लखनऊ। पिछले दिनों बाराबंकी की एक क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक में कैशियर और किसान में मारपीट हो गई। शाखा प्रबंधक ने माना भीड़ के चलते कैशियर प्रेशर में था गलती हो गई। यह मामला एक ज्यादा बड़ी समस्या की ओर इशारा कर गया।
वित्तीय समावेश के लिए सरकारों का जोर तो बहुत है लेकिन ग्रामीण इलाकों की बैंकें कर्मचारियों की भारी कमी से जूझ रहे हैं। लखनऊ जिला मुख्यालय के उत्तर में लगभग 40 किमी दूर स्थित कुम्हरावां कस्बे में दो राष्ट्रीय और एक क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक है लेकिन तीनों में ग्राहकों को घंटों इंतजार करना पड़ता है। यहां बैंक ऑफ इंडिया में 25 गाँवों के 25 हजार खाताधारक हैं, जबकि स्टाफ सिर्फ दस लोगों का है। यानि ढाई हज़ार खातों पर एक बैंककर्मी।
इसी तरह सीतापुर के बेहमा कस्बे में स्थित इलाहाबाद यूपी ग्रामीण बैंक में करीब 28 हजार खाता धारक हैं और रोजाना 250-300 लोग आते हैं। बैंक में सुबह से लाइन लग जाती है कई बार कर्मचारी लोगों के विड्राल तक वापस कर देते हैं।
इस बैंक में मनरेगा का पैसा निकालने पास के एक गाँव से आए मेवालाल (45 वर्ष) ने बताया, “कई बार पूरा दिन लगे रहते हैं पैसा निकालने का नंबर नहीं आता”।
बेहमा में बैंक के शाखा प्रबंधक ओंकार त्रिपाठी बताते हैं, “भीड़ तो रहती है, फिलहाल चार लोगों का स्टाफ है। लेकिन ज्यादा दिक्कत इंटरनेट की होती है, उससे काम बहुत प्रभावित होता है”। प्रदेश में कई ऐसी बैंक शाखाएं भी हैं जहां सिर्फ दो कर्मचारी हैं।
करीब 13 करोड़ की ग्रामीण आबादी वाले उत्तर प्रदेश में सात क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की 3978 शाखाएँ हैं। बाराबंकी समेत 14 जिलों में कार्यरत ग्रामीण बैंक ऑफ आर्यवर्त की 686 शाखाएं हैं। तो आजमगढ़-बनारस समेत सात जिलों में काशी गोमती संयुत बैंक की 413 शाखाएं हैं। क्षेत्रीय बैंकों के साथ कस्बों में राष्ट्रीय बैंके भी हैं लेकिन वहां भी दिनभर भीड़ लगी रही हैं।
एक आरआरबी के क्षेत्रीय अधिकारी के नाम न छापने की शर्त पर बताया, “स्टाफ तो सब बैंकों में कम है लेकिन क्षेत्रीय बैंकों की हालात ज्यादा खराब है, यहां कोई आना ही नहीं चाहता। आईबीपीएस के माध्यम जो नए लड़के आते भी हैं वो अच्छी नौकरी मिलने पर चले जाते हैं।”
इंस्टीट्यूट ऑफ बैंकिंग एंड पर्नल सेलेक्शन (आईबीपीएस) में वर्ष 2014 में क्लर्क के लिए करीब साढेा छह लाख लोगों ने परीक्षा दी थी।
काशी गोमती संयुत बैंक में महाप्रबंधक भोला प्रसाद बताते हैं, “स्टाफ कम है। बैंक का काम बहुत जिम्मेदारी और दबाव वाला होता है। पैकेज (वेतन) अपेक्षाक्रत दूसरे सेक्टर से काफी कम है इसलिए लोग इन बैकों में नौकरी मिलने के बाद छोड़ जाते हैं। दूसरी समस्या तकनीकी की है, जो अपग्रेड नहीं है। सर्वर ठप होने से बड़ी दिक्कत है। कंप्टरीकृत शाखाएं हैं इंटरनेट नहीं तो सब काम ठप हो जाता है।”
राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के एजीएम नवीन कुमार रॉय बताते हैं, “बैंकों पर वर्कलोड (भार) बहुत बढ़ गया है, गैस की सब्सिडी से लेकर, प्रधानमंत्री जनधन, प्रधानमंत्री पेंशन, मनरेगा समेत सब योजनाएं बैंक पर ही आकर सिमट गई हैं। मानव संसाधन की कमी तो है, लेकिन उसे बढ़ाने की एक सीमा होती है। इस समस्या का समाधान सिर्फ तकनीकी पर जोर देकर ही निकल सकता है।”
नौकरी मिलकर छोड़ जाने की समस्या से क्षेत्रीय और राष्ट्रीय बैंक दोनों पीड़ित हैं। बैंक ऑफ आर्यव्रत के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “आज का युवा महत्वाकांक्षी हैं, मेरे यहां कैशियर की सैलरी 20 हजार से कम है जबकि प्राइमरी को टीचर को 30 हजार से ज्यादा मिलते हैं, दो महीने की छुट्टी अलग से तो वो मेरे यहां काम क्यों करेंगे। मेरी बैंक में प्रतिवर्त आने वालों में से 29 फीसदी नौकरी छोड़ जाते हैं, यही हाल दूसरे बैंकों का भी है, किसी के यहां 23 तो किसी के यहां 24 फीसदी युवा नौकरी छोड़ते हैं।”