यहां हर पहाड़ किसी नेता के नाम बुक है

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बुंदेलखंड के महोबा जि़ले में एक झील दिखी, जहां कभी एक पहाड़ हुआ करता था। ये क़ुदरत का करिश्मा या सदियों में हुआ कोई भूवैज्ञानिक बदलाव नहीं था– सिर्फ अंधाधुंध अवैध खनन का नतीजा था।

लगभग 70,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले खनन के गढ़ बुंदेलखंड में पहाड़ों, नदियों, तालाबों– सब को अवैध खनन वर्षों से नेस्तनाबूद कर रहा है और सारे इलाक़े को विनाश की ओर ले जा रहा है। बालू हो या गिट्टी, सब छोटे व्यापारियों को ऊपरी टैक्स (स्थानीय भाषा में गुंडा टैक्स) देना होता है।

“जितना खनन वैध तरीके से होता है, उससे कई गुना अवैध तरीकों से होता है” बांदा के आरटीआई कार्यकर्ता आशीष सागर बताते हैं। “सरकार को वैध पट्टों और रायल्टी से ही 500 करोड़ का राजस्व पिछली बार मिला था। पत्थर से ज्यादा घालमेल मौरंग में होता है। केन और बेतवा नदियों में नियमों को ताक पर रखकर दोहन हो  रहा है। बाहुबलियों के पास ही ज्यादातर पट्टे हैं।” वो आगे जोड़ते हैं।

बुंदेलखंड के सामाजिक मुद्दों को लेकर लड़ाई लड़ने वाले आरटीआई कार्यकर्ता दिनेश पाल सिंह बताते हैं, “बुंदेलखंड से रोजाना 1000-1500 ट्रक गिट्टी-मौरंग लेकर निकलते हैं। हजारों टन बुंदेलखंड की संपद्दा रोज बाहर जाती है। इसकी कमाई का आधा हिस्सा यहीं लगना चािहए।” 

अवैध खनन के दूरगामी परिणाम खेती, वन और पर्यावरण पर पड़ रहे हैं। पिछले चार दशकों से बुंदेलखंड के मध्यप्रदेश और यूपी दोनों इलाकों में शोध कर रहे कानपुर आईआईटी के पूर्व सीनियर रिसर्चर डॉ. भारतेंदु प्रकाश क्षेत्र की हर आपदा के लिए खनन को जिम्मेदार मानते हैं। वो कहते हैं, “खनन के लिए पहाड़ काटे तो पेड़ कम हुए, नदी खोदी तो पानी की राह रोकी। और सबसे ज्यादा नुकसान क्रशर की धूल ने किया है। धूल ने बारिश के बादल नहीं बनने दिए, खेती भी बर्बाद की।” डॉ. भारतेंदु के दावों का समर्थन खनन प्रभावित बांदा और महोबा के इलाके में सूखी जमीन भी करती है। डहर्रा के पूर्व प्रधान रमेश चंद्र शुक्ला (50 वर्ष) बताते हैं, “खेती को इससे 100 फीसदी नुकसान हुआ है।”

अधिकारी कहते हैं कि ऐसा नहीं हो सकता कि खनन संपूर्णतः बंद कर दिया जाए। “नदियों में खनन होता है तो उनकी सिल्ट निकलती है, वैज्ञानिक तरीके से अगर खनन होता है तो पर्यावरण को भी नुकसान नहीं है,” बाँदा के खनिज अधिकारी शैलेन्द्र सिंह कहते हैं। “बिना, पत्थर मौंरग और बालू के सड़कें, घर और बिल्डिंगें कुछ नहीं बन सकता है तो खनन भी जरूरी है। फिर इससे सरकार को राजस्व भी मिलता है। हाईकोर्ट के आदेशों के बाद अब बांदा में सिर्फ 22 जगह खनन होता है, जो नियम और शर्तों के मुताबिक है।”

लेकिन स्थानीय नागरिकों का कहना है कि खनन व्यवस्थित और कानूनी ढंग से नहीं हो रहा है। “ज्यादातर पहाड़ों के पट्टे लखनऊ-कानपुर और गाजियाबाद जैसे शहरों में बैठे बड़े लोगों के पास हैं,” महोबा स्टोन क्रशर यूनियन के अध्यक्ष राघवेंद्र सिंह ने फ़ोन साक्षात्कार में गाँव कनेक्शन को बताया, “सबको लगता है जितना ऊंचा गिट्टियों का ढेर है उतनी ही इनकी कमाई होगी। लेकिन लगभग हर क्रशर मालिक कर्जे में दबा है, इतने तो खर्चे हो गए हैं। कभी लाख डेढ़ लाख महीना आने वाला बिजली का बिल पांच लाख तक पहुंच गया है। पहाड़ों के पट्टे बड़े लोगों के पास हैं, वो हमसे मुंहमागी कीमत लेते हैं। हमारे पास बचता क्या है?”पर्यावरण के मुद्दों पर सुनवाई करने वाले अदालत का दर्ज़ा प्राप्त राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने हाल में अवैध खनन पर कड़ा रुख अपनाया है। 

एनजीटी ने जालौन और हमीरपुर जिलों में बेतवा नदी पर अवैध खनन के जांच के लिए एक समिति का गठन कर दिया है। न्यायमूर्ति यूडी साल्वी की अध्यक्षता वाली पीठ ने अदालत आयुक्त के रूप में अवकाश प्राप्त वन अधिकारी अनमोल कुमार और अधिवक्ता शरद चौहान की नियुक्ति की और उन्हें हर उस स्थान का निरीक्षण करने का निर्देश दिया जहां कथित तौर पर बालू खनन होता है और खसरा संख्या और जमीन से जुड़ी अन्य जानकारियां एकत्रित करने के लिए भी कहा। 

एनजीटी ने कहा, “कथित भूखंड के मालिकों से संपर्क कीजिये और बालू खनन करने वाले लोगों के नामों को एकत्रित कीजिये। अगर किसी ने खनन के लिए पर्यावरण संबंधी मंजूरी ली हो तो उससे जुड़ी जानकारी भी इकट्ठा कीजिये।” अधिकरण ने समिति से राजमार्गों को जोड़ने वाली सड़कों के टोल नाके पर जाकर वहां से बालू ले जा रहे ट्रकों की जानकारी इकट्ठा करने को भी कहा। 

बढ़ते अवैध खनन के कारण दुर्घटनाएं आम हो गयी हैं। लालच और सरकारी उदासीनता से कई बार जानें जा चुकी हैं। 27 मई 2016 मई को महोबा के चरखारी तहसील के गौरहारी गाँव में खुदाई के दौरान चट्टान खिसकने से पांच लोगों की मौत हो गई। लापरवाही के लिए निलंबति किए गए महोबा के खनन अधिकारी बीपी यादव के मुताबिक खनिज विभाग वर्ष 2012 में ही खदान की मियाद पूरी होने का हवाला देकर खनन बंद करने की सूचना दे चुका था।” स्थानीय लोगों के मुताबिक अकेले यही खदान महोबा में 40 मजदूरों की जान ले चुकी है। ऐसी कई खदानें महोबा, बांदा और चित्रकूट में हैं, जिनकी मियाद (10 वर्ष का पट्टा) पूरी हो चुकी है लेकिन खनन जारी है।

बुंदेलखंड के सामाजिक कार्यकर्ता और देश में चुनाव सुधारों पर काम करने वाली गैर सरकारी संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म से जुड़े संजय सिंह बुंदेलखंड की बर्बादी के लिए सरकारों को जिम्मेदार बताते हैं, 

“बुंदेलखंड को सुनियोजित ढंग से बर्बाद करने की कोशिश की गई है। यहां की समस्याएं प्रकृति से ज्यादा मानव निर्मित हैं, जिमसें अवैध और अंधाधुंध खनन का बड़ा योगदान है। खनन से जमीन, पहाड़ और भूमिगत जल सबको नुकसान हुआ है, जिसका खामियाजा यहां के करोड़ों लोग भुगत रहे हैं। बाकी लोग राहत पैकेज बनाने और खबरें सुनाने और सुनने में मगन है।”

महोबा के इलाक़े में एक ग्रेनाइट कम्पनी के मालिक ओम प्रकाश से जब पूछा गया कि नियमों के मुताबिक साईट पर न तो धूल दबाने के लिए फव्वारा चल रहा है और न ही आसपास ग्रीन बेल्ट (पेड़-पौधे), तो कुछ संकोच के साथ वो बताते हैं, “हम क्रशर वालों पर खर्चे ही इतने लाद दिए गए हैं कि कुछ बचता नहीं। कुछ रायल्टी में जाता है तो कुछ ऊपर देना होता है।”

खनन की धूल में ऊपर तक हाथ सने हैं इसकी बानगी अब तक मंत्रियों तक पर उठी लोकायुक्त की उंगलियां से भी मिलती है। लखनऊ में बैठने वाले एक सीनियर आईएएस अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “जिलों में बैठे खनिज अधिकारी सिर्फ नाम के लिए हैं। पट्टा किसे मिलना है और किस सफेद कुर्ते वाले का है सब पहले से तय है और ये भी ताकीद किया जा चुका होता है कि किस रवन्ने में हाथ डालना है और किसमें नहीं। लेकिन सब चलता है।”

क्रशर यूनियन के अध्यक्ष आगे कहते हैं, “स्टोन का पूरा काम एक नंबर का है। हम एडवांस में रॉयल्टी, सेल्स टैक्स और इनकम टैक्स देते हैं। सरकार को चाहिए कि जिनके पास क्रशर हो उन्हीं को पट्टे भी दो और स्टोन डस्ट के इस्तेमाल को बढ़ावा दो।  और जो गलत कर रहे हैं उन पर कार्रवाई हो।”

इन सब तर्कों से अलग वो झील जो कभी ऊंचा पहाड़ हुआ करती थी व्यवस्था सुधारने की हिमायत करती है। गाटा संख्या 735 वाली झील के एक किलोमीटर के एरिया में कुछ बचा नहीं है। खनन के बाद बनी पाताल तोड़ झील में पानी तो है लेकिन किसी काम का नहीं।

आशीष सागर तंज कसते हुए कहते हैं, “गाँव-गाँव, खेत-खेत तालाब बनवाने से अच्छा है, सरकार इन झीलों में ही पानी भरवाने का इंतजाम करे।” खानों से स्थानीय लोग पहले दूर जा चुके हैं तो धूल की परतों ने जमीन को खेती योग्य नहीं छोड़ा तो सब बेजार है। तालाबों के सूखने से लेकर नदियों के सिमटने तक मटमैली धूल की चादर की काली छत्रछाया है।

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