“सर, आप कब रिटायर हुए?” पहले एक पल को लगा कि मुझे 15 साल कह देना चाहिए, लेकिन मैंने खुद को रोक लिया और सवाल को टाल दिया।
यह स्थानीय रेंज फॉरेस्ट ऑफिसर (RFO) थे, जिन्होंने मुझसे यह सवाल किया था। शायद वह इस बात से हैरान थे कि एक रिटायर्ड व्यक्ति कैसे इतनी आसानी से पहाड़ी किले पर चढ़ और उतर सकता है। जबकि उन्होंने खुद को काफी पतला-दुबला बताते हुए पहले इस पर न चढ़ने का बहाना बनाया था। उनके इस सवाल में प्रशंसा के साथ किया गया कटाक्ष साफ महसूस हो रहा था।
रेंजर साहब के हावभाव से स्पष्ट था कि वह मध्य प्रदेश के सीहोर जिले में अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले एक लंबे समय से परित्यक्त और शायद ही कभी देखे गए गोंड रानी किले (गिन्नौरगढ़) का दौरा करने के लिए एक सेवानिवृत्त अधिकारी के साथ जाने के लिए उत्साहित नहीं थे।
व्यक्तिगत रूप से यह घड़ी को कुछ दशकों पीछे मोड़ने जैसा था। देलाबाड़ी (किले के सबसे नज़दीकी गांव) की मेरी पिछली यात्रा की यादें मेरे लिए एक बॉलीवुड गाने (मेरे ख्वाबों में जो आए…) से जुड़ी थीं। लेकिन इन यादों से जुड़ा किला अभी तक उस फिल्म यानी डीडीएलजे (1995 में आई दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे मूवी) जैसा लोकप्रिय नहीं हो पाया है। इस फिल्म का गाना स्कूली बच्चों के लिए आयोजित एक नेचर कैंप में एक प्रतिभागी ने गाया गया था। इस कैंप को हमने ही वहां आयोजित किया था।
मेरे जहन में अपनी दो दशक पुरानी यात्रा के बारे में एक धुंधली सी याद थी कि किले के नजदीक जाने के लिए जंगल से होकर एक रास्ता जा रहा था, जिस पर गाड़ियां चल सकती हैं। मुझे आश्चर्य हुआ कि आरएफओ ने घुमावदार चढ़ाई की बजाय इस पर चलना क्यों नहीं पसंद किया?
जल्द ही मुझे इसका कारण समझ आ गया। गोंड रानी किले की हमारी यात्रा एक छुट्टी वाले दिन होनी थी। और इसी दिन एक स्थानीय त्योहार भी था। इसलिए डीएफओ (विभागीय वन अधिकारी) की तरफ से मिला यह काम रेंजर साहब को पसंद नहीं आया। तो यह मानते हुए कि मैं एक मुश्किल चढ़ाई नहीं कर पाऊंगा और फिर इस कारण यह यात्रा रद्द हो जाएगी और वह जल्द ही इस काम से छूट जाएंगे, उन्होंने गाड़ी से आने की बजाय मुश्किल चढ़ाई का रास्ता चुना।
माना कि यह मेरी गलती थी कि मैंने किसी त्योहार और छुट्टी के दिन अपने इस सफर की योजना बनाई थी और इसका एहसास होने पर मैंने तुरंत उनसे माफ़ी भी मांग ली थी।
गिन्नौरगढ़ पहाड़ी किला और गोंड शासक
15वीं शताब्दी से लेकर 18 वीं शताब्दी तक लगभग 300 सालों तक, मध्य भारत (वर्तमान मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के बड़े हिस्से) में मजबूत और शक्तिशाली गोंड (स्थानीय जनजाति) पर कम से कम दो प्रसिद्ध योद्धा रानियों का राज हुआ करता था। इनमें से एक रानी दुर्गावती (1524-1564) थीं दूसरी रानी कमलापति (18 वीं शताब्दी) थीं।
गोंडों के शासन में मुगल और मराठा शक्ति के उदय के साथ गिरावट आनी शुरू हो गई थी। और अंततः ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने देश में अपने कदम रखने के बाद इसके एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया।
भोपाल से लगभग 60 किमी दूर ‘गिन्नौरगढ़’ कभी गोंडों का गढ़ हुआ करता था, जिस पर रानी कमलापति का शासन चला करते था। उनके निधन के बाद भोपाल के संस्थापक नवाब दोस्त मोहम्मद ने कब्जा कर लिया था। भोपाल के उदय के साथ, गिन्नौरगढ़ ने अपनी प्रमुख स्थिति खो दी और जल्द ही एक इतिहास बन गया।
आज यह जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है, अपने पूर्व गौरव के कुछ हिस्सों को बनाए रखने के लिए कठिन प्रयास कर रहा है। यह किला लगभग 1,100 मीटर x 250 मीटर की अलग-थलग पहाड़ी पर हरे-भरे जंगलों के बीच बसा है। अब यह जंगल रातापानी अभयारण्य हो गया है। लेकिन खंडहर होने के बाद भी यह उतना ही मनोरम दिखता है. इसका वास्तुशिल्प आपको चकित कर देगा।
यह और इसकी तरह के कई किले पहाड़ियों के ऊपर अपनी जल संरचनाओं के लिए जाने जाते हैं। इनमें से कुछ गिन्नौरगढ़ में भी मौजूद हैं।
बावड़ी
इस बार हमारा बड़ा मकसद प्रसिद्ध किले और उसके आसपास मौजूद जल संरचनाओं की स्थिति को देखना था जाने-माने हाइड्रो-जियोलॉजिस्ट और दोस्त डॉ. एके विश्वकर्मा हमारी टीम में शामिल थे।
पहाड़ी के ऊपर कम से कम नौ अलग-अलग बावड़ियाँ हैं, जिनमें से कुछ तलहटी में फैली हुई हैं। हालांकि इनमें से अधिकांश और अन्य जल संरचनाएं तेजी से अपना स्वरूप खोती जा रही हैं, लेकिन उनमें से कम से कम दो ऐसी हैं जिन्हें आसानी से बहाल किया जा सकता है।
हमारी यात्रा (अक्टूबर) के महीने के दौरान इन बावड़ियों में पर्याप्त पानी (हालांकि गंदा) था। यह दर्शाता है कि उनके संबंधित जलग्रहण क्षेत्र और जलभृत स्थिर हैं।
कभी गौरवशाली रहीं इन कलाकृतियों को कोई क्यों बहाल करना चाहेगा? इसका एक वजह यह हो सकती है कि उन्हें देलाबारी में वन शिविर में आने वाले पर्यटकों के लिए दिलचस्प ऐतिहासिक आकर्षण का हिस्सा बनाया जा सकता है।
दूसरी वजह, भोपाल स्थित स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर (एसपीए) के छात्रों को पुराने दिनों में प्रचलित वास्तुकला और जल योजना दोनों के दृष्टिकोण से यहां दिलचस्प अध्ययन सामग्री मिलेगी।
देलाबाड़ी बेतवा नदी (गंगा बेसिन) के संस्थापक जलग्रहण क्षेत्र और नर्मदा घाटी से सटे नदी की शुरुआत के बीच जल विभाजक पर स्थित है। गिन्नौरगढ़ किले की मेजबानी करने वाली पहाड़ी विंध्य प्रणाली का एक बाहरी हिस्सा है।
शिव परिवार
जैसे ही मैं अपने गाड़ी के पास एक धारा के पार जल संरचनाओं में से एक के पास खड़ा हुआ, एक भगवा ध्वज ने मेरा ध्यान खींचा। करीब से देखने पर एक डबल डेकर बलुआ पत्थर की चट्टान पर शिव परिवार (भगवान शिव, पार्वती, गणेश और शायद कार्तिक भी) की एक बहुत ही दिलचस्प नक्काशी दिखाई दी। इसे कैसे, कब और क्यों बनाया गया, इसका पता नहीं लगाया जा सका। हालांकि यह तय था कि यह नक्काशी कोई बहुत पुरानी कला नहीं थी। लेकिन सिर्फ एक विशेषज्ञ ही निश्चित रूप से इसके बारे में बता सकता है।
जब मैं वापसी में जाते हुए गाड़ी चला रहा था तो एक सोच रह-रह कर मेरे दिमाग आती रही कि ऐतिहासिक, भूगर्भीय और सांस्कृतिक महत्व के ऐसे न जाने कितने अन्य स्थल हमारे जंगलों के भीतर उपेक्षित पड़े हैं?
यह काम भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) और राज्य पुरातत्व विभाग का है लेकिन उनके सीमित वित्तीय और मानव संसाधन पहले से ही बड़ी संख्या में गैर वानिकी स्थलों पर फैले हुए हैं।
भाग्य से, मध्य प्रदेश वन विभाग ने एक इको-टूरिज्म डेवलपमेंट बोर्ड का गठन किया है और इको-टूरिज्म को बढ़ावा देने के अलावा इसका एक काम हमारे जंगलों के भीतर स्थित ऐसे स्थलों और कलाकृतियों का मानचित्रण, पुनर्स्थापना (विशेषज्ञ सहायता से) और रखरखाव करना भी हो सकता है। और देश के अन्य वानिकी प्रतिष्ठान इसका अनुसरण कर सकते हैं
मनोज मिश्रा एक पूर्व वन अधिकारी और नागरिक समाज संघ ‘यमुना जिए अभियान’ के संयोजक हैं। उनके ये विचार व्यक्तिगत हैं।