बुन्देलखंड सूख रहा है: घास की रोटी से कई गुना बड़ा संकट

India

ललितपुर। दशरथ मांझी ने पहाड़ काटा था। रामप्रसाद राजपूत ज़मीन चीर रहे हैं।

झारखण्ड के किसान दशरथ मांझी ने गाँव से कस्बे तक सड़क बनाने के लिए एक पहाड़ का ह्रदय चीर डाला। उन पर पिछले वर्ष एक लोकप्रिय बॉलीवुड फिल्म बनी। लेकिन चालीस वर्षीय रामप्रसाद राजपूत गुमनामी में, जान जोखिम में डालकर ज़मीन की कोख में पानी खोजने को गहरे घुसते जा रहे हैं। मिल रही हैं सिर्फ चट्टानें। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 400 किमी दूर दक्षिण-पश्चिम दिशा में ललितपुर के मऊ गाँव में रामप्रसाद अपने परिवार के साथ अपने ही खेत में पानी की खोज में कुआं खोद रहे हैं, सिर्फ कुछ बल्लियों और एक रस्सी से बँधे तसले के सहारे।

राष्ट्रीय मीडिया ”घास की रोटी” जैसे सनसनीखेज, काल्पनिक मुद्दे तलाश रही है, लेकिन कई और कारणों से वर्षों से जीवन मरण का युद्ध लड़ता बुंदेलखंड अपने धैर्य के कगार पर है। बुंदेलखंड के असली दुश्मन हैं अवैध खनन, रोजगार की कमी, पलायन, कच्ची शराब और सबसे बड़ा राक्षस, सूखा।

बुंदेलखंड लगातार दो साल सूखा झेल चुका है और पिछली तीन फसलें विपरीत मौसम के चलते गवां चुका है। पानी यहां पहले से भी बहुत ज्यादा बहुमूल्य हो गया है। इसकी कमी सरकार भी पूरी नहीं कर सकती। खेत इतने सूखे हैं कि बुआई नहीं हो सकती, भूमिगत जल तेज़ी से नीचे चला गया है, बांधों में बस पीने भर का पानी है, ज़्यादातर नहरें सूखी पड़ी हैं। खेत ख़ाली होने से किसान मज़दूर हो गया है, और पहले से ही मज़दूरी करने वाले लोगों के साथ दिहाड़ी के लिए पलायन कर रहे हैं। गाँव के गाँव ख़ाली हो रहे हैं, लकड़ी के छोटे दरवाजों पर ज़ंजीर से ताले लटके हैं।

ललितपुर के मऊ गाँव में रामप्रसाद का तसला 30 फुट गहराई से तोड़े गए पत्थर भी ऊपर लाता है और ख़ुद रामप्रसाद और उनके साथी भी इसी तसले में लटक कर ऊपर-नीचे आते-जाते हैं। रस्सी को एक धुरी से खींच रहे होते हैं बुज़ुर्ग और कुछ महिलाओं के हाथ। कोई भी चूक हो तो गहराई से झांकती खुली चट्टाने बख़्शेंगी नहीं।

”हमारे पास दो एकड़ ज़मीन तो है पर सब ख़ाली पड़ी है, पानी नहीं है और मिट्टी इतनी सूखी है कि कुछ बोया नहीं जा सकता।” रामप्रसाद ने कुएं के अंदर से चिल्लाते हुए कहा। ”ये फ़सल तो गयी हमारी, कुआं इसलिए खोद रहे हैं ताकि अगली बार जब बारिश हो तो कम से कम फसल बो पाएँ अपनी ज़मीन पर। अभी देखो ख़ुद के खेत में मज़दूरी कर रहे।” रामप्रसाद आगे बताते हैं।

रामप्रसाद अपने खेत में मनरेगा के तहत कुआं खोद रहे हैं। बुंदेलखंड के गाँवों में ऐसे उदाहरण कई बार दिखते हैं जहां प्रधानों ने लोगों को अपनी ज़मीन पर ही मनरेगा के तहत जल संरक्षण के काम के लिए प्रोत्साहित किया है, जिससे ग्राम पंचायत की संरक्षण क्षमता तो बढ़ती ही है, लोग मज़दूरी के लिए पलायन नहीं करते।

वर्ष 2014, फिर वर्ष 2015 लगातार दो साल पड़े सूखे ने ललितपुर में सिंचाई को इसलिए इतना ज़्यादा प्रभावित किया है, क्योंकि जिन संसाधनों से सिंचाई होती है उनमें से बड़ा हिस्सा प्रत्यक्ष रूप से वर्षा पर आधारित है। कृषि विभाग ललितपुर के आंकड़ों के अनुसार 1,06,661 हेक्टेयर कृषि भूमि की सिंचाई तालाब, झील, पोखर और कुओं की मदद से होती है, जो कि कुल सिंचित कृषि भूमि 2,49,224 का 42 प्रतिशत है। इसके अलावा जि़ले की 30 प्रतिशत सिंचाई अकेले नहरों पर निर्भर है।

भारतीय मौसम अनुसंधान विभाग के मुताबिक़ इस वर्ष जून से अक्टूबर के बीच मानसून के दौरान ललितपुर में सामान्य से 66 प्रतिशत कम वर्षा हुई है, जिसका असर जलाशयों पर दिख रहा है।

मऊ गाँव से लगभग दो किमी दूर पक्की सड़क के किनारे रामजी (35 वर्ष) अपने कुएं में हरी रंग की मोटी पाइप डाले अपने दो एकड़ खेतों में लगे गेहूं को पहला पानी देने में जुटे थे। इंजन से पूरे दिन सिंचाई के बाद शाम तक उनके 20 फुट गहरे कुएं में पानी तलहटी तक पहुंच चुका था।

अब वे कुएं को फिर रात भर भरने के लिए छोड़ देंगे। ”लगातार सूखे से पानी नीचे चला गया है, दो साल पहले तक पानी 10 से 11 फुट पर ही रहता था अब 16 से 17 फुट पर मिलता है।” रामजी ने कहा, ”डर है कि कुआं जल्दी ना सूख जाएगा, सिंचाई का और कोई साधन नहीं है, ज़मीन पड़ी रहेगी फिर।” उनके खेत के पास नहर नहीं आती।

नहर अगर आती भी होती तो भी ज़्यादा स्थिति ना बदलती, क्योंकि जहां हैं वहां भी नहरें सूखी पड़ी हैं। कारण यह है कि सबसे ज़्यादा बाँध होने के चलते ‘बाँधों का जि़ला’ की ख्याति प्राप्त ललितपुर के ज़्यादातर बाँध सूख गए हैं।

जि़ले के कुछ भागों में राजघाट और मटटीला बाँधों से सिंचाई जारी है क्योंकि इन बाँधों में बेतवा जैसी बड़ी नदी से पानी आने के चलते जलस्तर 100 प्रतिशत बना रहता है। ये बांध ललितपुर के सबसे क़ीमती संसाधनों में से एक हैं, जो ख़र्च हो चुके हैं। इसका सीधा असर रबी उत्पादन में गिरावट के रूप में साफ़ देखा जा सकेगा।

”बेतवा की वजह से दो बाँध बचे हैं, वरना तो वो भी सूख गए होते। कमोबेश इतनी ही बुरी स्थिति महोबा, झाँसी, हमीरपुर मिलाकर बुंदेलखंड के सारे जिलों की है। ”किसान कह रहा पानी नहीं छोड़ते, अरे जब पानी है ही नहीं तो कैसे दें पानी?” जि़ला सिंचाई विभाग के वरिष्ठ जल लेखा सहायक के पे खरे ने कहा।

सरकार ने कुछ दिन पहले ही बुंदेलखंड के लिए कई नीतियां बनाई हैं। चौबीस घंटे बिजली, मनरेगा में 150 दिन काम, पेंशन योजनाओं का विस्तार आदि लेकिन इन योजनाओं के लाभार्थी तक पहुंचने में कई समस्याएं हैं। पहले पंचायत चुनावों की वजह से मनरेगा का काम ठप था, अब काम इसलिये रुका है क्योंकि नवनिर्वाचित प्रधानों को अभी खाते ट्रांसफर नहीं हुए हैं। कुछ जगह जहाँ काम मिला भी वहां दिहाड़ी पर कमीशनखोरों ने नजऱ गड़ा दी। इसके चलते पलायन बहुत तेज़ी से जारी है।

ललितपुर जि़ले के तालबेहट ब्लॉक के मऊ गाँव से चार किमी दूर स्थित उटरी गाँव में या तो बुज़ुर्ग दिखते हैं या केवल महिलाएं, बाक़ी सब मज़दूरी करने भोपाल-इंदौर जा चुके हैं। नीले रंग के मकानों पर आपको स्वागत संदेश तो पुते दिखेंगे लेकिन उसके ठीक बग़ल के मुख्य द्वार में ताला भी टंगा दिख जाएगा। इसी गाँव के निवासी नत्थू (65 वर्ष) के चारों बेटे मज़दूरी करने इंदौर चले गए। उन्हें कुछ दिन पहले तक मनरेगा में 74 दिन का काम मिला था। प्रति दिन की मजदूरी पूछने पर बानियान और आधी कटी नीली जींस पहने नत्थू कहते हैं, ”128 रुपए हर दिन के मिले थे।” मानक से कम होने की बात पर नत्थू काफ़ी पूछने पर बताते हैं, ”पैसा खाते में आता है ना, तो उससे निकलवाने के लिए पंचायत सेक्रेटरी पेट्रोल का ख़र्च लेता है।”

उटरी गाँव के बग़ल के भदौना गाँव की कमलिया (70 वर्ष) के पति और तीन में से दो बच्चों की मृत्यु टीबी से हो चुकी है। उन्होंने कई बार प्रधान से बात की लेकिन उन्हें किसी भी पेंशन योजना का लाभ नहीं मिल पाया। ”कहते-कहते थक गए पेन्शन नहीं मिली, पैसे कहां से लाएं इस उम्र में मज़दूरी भी तो नहीं होगी।” कमलिया बताती हैं। कामलिया की तरह ही शीता और सबरानी भी जीवन संकेती में बिता रही हैं, लेकिन पेंशन नहीं मिल पायी।

जीवन मुश्किल है, लेकिन ललितपुर जिले के मऊ गाँव में रामप्रसाद राजपूत ने उम्मीद नहीं खोयी है। वे दिन रात चट्टानों को तोड़े जा रहे हैं। पानी के लिए अभी और कितना गहरा खोदना पड़ेगा,  रिपोर्टर के ये सवाल चिल्ला कर कहने पर कुँए कि तली से हल्की मुस्कान लिए रामप्रसाद कहते हैं, ”सत्तर फुट कम से कम मानकर चलो, एक महीना और लग जाएगा अभी, फिर 20 दिन और इसे पक्का करने में लगेंगे।”

कहीं ऐसा न हो कि यहां भी उग्रवाद उठ खड़ा हो

“बुंदेलखंड की समस्या में पूरे मन से मदद की बजाय लोग राजनैतिक भूमि तलाश रहे हैं, ये बंद हो जाए तो काम तेज़ हो जाएगा। ज़मीनी स्तर तक पहले से चल रही योजनाएं पहुंच जाएं तो भी भला हो जाए पर वो पहुंचती नहीं। यही हाल रहा तो कहीं ऐसा ना हो कि यहां भी उग्रवाद उठ खड़ा हो जाए, स्थितियां वैसी ही हैं।” गौरी शंकर, किसान नेता

पहली तारीख़ से खाद्य सुरक्षा मिशन होगा लागू

ललितपुर के अपर जि़लाधिकारी मिथलेश कुमार द्विवेदी ने बताया, “हमने अपने स्तर से काफ़ी तेज़ी दिखाई है। नए साल की पहली तारीख़ से खाद्य सुरक्षा मिशन भी लागू हो गया है, अब राशनकार्ड धारक को प्रति सदस्य तीन रुपए किलो चावल और 3.50 रुपए प्रति किलो गेहूं मिलेगा। प्रक्रिया पूरी करके भेजी जा चुकी है, कऱीब 32 करोड़ रुपए का बीमा क्लेम आने वाला है। एक लाख चौतिस हज़ार किसानों को ओलावृष्टि की राहत कऱीब 152 करोड़ रुपए बाँट दी थी, 15 करोड़ और आया है वो बँट रहा है।”

ये भी पढ़ें:

क्या सचमुच बुंदेलखंड में लोग घास की रोटी खाने को मजबूर हैं?

सामा की रोटी और चटनी सेहत के लिए फायदेमंद

‘धंधेबाज़ कर रहे बुंदेलखंड की धरती को बदनाम’

Recent Posts



More Posts

popular Posts