वर्षों से डॉक्टर नहीं, लैंप की रोशनी में प्रसव

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लखनऊ/बलरामपुर/बाराबंकी। उत्तर प्रदेश में 5,000 डॉक्टरों की कमी है। ग्रामीण इलाकों में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के लिए पूरे प्रदेश में करीब 16,000 डॉक्टरों की आवश्यकता है, जबकि विभाग के पास सिर्फ 11,000 ही डॉक्टर हैं।

प्रदेश में डॉक्टरों की यह कमी पिछले चार वर्षों से लगातार बनी हुई है, क्योंकि डॉक्टरों का चयन करने वाली संस्था लोक सेवा आयोग आश्यकता के अनुसार विभाग को डॉक्टर उपलब्ध नहीं करा पा रही है। इसके लिए न सिर्फ लोक सेवा आयोग की लचर कार्य प्रणाली जिम्मेदार है, बल्कि प्रदेश में अपेक्षाकृत मेडिकल कॉलेज का न होना भी है। पिछले 10 वर्षों में भले ही पूरे प्रदेश में सैफई समेत पांच सरकारी मेडिकल कॉलेज और सैकड़ों निजी कॉलेज खुले हों, लेकिन उससे पहले करीब 40 वर्षों तक कोई मेडिकल कॉलेज ही नहीं खुला। 

डॉक्टरों की कमी और स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति उदासीन रवैये की ज़मीनी हकीकत लखनऊ से करीब 250 किलोमीटर दूर नेपाल बॉर्डर के पास बलरामपुर जिले के गुगौली स्वास्थ्य केंद्र में दिखाई देती है। गुगौली स्वास्थ्य केन्द्र के लेबर रूम में ज़रूरी दवाओं और उपकरणों में लैंप भी शामिल हैं। उसके बिना प्रसव नहीं हो सकते। इस केंद्र में अधिकांश प्रसव इसी लैंप की रोशनी में होते हैं। 

वहीं, बलरामपुर के गुगौली केंद्र से करीब 150 किलोमीटर दूर पश्चिम में बाराबंकी जिले के सूरतगंज ब्लॉक के छेदा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) में यही हालात हैं। यहां भी बिजली नहीं है, और प्रसव लैंप, लालटेन या मोमबत्ती की रोशनी में होते हैं। 

इन दोनों स्वास्थ्य केंद्रों में एक समानता और है यहां पिछले कई वर्षों से कोई डॉक्टर नहीं है। गुगौली केंद्र पर करीब 54 गाँवों के लोगों का इलाज फार्माशिस्ट और स्टॉफ नर्स के भरोसे है। छेदा केंद्र पर 100 गाँवों की जिम्मेदारी सिर्फ एक एएनएम पर है।

राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, उत्तर प्रदेश, की वेबसाइट के अनुसार प्रदेश में 5,172 पीएचसी की की ज़रूरत है, जबकि सिर्फ  3692 ही मौजूद हैं।

डॉक्टरों की कमी से स्वास्थ्य विभाग और उससे जुड़ी एजेंसियां भी परेशान हैं। एनआरएचएम के वरिष्ठ सलाहकार और पूर्व डीजी हेल्थ डॉ. बीएस अरोड़ा बताते हैं, ”करीब चार साल से 5,000 डॉक्टरों की कमी है। स्वास्थ्य विभाग, लोक सेवा आयोग को भर्तियों के लिए बोलता

है, लेकिन जितनी भर्तियां होती हैं उससे ज्यादा डॉक्टर रिटायर हो जाते हैं। साथ ही, नियुक्तियों के अनुपात में डॉक्टर सरकारी नौकरी के लिए आवेदन ही नहीं करते हैं।”

डॉ. अरोड़ा बताते हैं, “उत्तर प्रदेश में डॉक्टरों की ही कमी नहीं है, बल्कि उन्हें प्रशिक्षित करने वाले मेडिकल कॉलेज भी उस अनुपात में नहीं हैं। अगर मौजूदा दशक को छोड़ दें, तो पिछले 40 वर्षों में प्रदेश में कोई मेडिकल कॉलेज ही नहीं खुला। मौजूदा सरकार में जरूर चार सरकारी कॉलेज खुले हैं।”

बलरामपुर जिले में सतघरवा ब्लॉक के गुलौली केंद्र के फार्माशिष्ट दीप चंद सैनी बताते हैं, “वर्ष 2012 तक यहां डॉ. सौरभ थे, उनके लखनऊ जाने के बाद कोई डॉक्टर नहीं आया। दो स्टॉफ  नर्स और दो एएमएम के सहारे ही केंद्र चल रहा है।”

वहीं बाराबंकी के छेदा पीएचसी में पिछले कई महीनों से कोई डॉक्टर नहीं है। यहां तैनात एएनएम सरिता बताती हैं, “मैं अपना काम करती हूं, करीब 100 गाँवों के मरीज आते हैं। महीने भर में 100 डिलीवरी होती हैं। अब डॉक्टर नहीं हैं तो दूसरे मरीज या तो वापस लौट जाते हैं। जो एंबुलेंस से आते हैं उन्हें सीएचसी सूरतगंज या जिला अस्पताल भेज दिया जाता है।”

सरिता आगे बताती हैं, “अस्पताल में कोई सुविधाएं नहीं हैं। न बिजली है, न पानी। सुरक्षा के भी कोई इंतजाम नहीं। ऐसे में शहर से कोई डॉक्टर आना ही नहीं चाहता।”

हालांकि डॉक्टर आरोड़ा बताते हैं, “समस्या सिर्फ  इन ग्रामीण स्वास्थ्य केन्द्रों पर काम करने वाले डॉक्टरों की है, बाकी बिजली, पानी, सफाई व अन्य सुविधाओं के लिए पूरा बजट सीएमओ को दिया जाता है।”

ग्रामीण इलाकों में डॉक्टरों के न जाने को बड़ी समस्या बताते हुए डॉ. बीएस अरोड़ा मजबूरियां गिनाते हैं, “लाखों रुपये खर्च कर मेहनत से पढ़ाई करने वाले डॉक्टर बिना सुख-सुविधाओं के गाँव नहीं जाना चाहते। उन्हें प्राइवेट प्रैक्टिस में सरकारी नौकरी से ज्यादा पैसा और शहर में सुविधाएं मिल जाती हैं। इसलिए नियुक्तियां निकलने के बाद भी डॉक्टर अप्लाई ही नहीं करते।” 

दो महीने में पूरा होगा टेक्निकल स्टॉफ

ग्रामीण इलाकों में सीएचसी व पीएचसी और एएनएम द्वारा संचालित कुल केंद्रों की संख्या करीब 24,728 है, जबकि आबादी के मुताबिक 37,502 केंद्र होने चाहिए। मौजूदा स्वास्थ्य केंद्रों पर टेक्निकल स्टॉफ की भी भारी कमी है। इन केंद्रों के लिए करीब 16226 कर्मचारी (स्टॉफ नर्स, लैब टेक्निशियन, एक्स-रे और पैरामेडिकल स्टॉफ ) होने चाहिए, जबकि पूरे प्रदेश में सिर्फ 10,226 ही कार्यरत हैं। डॉ. अरोड़ा की माने तो बाकी टेक्निकल स्टॉफ  की कमी दो महीने में पूरी हो जाएगी। अधीनस्थ चयन सेवा आयोग भर्तियों में जुट गया है।

ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों की बड़ी समस्याएं

  • ओपीडी का न चलना
  • डॉक्टरों का न होना
  • बिजली/पावर बैकअप का न होना 
  • बिजली न होने से फ्रीजर नहीं चल पाते
  • स्टाफ  क्वार्टर में सुविधाओं का न होना

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