साल 2016 में मेरी नियुक्ति प्राथमिक विद्यालय, बंजरिया, पीलीभीत में हुई थी, दो साल बाद वहां रहने के बाद मेरा ट्रांसफर 2018 में पीलीभीत के सैदपुर प्राथमिक विद्यालय में हो गया।
उस समय अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते थे। जब इसके पीछे का कारण जानने की कोशिश की तो पता चला कि ज्यादातर बच्चों के अभिभावक खुद भी पढ़े-लिखे नहीं हैं।
तब मैंने घर-घर जाकर अभिभावकों को समझाना शुरू किया और शुरूआत अपने स्कूल की रसोइया से की, आज 60 साल की नन्ही देवी नाम अंग्रेजी में लिख लेती हैं। इसके बाद दूसरे अभिभावक को भी पढ़ना-लिखाना सीखाया, जिससे कम से कम वो अपना नाम तो लिख ही सकें।
यहां पर भी मैंने बदलाव लाना शुरू किया, बच्चों के साथ ही उनके अभिभावकों को भी समझाती हूं कि पढ़ना-लिखना कितना जरूरी है। मेरे स्कूल में एक बच्ची है अनुष्का जोकि अभी चौथी कक्षी में पढ़ रही है। अनुष्का दिव्यांग है और डांस करना चाहती थी, लेकिन उसका भाई शिवम जोकि उससे एक क्लास आगे था, उसे डांस करने से मना करता रहता। मैंने उसके भाई को समझाया, तब विश्व दिव्यांग पर अनुष्का ने डांस किया, जिसकी सबने तारीफ की। अब भी स्कूल में कोई कार्यक्रम होता है वो जरूर भाग लेती है।
स्कूल मे ऐसे स्पेशल चाइल्ड में त्रिवेणी भी है जैसे कि ऐसे बच्चे मानसिक रुप से ज्यादा परिपक्व नहीं होते उसी तरह से त्रिवेणी भी है, जोकि अभी कक्षा दो मे पढ़ रही है। जब स्कूल आयी थी तब अपने आस पास के माहौल के कारण गलत शब्दों का प्रयोग करती थी। त्रिवेणी अभी छोटी है, लेकिन स्कुल आने के बाद धीरे धीरे सुधार आने लगा और अब त्रिवेणी एक बहुत अच्छी छात्रा है।
वो भी अब सारे बच्चों के समान परीक्षा देती है, एक ही साल में त्रिवेणी मे काफी बदलाव आया है।
मैं एक शिक्षिक होने के साथ पाँच महीने की बच्ची की माँ भी हूं, अपनी बेटी को घर छोड़कर रोज स्कूल जाती हूं, जब मेरी बेटी तीन महीने की थी तभी से मैंने अपने स्कूल की जिम्मेदारी भी सम्भाल ली थी। मेरे घर से स्कूल 48 किमी है, लेकिन मैं स्कूटी से ही जाती हैं और उसी से मैं हफ्ते में एक दिन गाँव में जाती हूं और बच्चों के माता-पिता से भी मिलती हूं।
जैसा कि अनीता विश्वकर्मा ने गाँव कनेक्शन की इंटर्न अंबिका त्रिपाठी से बताया
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