जब कत्थे और गुलकंद की महक छोड़कर मौसिक़ी के मंच से चल दिए उस्ताद राशिद ख़ान

इंदौर की यह शाम मौसिक़ी की यह उन शामों में से थी जो मुझे याद रह जाने वाली थी। मैं दर्शक दीर्घा में सिमट आया। सुरों को जानने वाले कुछ बेहद जहीन और महफिलों की शामों को खराब करने के लिए आने वाले कुछ बदमिज़ाज श्रोताओं के बीच मैंने अपने लिए एक ऐसा कोना तलाशा जहाँ मैं किसी रद्दकरदा सामान की तरह इत्मीनान से उन्हें सुनता रहूँ और कोई मेरी सुनवाई को न छेड़े।
Ustad rashid khan

जब मैं उनके पास पहुँचा तो उनसे आती कत्थे और गुलकंद की महक से भर उठा। बैंगनी रंग का कुर्ता और मुँह में बचा हुआ पान। साँवले रंग के चेहरे पर पसीने की हल्की बूंदें देखकर में कुछ क्षण यही सोचता रहा कि यह वही शख्स है, जिसे बहुत पहले जान लिया जाना चाहिए था, लेकिन पक्की गायकी का यह दुर्भाग्य है कि उन्हें ‘आओगे जब तुम ओ साजना’ के बाद ही जाना जा रहा है।

जनवरी 2020 की एक शाम में इंदौर के ‘लाभ मंडपम’ के ग्रीन रूम में मैं करीब 20 मिनट तक उस्ताद राशिद ख़ान का इंतज़ार करता रहा।

सेल्फी और ऑटोग्राफ की होड़ से जब वे कुछ मुक्त हुए तो मैं उनके पास पहुँच गया। मैंने कहा- बस दो मिनट आपसे बात करूँगा। उन्होंने कहा- क्यों नहीं जरूर… !

मैंने दो ही सवाल किए थे; लेकिन उन्होंने दो जवाबों में इतनी सारी बातें कह डाली कि मेरी न्यूज़ की कॉपी का असला मुझे मिल गया था। मुझे इतनी ही बात करनी थी उनसे। वैसे भी ग्रीन रूम से उन्हें सीधे मंच पर जाना था। सुपारियों को मुँह में समेटे-दबाए पान के बीड़े से भरी एक कम खुली मुस्कुराहट देते हुए आगे बढ़ गए। चलते हुए अपना सीधा हाथ अपने माथे तक ले गए। ठीक उसी तरह जैसे उस्ताद लोग सलाम करते हैं। मैं भूल गया कि मुझे वो सब डायरी में नोट करना था जो उन्होंने कहा था। उनके मंच की तरफ जाते ही मेरे पास कत्थे और गुलकंद की गंध रह गई। पान की गंध से भरा एक आलाप मेरे पास छूट गया।

इंदौर की यह शाम मौसिक़ी की यह उन शामों में से थी जो मुझे याद रह जाने वाली थी। मैं दर्शक दीर्घा में सिमट आया। सुरों को जानने वाले कुछ बेहद जहीन और महफिलों की शामों को खराब करने के लिए आने वाले कुछ बदमिज़ाज श्रोताओं के बीच मैंने अपने लिए एक ऐसा कोना तलाशा जहाँ मैं किसी रद्दकरदा सामान की तरह इत्मीनान से उन्हें सुनता रहूँ और कोई मेरी सुनवाई को न छेड़े।

आँखें इधर-उधर फेरने पर महसूस हुआ कि ज़्यादातर मौसिकी पसंद उन्हें ‘जब वी मेट’ के ‘आओगे जब तुम साजना’ सुनने के लिए आए थे। वे लाइट मूड के लिए आए थे। जो पक्की गायकी के मुरीद थे, उन्हें तो उस्ताद के आगाज में ही नेमत सी मिल गई। उस्ताद राशिद खान गला साफ़ करने में भी मज़ा दे रहे थे। करीब 10 मिनट तक उन्होंने गला साफ़ किया। मैंने भी गले की किरचें साफ कीं।

कुछ ही देर में बगैर किसी लाग लपेट के उन्होंने राग जोगकौंस शुरू किया। धीमे-धीमे क्लासिकल गायन की आँच महसूस होने लगी। उस्ताद राशिद खान के ठीक पीछे बैठे उनके बेटे अरमान की आवाज़ भी खान साहब की आवाज़ का पीछा कर रही थी, अरमान के लंबे और खरज भरे अलाप सुंदर थे। भले उन्हें रियाज़ के तौर पर राशिद खान ने पास बिठाया था।

मुझे एकआध बार लगा कि जैसे गाते हुए राशिद खान का मुँह पंडित भीम सेन जोशी की तरह नज़र आने लगा है। संभवत: सारे कलाकार अपनी इबादत में ऐसे ही नज़र आते हों।

तकरीबन 40 मिनट के राग जोग कौंस के बाद मूड को भाँप कर उस्ताद ने खुद ही कह दिया कि अब थोड़ा लाइट म्यूजिक की तरफ चलते हैं। सभी को लगा कि अब वे शायद ‘याद पिया की आए’ या ‘आओगे जब तुम साजना’ सुनाएँगे, लेकिन उन्होंने भजन ‘ऐ री सखी मोरे पिया घर आए’ गाया। इसके बाद भजन ‘आज राधा बृज को चली’ गाकर सभा को भक्ति संगीत में डुबो सा दिया। कुछ एक लोगों को छोड़कर संगत भी मौज में थी और श्रोता भी।

जिन्हें एहसास हो गया कि जब वी मेट नहीं गाएँगे, वे धीरे-धीरे बाहर सरकने लगे।

जो श्रोता फिल्मी सुनने आए थे, वे विलंबित को चूककर बाहर निकल गए। खाँ साहब अब कुछ ख्याल की तरफ लौटे। वैसे तो उस्ताद राशिद खान को खासतौर से हिन्दुस्तानी संगीत में ख्याल गायकी के लिए ही जाना जाता है। वे अपने नाना उस्ताद निसार हुसैन ख़ान की तरह विलंबित ख्याल में गाते थे। लेकिन बाद में माहौल के मुताबिक ठुमरी, भजन और तराने भी गाने लगे।

एक घंटे से ज़्यादा वक्त के बाद तकरीबन बुझ चुकी महफिल के बीच मैं अब उनके सवालों पर नज़र दौड़ा रहा था। मंच से उतरते ही राशिद खान को एक बार फिर से लोगों ने घेर लिया। मेरे पास धक्का-मुक्की के लिए कोई जगह नहीं थी। मैंने वहीं सभागार में बैठकर कॉपी लिखी।

मैंने उनके जवाबों को फिर से जेहन में सुना। रामपुर-सहसवान घराने की विरासत के सितारों में इज़ाफा करने वाले राशिद खान ने मेरे सवाल कि संगीत में कैसे आना हुआ का जवाब देते हुए बताया था कि बचपन में उनकी रुचि क्रिकेट खेलने में थी, लेकिन गजल और कुछ कलाकारों को सुनने के बाद वे बरबस ही संगीत में लौट आए। उन्होंने बताया था कि क्लासिकल के हैवी और उबाऊ रियाज उनके लिए बहुत बोझिल सा था— लेकिन बाद में धीरे-धीरे उन्हें इसमें रस आने लगा।

उत्तर प्रदेश के रामपुर-सहसवान के जिस घराने से उस्ताद आए थे उस घराने ने पूरी तरह से खुद को संगीत में झोंक दिया था। यह घराना उनके दादा उस्ताद इनायत हुसैन खाँ ने शुरू किया था। राशिद खुद गुलाम मुस्तफा खाँ के भतीजे थे। रामपुर-सहसवान की गायन शैली मध्यप्रदेश के ग्वालियर घराना शैली के काफी करीब मानी जाती है।

बहरहाल, उस्ताद राशिद खान को देश में ज़्यादातर तब जाना गया, जब उन्होंने इम्तियाज़ अली की ‘जब वी मेट’ में ‘ अँगना फूल खिलेंगे ‘ गाया। लेकिन पक्की गायकी में उस्ताद माने जाने वाले इस कलाकार ने हर महफिल की तरह इस महफिल में भी फिक्र नहीं की। उन्होंने वही गाया, जो उन्हें पसंद था। बगैर इस बात की फिक्र किए कि अँगना फूल खिलेंगे नहीं गाना एक जोखिम हो सकता है।

ज़ाहिर था- यह इस बात का स्टेटमेंट था कि उस्ताद राशिद ख़ान अंगना फूल खिलेंगे के अलावा बहुत कुछ थे। गायिकी का एक भरा पूरा घराना थे। शास्त्रीय संगीत में गायिकी की कई शैलियों का एक पूरा सधा हुआ राग थे। बहुत पॉपुलर न गाकर शायद उस्ताद राशिद ख़ान यह बताने के लिए आए थे- और बेहद चुपचाप तरीके से चले भी गए।

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