90 के दशक में भी गाँव का स्कूल खपरैल वाला हुआ करता था। इसके अलावा कई स्कूल तो चबूतरे में लगा करते थे। #TeachersDiary में आज ऐसे ही एक शिक्षक अपना किस्सा बता रहे हैं जो चबूतरे वाले स्कूल में पढ़ते थे, जब स्कूल के भवन निर्माण की बात आई तो ईंट-गारा तक ढोया।
बात उन दिनों की है जब मैं कक्षा पांचवीं में पढ़ता था। मेरे घर से करीब आधा किलोमीटर की दूरी पर निर्भय सिंह जी का घर था इनके घर के सामने ही चबूतरा था। यह चबूतरा 20 फीट लंबा और 30 फीट चौड़ा था। इसी में नीम का पेड़ लगा था जिसकी छांव में कक्षा पहली से लेकर पांचवी तक का विद्यालय लगता था।
वर्ष 1990 में स्कूल के लिए भवन स्वीकृत हुआ था। तब इस स्कूल में कक्षा पहली से लेकर पांचवी तक में 70-80 विद्यार्थी पढ़ते थे। गुरुजी के कहने पर कक्षा पांचवी के विद्यार्थियों ने ईंट-गारा तक ढोया था। यह स्कूल भवन पथरा टोला की जगह माझा टोला में बना था जो मेरे घर से करीब 200 मीटर की दूरी पर था। आज भी हमारे द्वारा ढोए गए ईंट-गारा वाला स्कूल भवन खड़ा है। विद्यार्थियों की मेहनत से कार्यालय के लिए एक कमरा और एक बच्चों के लिए कक्षा ही बन पाई थी। जो आज भी खड़ी है।
दुवाहियां गाँव की चबूतरे में लगने वाली स्कूल में एक ही गुरुजी थे। वह कभी भी विद्यालय आना नहीं छोड़ते थे। यहां तक कि उनके रास्ते में एक नाला पड़ता था। बारिश के दिनों में यह नाला भर जाता था इसके बाद भी गुरुजी विद्यालय आना नहीं छोड़ते थे। स्कूल भले ही चबूतरे में लगता था लेकिन गुरुजी जिनका नाम रामलाल शर्मा है। वह सर्दी-गर्मी और बरसात कोई भी मौसम हो विद्यालय जरूर आते थे। गुरुजी का गाँव दुवहियां गाँव से 5 किलोमीटर दूर रेउसा में था। वह वहां से नाला पार कर के स्कूल आते थे। उनका ड्रेस कुर्ता और धोती ही था। और एक बात उनके पास साइकिल थी जिससे वह रेअसा गाँव से दुवहियां तक आते थे।
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