टीचर्स डायरी: ‘जब दवात के लिए पानी लाने गई डूबती छात्रा को बचाने के लिए तालाब में कूद गई’

75 साल की रिटायर्ड शिक्षिका सत्यभामा देवी साल 1974 का किस्सा बता रही हैं, जब सीतापुर जिले के कठिघरा गाँव के प्राथमिक विद्यालय में उनकी नई-नई नियुक्ति हुई थी, तब एक बच्ची को डूबने से बचाने के लिए तालाब में कूद गईं थीं। साल 2013 में वो रिटायर तो हो गईं लेकिन उनका ये किस्सा जब भी कोई सुनता है तारीफ किए बिना नहीं रह पाता है।
Teacher's Diary

मुझे वह दिन आज भी वैसे ही याद है। साल था सन 1974।  मेरी नियुक्ति के दो साल हुए थे। मेरी उम्र बीस साल की रही होगी उस समय। कठिघरा गाँव में मेरी तीसरी पोस्टिंग हुई थी। मेरे स्टॉफ में हम पांच शिक्षिका तैनात थीं। वहां के प्राइमरी स्कूल के सामने और पीछे तालाब हुआ करता था।

स्कूल के बच्चे अध्यापकों से आंख बचाकर उन तालाबों से अक्सर अपनी दवात में पानी भर लाते थे। वह सामने वाले तालाब के बजाय पीछे वाले तालाब का चुनाव करते थे ताकि शिक्षक जान ना सकें। सेठा की कलम से बच्चे लकड़ी की पाटी पर लिखते थे। दवात में पानी और खड़िया घोलकर रखा जाता था। मैं जब नई नई स्कूल पहुंची तो बच्चों पर निगाह तेज कर दी। एक दिन इंटरवल का समय था। मैं परीक्षा की कॉपी चेक कर रही थी। मेरी ऊंगलियों में कलम फंसी थी और मैं कॉपी पर टिक लगाने जा रही थी कि दो बच्चे डरे सहमें से कक्षा में घुसे। वह एक दूसरे से कान में बातें करने लगे। मैं तिरछी निगाह से दोनों छात्रों को सुनने और समझने की कोशिश कर रही थी।

उन्हें ऐसा लगा जैसे मैं उन्हे सुन या देख नहीं रही हूं। एक ने उससे हल्की आवाज में पूछा क्या डूब गई। दूसरे ने हां में सिर हिला दिया। मैं अचानक भाग खड़ी हुई मेरे ऊपर रखी कॉपियां दूर तक बिखरती चली गई। मेरे हाथ में दबा पेन दबा ही रह गया। मैं भाग कर स्कूल के सामने वाले तालाब को तेजी से देखने के बाद स्कूल के पीछे वाले तालाब पहुँची। मुझे वहाँ बच्चे के पैर के फिसले हुए निशान दिखाई दिए। मैं उसमें कूद गई। मेरी और साथी मेरे पीछे दौड़ कर आ गई किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वह चिल्लाई क्या हुआ।

इधर मैं तालाब में कूद तो गई लेकिन वह पास से ही गहरा होना शुरू हो चुका था शायद उसके किनारे से काफी मिट्टी निकाली गई होगी। लोगों के घर कच्चे होते थे इसलिए लोग उन तालाबों से मिट्टी निकाल कर घर में प्रयोग करते थे। मुझे एक बच्ची नीचे बैठती मालूम हुई। मैंने झट उसे हाथों में उठाकर बाहर की ओर बढ़ी। मैंने पूरी ताकत से उसे बाहर की तरफ ले जाने की कोशिश की। मैं खुद भी अंदर की तरफ फिसल रही थी। लेकिन जैसे तैसे उसे बाहर फेक कर निकलने में कामयाब हो गई। मैंने अपने हाथ में उसे फिर उठाया। मेरे हाथ में बच्ची देखकर वहां मौजूद सभी लोग सन्न रह गए थे। शोर काफी तेज हो चुका था। गाँव के लोग दौड़कर आना शुरू हो गए।

डूब रही बच्ची मेरे स्कूल के कक्षा एक की छात्रा थी। बच्ची को होश आ गया। मैंने बहुत प्यार से पूछा कहां गई थी? उसने जवाब दिया मामा के घर जा रही थी। इतने में उसका पिता भी आ पहुंचा। वह अपने पिता की एकलौती बेटी थी। मैंने उस बच्ची को मनोबल देने के लिए उसके सर पर हाथ फेरा और फिर उसे हल्की सी मुस्कान के साथ ऐसे देखा जैसे कुछ भी ना हुआ हो। वहाँ लोग मेरी तारीफ कर रहे थे बहुत लोग पुरस्कार देने की बात कहने लगे।

मैंने बच्ची को गले लगाया और लोगों से कहा मेरे लिए मेरा सच्चा पुरस्कार यहीं है। मेरी छात्रा बच गई थी इससे बड़ा पुरस्कार एक शिक्षक के लिए नहीं हो सकता। मैंने पुरस्कार की बात नकारते हुए खुद को सम्हालने की कोशिश की। वजह यह थी इसके बाद मैं भीड़ से खुद को घिरा पा रही थी। मेरे कपड़े पूरी तरीके से भीगे और मिट्टी में सने थे। स्कूल में तैनात काकी फौरन पड़ोस से मेरे लिए साफ पानी भर लायीं।

एक पड़ोस की महिला मेरे लिए सूखे कपड़े लेकर आ गई। स्कूल के एक कमरे में मैंने नहाया और दूसरे कपड़े पहने। मैं जब घर पहुंची तो मेरे पिता ने मेरे कपड़े देखकर पूछा कि यह कपड़े कैसे बदल गए। पूरी घटना सुनने के बाद वह दुखी होकर बोले अगर तुम्हें कुछ हो जाता तब। मेरे पिता उसी समय मेरी शादी तय कर चुके थे। वह मुझे बहुत प्यार करते थे। मैंने उन्हे जवाब दिया जैसे मैं आपकी संतान हूं वैसे ही मुझे मेरे स्कूल के सभी बच्चों से प्यार है। इसके बाद उन्होने मेरी पीठ थपथपाई और फिर कुछ ना कहा। मेरे पिता द्वितीय विश्वयुद्ध योद्धा थे। मेरे एक बड़े भाई ने पाकिस्तान से 1971 के करीब युद्ध किया था।

मुझे अपनी बीटीसी की ट्रेनिंग के दिन भी याद हैं जब मेरे गाँव से कुछ किलोमीटर दूर मुझे पैदल चलना होता था। छात्रावास जाते समय मुझे अपने सर के ऊपर बक्सा रखकर कई किलोमीटर पैदल आना जाना पड़ता था। मेरे एक बड़े भाई एक बार मेरी फीस भरने के लिए लखीमपुर के ट्रेनिंग सेंटर में गए थे। उस दौरान मेरी फीस भरने के लिए उन्होने लकड़ी बेची थी और तब फीस का इंतजाम हो सका था। उनके हाथ के वह छाले मुझे हमेशा प्रेरणा देते रहे। मैंने ट्रेनिंग पूरी की और फिर अध्यापिका बन गई। मैंने राजकीय कन्या दीक्षा विद्यालय लखीमपुर खीरी से ट्रेनिंग की थी।

मैं अक्सर इंटरवल में भी स्कूली काम पूरा करती थी। और कौन बच्चा कहां जा रहा है इसका पूरा ध्यान रखती थी। मेरी अन्य साथी टीचर भी बहुत अच्छी थीं। हर दिन स्कूल बंद होते समय मैं एक एक कमरा ठीक ठीक चेक करती थी कि कहीं कोई बच्चा इसमें सो तो नहीं गया उसके बाद कमरे बंद करती थी। मुझे इस बात का कोई फर्क नहीं था कि मैं सबसे लेट में घर पहुंच पाऊंगी।

मेरी एक और आदत थी कि मैं कभी स्कूल खाना लेकर नहीं गई। उसकी वजह थी कि मैं हमेशा सोचती थी कि उन छोटे छोटे बच्चों के सामने मैं अकेले भोजन कैसे कर सकती हूं। कई बार सुबह मैं जल्दी के चक्कर में घर से भी खाकर नहीं जाती थी। बहुत बार देर होने की नौबत आ जाती थी फिर ऐसे में खुद का भोजन ना करके कुछ समय बचा लेती थी। शादी के बाद छोटे छोटे बच्चे भूखे ना रहे इसलिए हर हाल में खाना सुबह बना लेती थी लेकिन फिर उन्हें खिलाने में देर लग जाती और अन्त में मैं फिर भूखे ही स्कूल भागती। मैंने कई बार लौट कर ही खाना खाया। घर पर पशु थे उनका भी काम देखना पड़ता था। जो मेरे सहारे थे मेरे पशु मेरे बच्चे और मेरा घर मेरे लिए उनकी भूख प्यास पहले थी और मैं उनके लिए हमेशा अपने कर्तव्य को देखते हुए सजग रहती थी। 2013 में मैं रिटायर हो गई। 

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