वल्लभाचार्य पांडेय
विश्वव्यापी कोरोना संक्रमण के कारण हुए लॉकडाउन का प्रभाव देश में किसानो पर बुरी तरह पड़ा है। इससे आने वाले समय में देश की कृषि आर्थिकी ध्वस्त हो सकती है। खेती किसानी के तमाम काम प्रतिकूल तरह से प्रभावित हुए है और किसान तथा कृषि पर आधारित अन्य गतिविधियों में लगे लोगों के समक्ष गम्भीर संकट खड़ा हो गया है। इन परिस्थितयों में सरकार को किसानो की समस्याओं को देखते हुए प्रभावकारी राहत पॅकेज की घोषणा करनी चाहिए। अभी तक के किसानो के लिए घोषित किये गये उपाय जमीनी स्तर पर राहत देने के लिए पर्याप्त नही हैं।
जहाँ एक तरफ गेहूं, जौ आदि की कटाई और मड़ाई का काम अटका हुआ है तो दूसरी तरफ आलू, प्याज, लहसुन आदि के भण्डारण का। जायद की खेती पिछड़ती जा रही है। उरद, मक्का, पशु चारा और सब्जियों की बुआई के लिए बीज, खाद और आवश्यक रसायन नही मिल पा रहा है।
यद्यपि सरकार ने बीज, खाद और रसायन की दुकानों को खोलने की सुविधा दी हुई है, लेकिन गाँव गिरांव के किसान न तो उसे खरीदने शहर तक पहुंच पा रहे हैं न ही शहरों के दुकानदारों को सभी वस्तुओं की आपूर्ति ही हो पा रही है। जो खाद बीज रसायन आदि की दुकाने ग्रामीण क्षेत्रों में हैं उन पर लॉकडाउन से पहले भरपूर स्टॉक नहीं था और अब नया माल मिल नही पा रहा है। ऐसे में खेती किसानी का काम लगभग ठप पड़ा हुआ है। बीज खाद और रसायन की बिक्री पर मूल्य नियत्रण की कोई प्रभावी नीति न होने के कारण इन वस्तुओं की कीमत अनाप शनाप वसूली जा रही है।
कुछ इलाकों में सरसों की फसल तो जैसे तैसे खलिहान या घर तक पहुंच गयी लेकिन गेहूं की कटाई का काम अभी प्रारम्भ भी नही हो पाया है। क्योंकि इस कार्य के लिए हार्वेस्टर और कम्पाइन वाले प्रायः पंजाब या हरियाणा से सीजन प्राम्भ होने पर आया करते थे जो अभी तक नही आ पाए हैं। जबकि कुछ स्थानीय लोग भी हार्वेस्टर और क्म्पाइन रखते हैं लेकिन उसको चलने वाले ड्राइवर और ऑपरेटर बाहर से ही आते हैं जो इस बार आ नहीं आ पाए हैं। शहरों से हुए पलायन के कृषि मजदूरों की उपलब्धता गाँवो में हुयी है लेकिन जहाँ बड़ी खेती है वहां उनके द्वारा कटाई के कार्य को समय से पूरा कर पाना कठिन से लग रहा है। एक गाँव से दूरे गाँव तक मजदूरों का खेत कटाई के लिए पहुंच पाना भी दुष्कर हो रहा है। उस पर मौसम का बदलता तेवर किसानो के माथे पर चिंता की लकीर खींच दे रहा है। जिन गाँवो में स्थानीय मजदूर हैं भी वे कोरोना संक्रमण के भय से खेतो में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे है। गेहूं की कटाई, दंवाई उसके बाद अनाज और भूसे का भण्डारण कर पाना किसानों के समक्ष एक चुनौती बन गया है।
सब्जियों के उत्पादक दोहरी मार झेल रहे हैैं। अगर वाराणसी जिले और आस पास का आंकड़ा लें तो पञ्चकोशी, राजातालाब, सैदपुर, बड़ा गाँव जैसी सब्जी मंडियों में बाहर के जिलों से आने वाले व्यापारी लगभग नगण्य हैं अतः सब्जियों की मांग केवल स्थानीय होकर रह गयी है, ऐसे में उत्पादक को कोई बाजार नही मिल रहा है, कच्चे प्रयोग में लायी जाने वाली सब्जियां जैसे खीरा, ककडी, मूली, टमाटर, गाजर, धनिया पत्ता आदि कोरोना संक्रमण के भय से लोग लेने से बच रहे हैैं। सरकारी विभागों द्वारा इस सम्बन्ध में जारी विज्ञापनों ने और भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है। इन सब्जियों बुवाई जनवरी-फरवरी माह में ही हो गयी थी, अब उत्पादन तेजी से हो रहा है. फसल को तैयार करने में किसान की सारी पूँजी लग चुकी है। खेत जुताई से लेकर, बीज, खाद, रसायन, सिंचाई आदि में निवेश करने के बाद जब फसल की लागत भी न निकले तो छोटे उत्पादकों के समक्ष संकट आना स्वाभाविक है। नतीजा यह है कि बहुत से में लोग सब्जी को उखाड़ कर खेत खाली कर रहे हैं जिससे कम से कम खेत की उर्वरता बची रहे। इसकी आय से आगे जायद की खेती की तैयारी होनी थी जो अब संशय में आ गयी है। किसानो के पास और लगाने के लिए पूँजी नही बची है। इस स्थिति में गन्ना के किसान भी बेबस महसूस कर रहे है। किसान सम्मान योजना की क़िस्त इन नुकसानों की भरपाई कर पाने में नाकाम साबित होगी।
जो किसान भूमिहीन हैं और अधिया, बटाई या लगान पर भूमि लेकर खेती करते हैं उनके सामने और गम्भीर संकट है क्योंकि पूरी पूँजी लगाने के बाद भी उनका हाथ खाली ही है और अगर कोई सरकारी राहत योजना आती भी है उसका लाभ उन्हें मिलने वाला नहीं है। क्योंकि वह लाभ तो भूमि स्वामी को मिलेगा जिसका नाम भू अभिलेखों में होगा, उस पर वास्तविक खेती करने वाले को नहीं।
देश व्यापी लॉक डाउन से कृषि सहायक उद्योगों जैसे पशु पालन, मुर्गी पालन आदि में लगे लोगों का भी बुरा हाल है। पोल्ट्री फार्म तो बर्बादी की कगार पर पहुंच गये है। प्रायः चैत्र की नवरात्रि के बाद मुर्गों की मांग बढ़ती इस कारण पोल्ट्री फार्म वाले एक महीने पहले से बड़ी लाट की तैयारी करते हैं। चूजों पर सभी प्रकार के खर्च करने के बाद उत्पादन और बिक्री के स्तर तक पहुंचने से पहले ही लॉक डाउन हो जाने से मीट के लिये मुर्गे का बाजार पूरा चौपट हो गया और पोल्ट्री वालों की बड़ी पूँजी फंस गयी। कुछ स्थानों पर तो मुर्गो और चूजो को खुला खेत में छोड़ दिए जाने की भी खबरें आयीं। पोल्ट्री फार्म उद्योग को इस अचानक आयी मंदी से उबरने में कई महीने लग जायेंगे।
इसी प्रकार पशु पालकों की भी स्थिति चिंता जनक है। दूध के उत्पादन से जुड़े लाखों परिवारों के समक्ष गम्भीर संकट आ खड़ा हुआ है। मिठाई की दुकानों, होटल आदि में होने वाली दूध, खोया, पनीर, छेना आदि की खपत लगभग शून्य हो गयी, इस प्रकार दूध की खपत घट कर 40 प्रतिशत पर आ गयी, प्रति वर्ष गर्मी में दूध का खुला बाजार 50 रूपये लीटर हुआ करता था जो इस समय 15 रूपये पर आ गया है जिससे लागत भी नही निकल पा रही है। उधर भूसे की आपूर्ति न होने के कारण इसका दर 1500 रूपये कुंतल तक चला गया है, वह भी कहीं कहीं मिल नही पा रहा है. चूनी, चोकर, खली जैसी वस्तुओं की भी बाजार में आपूर्ति कम हो जाने से मूल्य कई गुने तक बढ़ा है जिसका प्रतिकूल असर पशु पालकों पर पड़ा है।
इन वस्तुओं के मूल्य नियंत्रण के लिए किये जाने वाले सरकारी प्रयासों का जमीनी स्तर पर अभी तक कोई प्रभाव नही दिखाई पड़ा है। खूंटे पर बंधे जानवर को किसी भी हाल में चारा तो देना ही होगा यह चिंता प्रायः सभी पशुपालको को खाए जा रही है. इसी प्रकार मत्स्यपालन का कार्य करने वाले हों या फूल उत्पादन से जुड़े लोग सभी इस लॉक डाउन से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, जिससे उबर पाना आने वाले समय में एक बड़ी चुनौती होगी।
कुल मिला कर कोरोना संक्रमण के संकट के दौर में आज देश का अन्नदाता तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए तमाम परेशानियों को झेल रहा है और संकट काल बीतने के बाद देश को आर्थिक मंदी के दौर से उबारने में अपने आपको समर्पित करने को तत्पर है। ऐसे में सरकार को भी किसानो के प्रति सहृदय नजरिया रखते हुए कुछ फौरी रियायतों की घोषणा करनी होगी जिसे उनका मनोबल न टूटे। किसान सम्मान राशि की नियमित क़िस्त खाते में हस्तांतरित किया जाना पर्याप्त नही होगा। खाद, बीज, रसायन, मड़ाई, जुताई, सिंचाई, किसान क्रेडिट कार्ड आदि पर कुछ ठोस राहत देने की पहल होनी चाहिये साथ ही भूमिहीन किसान और कृषि मजदूरों के लिए भी तत्काल प्रभावकारी राहत योजना की जरूरत है।
(वल्लभाचार्य पाण्डेय, सामाजिक कार्यकर्ता)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)