आजकल खाद्य पदार्थ और दवाइयों के पैकेट पर एक्सपायरी तारीख़ लिखी रहती है। इसका मतलब होता है उस तारीख़ के बाद प्रयोग वर्जित है, क्योंकि वह खाद्य पूरी तरह जहरीले पदार्थ मैं बदल चुका है। ऐसा एक दिन में नहीं होता, बल्कि बनने और पैकेजिंग के बाद धीरे-धीरे खाद्य संरक्षण केमिकल जहरीला बन जाता है। खाद्य पदार्थ और दवाइयाँ सड़ने के कारण जहरीली नहीं बनतीं, बल्कि उनको संरक्षित रखने के लिए जो प्रिजर्वेटिव डालें जाते हैं; उनके कारण जहरीलापन अधिक आता है, उनमें से कुछ मसालों में प्रयोग किए गए केमिकल्स के कारण विदेश में मसाले ही प्रतिबंधित कर दिए गए हैं।
गाँव में हजारों साल से चटनी, मुरब्बा, अचार बनते आए हैं, और गाँव के लोग खाते भी थे, लेकिन किसी को कैंसर नहीं होता था। गाँव में हज़ारों साल से भारत के लोग डली वाला नमक खाते थे, और कुछ तराई के इलाकों को छोड़कर किसी को घेंघा नहीं होता था। लेकिन नए जमाने में व्यापारिक बुद्धि लेकर कुछ लोगों ने देशी को नमक में आयोडीन की कमी से जोड़ा, तो पिसा हुआ नमक गाँव-गाँव तक पहुँच गया। गाँव की महिलाओं को डली वाले नमक की मात्रा भोजन में डालने का अनुमान तो था, लेकिन पाउडर नमक कितना डालना है, इसका अनुमान नहीं था। कहीं यही कारण तो नहीं कि देश में लोगों को रक्तचाप की बीमारी होती जा रही है। मधुमेह की बीमारियाँ मुख्य रूप से आहार और जीवन शैली का परिणाम है। वास्तव में कैंसर जैसी बीमारियों का खाद्य पदार्थों के प्रिजर्वेटिव और कुछ दवाइयों ने भारत को मधुमेह की राजधानी बना दिया है।
हमारा आहार देश की सनातन परंपराओं से बहुत अलग होता जा रहा है। आजकल जो भोजन करते हैं, चाहे फास्ट फूड के नाम से, या फिर अन्य विविध प्रिपरेशन के रूप में, वह सब आंतों के लिए बहुत हानिकारक है। अक्सर देखा जाता है कि लोगों में पेचिश फिर कोलाइटिस और अल्सर और अंत में कैंसर हो जाता है। पुराने समय में पेट की ऐसी बीमारियाँ कभी नहीं होती थी। इसका कारण था मोटे अनाज जिन में रफेज की कमी नहीं रहती, खाए जाते थे। आज के लोग फैशन में मैदा की चीजें खाते हैं ऊपर से रफेज की फंकी लगाते रहते हैं।
हमारे देश में भोजन को तीन प्रकार में बांटा गया है, पहला जो उत्तम भोजन होता है, उसे सात्विक और दूसरा जो दिखावे से भरा वह राजसी और काफी मसाले वाला होता है, उसे तामसी भोजन कहते थे। ताजा भोजन और किचन में ही पीसे गए मसाले यानी धनिया, मिर्च, हल्दी जो कुछ भी डालते थे, वह सब ताजे होते थे। आज की तारीख में जो मसाले पैकेटों में बिकते हैं, वह कब उगाए गए थे, और कितने दिन पहले पीसे और बनाए गए थे, इसका कुछ अता-पता नहीं रहता। पता केवल एक बात का रहता है कि यह जहरीले कब हो जाएँगे।
गाँव में पहले अचार, मुरब्बा आदि बनते तो थे, परन्तु उनमें प्रिजर्वेटिव के रूप में खाद्य पदार्थ ही डाले जाते थे, जैसे नमक, तेल, सिरका आदि। वह भी बहुत लंबे समय तक नहीं रखे जाते थे, क्योंकि वे सीजनल फल और सब्जियों पर आधारित होते थे, जो अगले सीजन तक चलते थे। भोजन तो जिस समय बनाया जाता था, उसी समय खा लिया जाता था। अब तो फ्रिज की सुविधा है, हम समझते हैं कि भोजन पकाने के बाद फ्रिज में रख दें, तो कई दिनों तक सुरक्षित रहेगा।
एक महत्वपूर्ण सवाल हर एक के दिमाग में आता होगा कि आखिर अंग्रेजी दवाइयाँ ही रिएक्शन क्यों करती है और आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक दवाइयाँ बहुत कम रिएक्शन करती हैं। एक बात जो अनेक लोगों से चर्चा करने के बाद निकल कर आई है, कि रासायनिक पदार्थ दो प्रकार के अणुओं से बने होते हैं, (दक्षिणावर्त) डेक्स्ट्रल और (वामावर्त) सिनिस्ट्रल। आयुर्वेदिक पद्धति में डेक्स्ट्रल और सिनिस्ट्रल को आइसोलेट नहीं किया जाता, यानी अलग-अलग नहीं करते हैं और प्राकृतिक रूप में ही प्रयोग में लाते हैं, यही कारण है कि प्रतिक्रिया नहीं होती है।
आयुर्वेदिक दवाइयों में अवलेह, भस्म आदि अनेक प्रकार के पदार्थ बनाए जाते हैं, जो लंबे समय तक सुरक्षित भी रहते हैं। इसी प्रकार होम्योपैथी में भी दवाइयाँ लंबे समय तक सुरक्षित रहती हैं। तो फिर आखिर क्या बात है कि एलोपैथी में ही दवाइयाँ अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रह पातीं।
बहुत दूर, यहाँ तक कि हजारों किलोमीटर की दूरी पर पाए जाने वाले मौसमी फल और सब्जियाँ जब देश के लोगों को चाहिए होगी, तो उन्हें ताज़ा हालत में तो नहीं उपलब्ध कराया जा सकता। मौसमी फल और सब्जियाँ जैसे रास्बेरी, ब्लूबेरी वह अमेरिका से यहाँ तक लाने में और उन्हें लंबे समय तक सीजन के बाद भी संरक्षित रखने में जिन रसायनों का प्रयोग किया जाता है, वह प्राकृतिक नहीं होते।
इसी तरह हमारे यहाँ पहाड़ों पर पाए जाने वाले फल मैदानी लोगों को मौसम के बाद भी मिलते रहे, यह लालच उन्हें प्रिजर्वेटिव खाने के लिए मजबूर करता है अन्यथा प्रिजर्वेटिव तो जहरीले होते ही हैं, जो अब तक सर्वविदित हो चुका है। हमारे देश में सिरका, नींबू का रस, नमक जैसी खाद्य पदार्थों का उपयोग संरक्षण के लिए होता रहा है। यह सब खाद्य पदार्थ ही है और इनकी एक सीमा है, सीजन के बाद साल भर तक तो सुरक्षित रखते हैं, लेकिन जो पैकेजिंग के बाद मसाले वर्षों-वर्षों तक संरक्षित किए जाते हैं, उनकी बात अलग है।
पुराने समय में हमारे देश के लोग दूर-दूर की यात्राएँ किया करते थे। मुख्य रूप से यह तीर्थ यात्राएँ होती थी और इनमें यात्री लोग सात्विक भोजन खाते थे, गाँव लौटकर पूरे गाँव को सात्विक भोजन की दावत दिया करते थे। इन यात्राओं में कुछ समय तक रुकने वाला भोजन जैसे सत्तू, चबेने और कुछ मिठाइयाँ साथ में ले जाते थे। धर्म स्थान पर प्रसाद ग्रहण करते थे। इसी तरह दैनिक जीवन में भी शुद्ध और सात्विक भोजन करने का रिवाज था। मौसम में होने वाले ताजे फल और सब्जियाँ और पिछली फसल का अनाज प्रयोग में लाया जाता था।
हमारे देश में साक्षरता और जागरूकता की कमी बहुत बड़ी बाधा है। अधिकांश दुकानदार अनपढ़ होने के कारण एक्सपायरी तारीख़ पढ़ ही नहीं सकते, इसलिए गाँव के दुकानदार एक्सपायरी के बाद भी सामान बेचते रहते हैं। देश के अलग-अलग क्षेत्रों में तारीख़ और गिनतियाँ लिखने का तरीका अलग-अलग है, इसलिए विशेष कर गाँव में इसका पालन कड़ाई के साथ नहीं होता है। कई बार ग्राहक भी, अगर एक दो महीना एक्सपायरी है, तो अधिक परवाह नहीं करता। इन सब का नतीजा यह है कि हमारे देश में ईमानदारी से और कड़ाई से एक्सपायरी का पालन नहीं हो पता।
हमारे देश में मसाले की कभी कमी नहीं रही और यहाँ से दूसरे देशों को मसाले निर्यात हुआ करते थे। बाहर से मसाले मंगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। आजकल भी हमारे देश से मसाले दूसरे देशों को भेजे जा रहे हैं, लेकिन मसालों में प्रिजर्वेटिव डालना
आवश्यक होता है, उन रासायनिक पदार्थों के कारण मसाले जहरीले हो जाते हैं। सिंगापुर जैसी कुछ विदेशी सरकारों ने हमारे कुछ मसालों को प्रतिबंधित तक कर दिया है। देश में खाद्य पदार्थों से जुडी इस समस्या को बढ़ाने में उपभोक्ताओं का योगदान तो शिक्षा की जानकारी का अभाव तो है ही, परंतु व्यापारी और उद्योगपति भी ज़िम्मेदार हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम हर मौसम में पैदा होने वाली फल, सब्जियाँ, मसाले आदि भोजन के रूप में प्रयोग में लाएं। क्यों कि सीजन के बाद, बहुत दूर-दूर से खाद्य पदार्थ लाने के लिए व्यापारी, संरक्षण करने वाले केमिकल जरूर डालेगा।
हमें यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि आधुनिकता के कारण देश की औसत आयु बढ़ी है, बल्कि औसत आयु बढ़ाने का मुख्य कारण है, बच्चों की मृत्यु में कमी का आना। यह तो वैसा ही होगा जैसे किसी बुजुर्ग का कर्ज बच्चों ने काफी हद तक चुका दिया और हम कहें कि वह बुजुर्ग धनवान हो गया। आप गाँव चले जाइए, वहाँ जैसे पुराने जमाने के लोग आशीर्वाद में कहते थे, “शतायु बनो”, तो अब उन गाँवों में 100 साल की उम्र वाले लोग ही नहीं मिलेंगे।
हमारे देश में दो प्रकार के विचार मौजूद हैं, एक तो पुरातन और सनातन भारत के विचार, दूसरे आधुनिक भारत की सोच। 10000 साल के अनुभव के बाद निकाले गए निष्कर्ष उतने ही सटीक होंगे जितने वैज्ञानिक प्रयोग के द्वारा निकाला गया परिणाम होता है। आज के आधुनिक भारत के लोग धीरे-धीरे अपनी पुरानी परंपराओं और अनुभवों की सार्थकता को स्वीकार कर रहे हैं। लेकिन यह आँख मूंद कर स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि जैसा मेरे एक वरिष्ठ मित्र ने बताया था कि पुरातन सोच को युगानुकूल और विदेशी सोच को स्वदेशानुकूल बनाने के बाद स्वीकार किया जाना चाहिए। हमें स्वीकार करना होगा कि एक केमिकल को दूसरे केमिकल में बदलने से काम नहीं चलेगा बल्कि इस केमिकल से छुटकारा पाना होगा और प्राकृतिक जीवन की ओर वापस जाना होगा।