भले ही चिट्ठियों का आना-जाना अब बीते वक़्त की बात लगती हो, लेकिन इसे चाहने वाले आज भी कम नहीं हैं। अब भी हमारे मन के किसी कोने-अँतरे में यह चाह रहती है कि काश, मेरे नाम भी कोई चिट्ठी आती!
पिछले साल बच्चों को “चिट्ठियों की अनूठी दुनिया” पाठ पढ़ाते हुए मैंने एक प्रयोग किया। सभी बच्चों से उनके रिश्तेदारों और दूसरे शहरों/गाँवों में बसे दोस्तों क नाम चिट्ठी लिखने के लिए कहा। पहले तो कई बच्चे आना-कानी किए, लेकिन धीरे-धीरे करके सप्ताह भर के भीतर लगभग सभी ने चिट्ठियाँ लिख लीं। उनमें से काफी बच्चों ने चिट्ठी लिखने का पहला अनुभव हासिल किया था, सो स्वाभाविक है कि उन्हें बहुत ख़ुशी हुई।
करीब डेढ़ या दो महिने बाद मुझे लगा कि खुशियाँ बाँटने का एक मौका और उन्हें देना चाहिए। मैंने उन सबसे पूछा कि जिनके नाम चिट्ठी लिखे थे, उनकी क्या प्रतिक्रिया आई ! कुछ का जवाब था कि बदले में उस दोस्त या रिश्तेदार ने भी उन्हें चिट्ठी लिखी। लेकिन कईयों को जवाबी चिट्ठी नहीं मिली थी। उधर से बस फोन करके या उस चिट्ठी का फोटो व्हाट्सएप करके बता दिया गया था कि तुम्हारी भेजी हुई चिट्ठी मिली और पाकर बहुत अच्छा लगा।
मैंने बच्चों से फिर पूछा कि अगर तुम्हारी चिट्ठी के जवाब में उधर से भी चिट्ठी मिलती तो कैसा लगता। सबका एक स्वर में यही कहना था कि अपने नाम से चिट्ठी पाकर उन्हें बहुत ख़ुशी होती। इस बहाने उन सबसे फिर से उन्हीं दोस्तों-रिश्तेदारों के नाम चिट्ठी लिखवाई कि- “मेरी चिट्ठी का जवाब कृपया चिट्ठी लिखकर ही दें!” इस तरह से बच्चों ने दूसरी बार चिट्ठी लिखी। अबकी चिट्ठी से उनके परिचय की गाँठ दोहरी बँध गई थी।
महीने-डेढ़ महीने तक उनके चिट्ठियों की जवाबी चिट्ठी उन्हें मिलती रही। वे उन चिट्ठियों को क्लास में लाकर अपने दोस्तों को दिखाते और बहुत खुश होते। उन चिट्ठियों पर उनके नाम का लिखा होना उन्हें बहुत ख़ुशी देता और जब कभी मैं किसी चिट्ठी का शुरूआती हिस्सा पूरे क्लास में पढ़कर सुना देता तो उनके चेहरे पर खुशियों की लाली छा जाती। क्लास का यह माहौल देखने लायक होता था।
चिट्ठी लिखने का तीसरा अवसर उनके लिए बड़ा दुखदाई रहा। तब उस स्कूल से मेरे ट्रांसफर का ऑर्डर आ चुका था। मैंने किसी बच्चे को यह नहीं बताया था कि मैं स्कूल छोड़कर जा रहा हूँ, लेकिन दूसरे शिक्षकों से जब उन्हें यह मालूम हुआ तो वे बहुत दुखी हुए। वहाँ से रिलीव होने का अवकाश कम मिला था इसलिए सबसे बात कर पाना संभव नहीं था। ऐसे में मैंने सबसे फिर एक बार चिट्ठी लिखने के लिए कहा। इस बार की चिट्ठी मुझे संबोधित करते हुए लिखनी थी।
सबका यही कहना था जिसने हमें पहली बार चिट्ठी लिखना सीखाया उसे ही इतना जल्दी चिट्ठी लिखना पड़ जायेगा ये हम में से किसी ने नहीं सोचा था। अगले दिन सबने भारी मन से चिट्ठी लिखकर मेरे पास जमा कर दिया। उन चिट्ठियों को मैंने क्लास में नहीं पढ़ा। न मुझमें पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र और सेल्फ-डिज़ाइन के उन चिट्ठियों के ढेर को पढ़ने की तनिक भी हिम्मत थी और न बच्चों में उसे सुनने का धैर्य बचा था। मैंने उस ढेर को बाँधकर इस विश्वास से रख लिया कि बाद में धीरे-धीरे एक-एक करके उन्हें पढूँगा।
उस विद्यालय में जब मैं आखिरी दिन पढ़ाने गया तो सबसे आँखें मिलाकर पढ़ा पाना बहुत मुश्किल काम था। उस दिन कोई भी पढ़ने को राज़ी नहीं था। मैंने उनसे कहा कि मुझे विश्वास है कि हमारे स्कूल के बच्चे अपने शिक्षकों को विदा करना बहुत अच्छे-से जानते हैं। क्योंकि हर साल उनका कोई न कोई प्रिय शिक्षक उन्हें छोड़कर चला ही जाता है।
उस आखिरी क्लास में सबने एक अनूठा वादा किया। उन सबने मेरे जाने के बाद मुझे चिट्ठी लिखने के लिए मेरा नया पता माँगा। मैंने भावी स्कूल का पता ब्लैकबोर्ड पर लिख दिया और सबने इस वादे के साथ हिंदी वाली नोटबुक में पते को जतन कर लिया कि चिट्ठियों की अनूठी दुनिया से परिचित कराने वाले अपने हिंदी शिक्षक को ज़रूर चिट्ठी लिखेंगे।
इसतरह पत्र लिखने का चौथा अवसर उन छात्रों ने खुद बना लिया था। आज भी उनके पत्र आते हैं और उन पत्रों में आता है उन सबका लगाव, विश्वास, प्रेम और अपनापन। चिट्ठियों के उस ढेर को मैं खोल रहा हूँ, जिसे कभी इस विश्वास से बाँधकर रख लिया था कि आगे बाद में कभी फ़ुरसत से पढूँगा।
आज उन चिट्ठियों का पुलिंदा खोल रहा हूँ जिन्हें कभी क्लास में पढने की हिम्मत न मैं कर सका था न बच्चे उसे सुनने का धैर्य रख पाए थे !
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