ललितपुर/बाँदा/अहमदाबाद। ”बुंदेलखंड के गरीब लोग भुखमरी के कारण घास की रोटियां खाने को मजबूर हैं।” अंग्रेजी व हिंदी अख़बारों और टीवी चैनलों पर ग्रामीण भारत से जुड़ी 2015 की सबसे बड़ी ख़बरों में से एक थी ये।
गाँव कनेक्शन ने अपनी पड़ताल में पाया है कि ये ख़बरें झूठी थीं। पत्रकार और तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कोदो, सावा, बथुआ व अन्य प्रजातियों को घास बताया जबकि पौष्टिकता से भरपूर ये मोटे अनाज और साग सदियों से बुंदेलखंड के लोगों के पारंपरिक खान-पान का हिस्सा रहे हैं।
बुंदेलखंड के सुलखान के पुरवा गाँव में पत्रकारों से बात करने वाली एक महिला शकीला, जिनके पास पांच बकरियां, तीन भैसें, दो जोड़ी बैल हैं और गरीब नहीं हैं, गाँव कनेक्शन रिपोर्टर के सामने अपनी ‘घास की रोटी’, ज़ारी वाले बेर, सूखे महुआ और कैथे की बुकनू थाली में लेकर उपस्थित थी। उन्होंने घास की रोटी के बारे में पूछने पर बताया, ”इस रोटी में मकुई, कैथे की पत्ती और पिसान (आटा) मिला है। हमने यही बताया था सबसे, अब वो लोग (पत्रकार) इसे घास समझें या कुछ और।”
भारत में कृषि के पितामह और हरित क्रांति के जनक, डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन ने गाँव कनेक्शन की रिपोर्ट का समर्थन किया।
”ये कहना गलत है कि गरीब घास खाने को मजबूर हो रहे हैं। इनमें से ज्य़ादातर अनाज घास समुदाय से हैं। पोषण के बारे में समझ बढ़ाने की ज़रुरत है, ताकि इन फसलों से ‘ज़ीरो हंगर’ (भुखमरी से मुक्ति) के लक्ष्य को पूरा किया जा सके,” चेन्नई से डॉ. स्वामीनाथन ने बताया।
बुंदेलखंड की मुख्य समस्या घास की रोटी नहीं, रोज़गार की कमी और सरकारों का सौतेला रवैया है। पिछली रबी फसल में अत्याधिक बारिश व ओलावृष्टि के कारण फसल नष्ट हुई। इसके अलावा 2014 और 2015 में लगातार दो साल से सूखा झेल रहे इस क्षेत्र में इस बार सिंचाई के पानी की कमी से मुख्य रबी की फ़सल में भी खेत या तो खाली हैं या बुवाई धीमी है।
इसके चलते खेतिहर मज़दूरों को तो काम ना मिल पाने की समस्या है ही, कई किसान भी रोज़गार खोज रहे हैं, क्योंकि वो फसल नहीं बो पाए। पलायन तेज़ी से हो रहा है।
‘घास की रोटी’ एकाएक अस्तित्व में आकर उस समय राष्ट्रीय शर्म का विषय बन गई जब आम आदमी पार्टी के पूर्व नेता और स्वराज आन्दोलन के संयोजक योगेन्द्र यादव देश में सूखा प्रभावित कई राज्यों का तूफानी दौरा करते हुए बुंदेलखंड जा पहुंचे। मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के तीन जि़लों ललितपुर, उरई और जालौन में सर्वे के बाद कहा गया बुंदेलखंड के 17 फीसदी लोग घास की रोटी खाने को मजबूर हैं।
घास की रोटी पर मचे हंगामे के बाद ‘गाँव कनेक्शन’ उन्हीं गाँवों में गया जहां से ये ख़बरें उठी थीं। दिल्ली से लगभग 500 किमी दूर दक्षिण पश्चिम में उत्तर प्रदेश के ललितपुर जि़ले के तालबेहट ब्लॉक के कई गाँवों में सहरिया जनजाति की बस्तियां हैं। समई, फिकार, कोदू, कुटकी आदि फसलें पारम्परिक मोटे अनाजों में गिनी जाती हैं और ये सारी ही घास समुदाय की फसलें हैं, जो इंसान बड़े चाव से खाया करते थे। लेकिन नरम रोटियों की ओर रुझान बढ़ने और हरी पारम्परिक सब्जियों की ओर रुझान कम होने से इन फसलों की खेती हाशिए पर आ गयी।
समई जिसे जंगली चावल भी कहते हैं, अरसों से इन आदिवासी लोगों के भोजन का हिस्सा रहा है। भदौना गाँव में रहने वाली आदिवासी महिला भागवती (60 वर्ष) समई और फिकार का नाम सुनकर हंसते हुए बुंदेली में कहती हैं, ”आप जानते हैं, इनके बारे में, आजकल की पीढ़ी क्या जाने। फिकार, कोदू हम तो सब ना जाने कब से खा रहे हैं, बड़ा गुण करती हैं ये चीज़ें।” बगल में नीली साड़ी का घूंघट लिए बैठी एक युवती की तरफ़ इशारा करके भागवती आगे कहती हैं, ”ये सब अब बना ही नहीं पातीं, फि़कार की रोटी ही इनसे नहीं बनाई जाएगी।”
घास की रोटियों पर जांच करने वाले ललितपुर के अपर जिलाधिकारी मिथलेश कुमार द्विवेदी बताते हैं, ”बुंदेलखंड के लोगों को घास की रोटी खाते देखने वाले अधिकांश लोगों को गेहूं की प्रजातियां तक पता नहीं होंगी। ये लोग बिना ज़मीनी हकीकत समझे रिपोर्ट तैयार करते हैं तो करें। अभिव्यक्ति की आजादी है।”
अतिरिक्त सहयोग : डॉ. दीपक आचार्य, आशीष सागर, वसंती हरिप्रकाश
ये भी पढ़ें:
सामा की रोटी और चटनी सेहत के लिए फायदेमंद