में ऑड-ईवन की वाहन व्यवस्था भी लागू हो गई है। अक्टूबर-नवंबर में धान की फसल की कटाई के साथ ही पंजाब और हरियाणा में फसल के अवशेष (पराली) जलाने से वायु प्रदूषण बहुत अधिक बढ़ जाता है। परन्तु हर साल इस वक्त होने वाले प्रदूषण के लिए केवल पराली जलाना ही जिम्मेदार नहीं है।
कुछ सालों में पराली जलाने की घटनाओं में आई कमी
आईआईटी, कानपुर के एक अध्ययन के अनुसार इन महीनों में दिल्ली के प्रदूषण में अधिकतम 25 प्रतिशत हिस्सा ही पराली जलाने के कारण होता है। राजधानी दिल्ली व एनसीआर का स्थानीय प्रदूषण भी बहुत ज्यादा होता है। पिछले कुछ सालों में पराली जलाने की घटनाओं में भारी कमी आई है।
वर्ष 2018 में पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में लगभग 108,000 पराली जलाने की घटनाएं सामने आईं जो 2016 के मुकाबले लगभग आधी थी।
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प्रदूषण का आंकलन करने वाली सरकारी संस्था ‘सफर’ के अनुसार इस साल दिल्ली के वायु प्रदूषण में पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण की हिस्सेदारी अधिकतम 46 प्रतिशत पर रही, जो दिवाली से पहले सामान्यतः 15 प्रतिशत से नीचे थी। यानी दिल्ली में इस वर्ष अब तक औसतन बाकी 70 प्रतिशत से ज्यादा प्रदूषण स्थानीय कारकों की वजह से हुआ है।
किसान स्वयं भी पराली जलाने के दुष्परिणाम जानते हैं
पराली की समस्या का आखिर उचित हल क्या है और क्या इसे जलाने के लिए केवल किसान ज़िम्मेदार हैं? कृषि एक आर्थिक गतिविधि है। लाभ-हानि किसान के निर्णय को प्रभावित करते हैं। किसान स्वयं भी पराली जलाने के दुष्परिणाम जानते हैं और इनके प्रति सचेत हो रहे हैं।
इस साल धान की एमएसपी 1815 रुपये प्रति क्विंटल घोषित की गई है, जबकि अन्य धान उत्पादक एशियाई देशों जैसे बांग्लादेश, चीन, फिलीपींस से लेकर थाईलैंड तक में यह भारतीय रुपये में 2500 से लेकर 5500 रुपये प्रति क्विंटल है।
पराली जलाने वाले प्रदेशों पंजाब और हरियाणा में एक तो मज़दूरी महंगी है और दूसरे धान की कटाई के वक्त पर्याप्त संख्या में मज़दूर उपलब्ध भी नहीं हो पाते। दरअसल मनरेगा जैसी योजनाओं के चलते किसानों को सस्ते मज़दूर नहीं मिलते। पंजाब और हरियाणा में पहले बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से मज़दूर आया करते थे परन्तु अब स्थानीय स्तर पर अपने राज्यों में ही मनरेगा के माध्यम से मज़दूरी मिलने के चलते कम संख्या में ही ये पलायन करते हैं।
एक साथ मज़दूर मिलने भी संभव नहीं होते
पंजाब हरियाणा में धान की रोपाई पर भी कानून मध्य जून तक प्रतिबंध होता है। एक साथ रोपाई के कारण पकने के बाद सारी फसल एक साथ ही कटाई के लिए मध्य अक्टूबर के आसपास तैयार हो जाती है। इस कारण एक साथ इतने मज़दूर मिलने भी संभव नहीं होते।
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किसानों को अक्टूबर में खेत खाली करने की जल्दी भी रहती है क्योंकि उन्हें अपनी रबी की फसल आलू, मटर, सरसों, गेँहू आदि की बुवाई के लिए भी खेत तैयार करने के लिए बहुत कम समय मिलता है। मशीन से कटाई तेज़ भी होती है और ज्यादा महंगी भी नहीं पड़ती परन्तु इसमें डीज़ल के प्रयोग से प्रदूषण ज़रूर होता है।
मशीन से कटाई के बाद पराली जलाने से केवल प्रदूषण ही नहीं होता बल्कि ज़मीन से नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, सल्फर, पोटैशियम जैसे पोषक तत्वों और ज़मीन की उर्वरता का भी ह्रास होता है। इस कारण अगली फसल में और ज़्यादा मात्रा में रासायनिक खादों का प्रयोग करना पड़ता है। इससे देश पर खाद सब्सिडी का बोझ भी बढ़ता है और किसानों की लागत भी।
धरती का तापमान भी बढ़ता है
चूंकि खाद का हम बड़ी मात्रा में आयात करते हैं तो इससे हमारा व्यापार घाटा भी बढ़ता जिसके अपने अलग नुकसान हैं। पराली जलाने से निकलने वाली कार्बनडाइऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड व अन्य ज़हरीली गैसों से स्वास्थ्य का नुकसान तो होता ही है, धरती का तापमान भी बढ़ता है जिसके बहुत से अन्य गंभीर दुष्परिणाम होते हैं।
आग में कृषि में सहायक केंचुए, अन्य सूक्ष्म जीव भी नष्ट हो जाते हैं। इससे भविष्य में फसलों की पैदावार बड़ी मात्रा में घट सकती है और देश में खाद्य संकट खड़ा हो सकता है।
पराली से बिजली बनाने या उसका कोई अन्य प्रयोग करने वाले सुझाव भी सीधे या परोक्ष रूप से प्रदूषण को ही बढ़ाते हैं। मशीनों से पराली प्रबंधन के लिए जो उपाय सुझाये गये हैं उनकी अपनी समस्यायें भी हैं। इसके लिए प्रचलित हैप्पी सीडर व अन्य मशीनों के प्रयोग के लिये 50% से 80% सब्सिडी उपलब्ध कराई जा रही है। केन्द्र सरकार ने 2018-20 में दो साल में इस विषय में 1152 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान किया है।
मशीन चलाने में भी प्रदूषण
मशीन से खेत काटने और बाद में हैप्पी सीडर या एसएमएस (पराली प्रबंधन प्रणाली) मशीन को चलाने में भी तो डीज़ल का ही प्रयोग होता है जिससे किसान का ख़र्चा तो बढ़ता ही है, प्रदूषण भी बढ़ता है। किसानों का मशीनों से पराली निस्तारण में कुल मिलाकर लगभग 10 हज़ार रुपये प्रति हेक्टेयर का खर्चा आता है। इस खर्च को वहन करने की ना तो किसान की क्षमता है और ना ही उसे इसमें कोई लाभ दिखाई देता है।
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने धान की कई नई उन्नत प्रजातियां विकसित की हैं जो ना केवल अन्य प्रचलित प्रजातियों से ज्यादा उत्पादन देती हैं, बल्कि ये कम पानी, कम समय में तैयार हो जाती हैं और उनमें कीटों या बीमारियों का प्रकोप भी कम होता है। इन प्रजातियों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है क्योंकि इनके प्रयोग से अगली फसल की तैयारी के लिए किसान को ज़्यादा समय मिलेगा।
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देश में अब गेहूं और चावल का मांग से ज्यादा उत्पादन हो रहा है जिससे गोदाम भरे पड़े हैं। इन दोनों फसलें में बहुत अधिक पानी का इस्तेमाल भी होता है जिससे भू-जल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है। अब हमें मोटे अनाज, दलहन और तिलहन की फसलों का रकबा बढ़ाना होगा। इसके लिए इन फसलों की एमएसपी को बढ़ाना होगा और इनकी खरीद सुनिश्चित करनी होगी ताकि किसान गेहूं और धान के चक्र से निकल सकें।
और कहीं नहीं जलाई जाती पराली
पंजाब और हरियाणा को छोड़कर देश भर में धान की पराली कहीं भी नहीं जलाई जाती। पश्चिम उत्तर प्रदेश में तो अधिकांश धान हाथ से काटा जाता है और फिर हाथ से ही झाड़ कर निकाला जाता है। हाथ से काटने और झाड़ने में एक तो कोई प्रदूषण नहीं होता, डीज़ल का खर्चा बचता है और दूसरे ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरों को खूब रोजगार भी मिलता है।
अब धान झाड़ने के बाद पराली के पूले- छोटे छोटे गट्ठर- बना लिए जाते हैं। धान की कुछ प्रजातियों की पराली तो कुट्टी के रूप में काटकर सारी सर्दी पशुओं के हरे चारे में मिलाकर उन्हें खिलाई जाती है जिसे पशु खूब चाव से खाते हैं। इसको पशु दूध और गोबर में परिवर्तित कर देते हैं। इस प्रक्रिया में कोई प्रदूषण नहीं होता।
दूध पीने व अन्य खाद्य पदार्थों में काम आता है, और गोबर की बढ़िया जैविक खाद बन जाती है जिससे रासायनिक खाद कम इस्तेमाल करना पड़ता है, किसान का खर्चा बचता है और मजदूरों को इस जैविक खाद को खेत तक ले जाने और खेत में फैलाने का काम भी मिलता है।
पशुओं के लिए आता है काम
जिस प्रजाति को पशु खाना पसन्द नहीं करते उसकी पराली को काटकर सर्द रातों में पशुओं के नीचे सूखा बिछोना बनाने के काम में लिया जाता है। इससे पशुओं को रात में सर्दी नहीं लगती और रात भर उनके नीचे सूखा रहता है, जिससे वे चैन से सोते हैं, ज्यादा स्वस्थ रहते हैं और दूध भी ज्यादा देते हैं।
सुबह को पराली, गोबर और मूत्र के इस मिश्रण को इकट्ठा कर किसान कूड़ी पर फेंक देते हैं जहाँ कुछ माह बाद इसका अच्छा जैविक खाद बन जाता है। तो इस प्रकार बिना किसी प्रदूषण के पराली का पूरा आर्थिक प्रयोग हो जाता है।
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इस तरह धान की पराली का प्रबंधन, इस्तेमाल और निस्तारण बहुत ही सरल, जैविक और प्रदूषण रहित तरीके से हो सकता है। इसके लिए सरकार धान की एमएसपी अपने वायदे के अनुसार कृषि लागत मूल्य आयोग द्वारा निर्धारित सी2 लागत के डेढ़ गुने के आधार पर घोषित करे, दूसरा धान की कटाई और झड़ाई में लगे मज़दूरों को मनरेगा के माध्यम से सरकार अपनी तरफ से भुगतान करे।
तो किसान के लिए कैसे संभव है?
छत्तीसगढ़ सरकार ने पिछले साल धान पर 300 रुपये प्रति क्विंटल का बोनस दिया था, तो पंजाब और हरियाणा की सरकारें भी केन्द्रीय सहयोग से धान की हाथ से कटाई के लिए 300 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी के ऊपर अलग से दे सकती हैं।
एक तरफ हम किसानों को बाकि देशों के मुकाबले धान की सबसे कम एमएसपी दे रहे हैं, दूसरी तरफ हम चाहते हैं कि किसान अपने खर्चे पर पराली प्रबंधन करे तो ऐसा कैसे संभव है? खाद सब्सिडी, व्यापार घाटे, प्रदूषण, बढ़ते तापमान, स्वास्थ्य समस्याओं के रूप में बड़ी कीमत तो देश चुका ही रहा है।
यदि इस कीमत का कुछ हिस्सा ही सीधे किसानों को धान की उचित एमएसपी, फसल की कटाई के लिए मनरेगा पोषित मज़दूरों या प्रति हेक्टेयर सब्सिडी के रूप में दे दिया जाए तो कहीं कम कीमत चुकाकर हम पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण से बच सकेंगे और बेहतर पर्यावरण संरक्षण कर सकेंगे।
(लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं)