चुनावः तब लड़ाई विचारधाराओं की थी, अब व्यक्तियों की

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भारत में प्रजातंत्र नया नहीं है फिर भी बैलट से प्रतिनिधि चुनने का तरीका आजादी के बाद का है। यहां ग्रामीण स्तर पर आम सहमति या प्रत्यक्ष चुनाव की परम्परा रही है। फिर भी हमारा अनपढ़ वोटर बहुत जल्दी परिपक्व हो गया है। यह उसकी गलती नहीं कि अस्थिर सरकारें बनती हैं, चुनाव खर्चीला और हिंसात्मक हो गया है। चुनाव से स्पष्ट परिणाम नहीं निकलते हैं और दलबदल के कारण अस्थिरता बनी रहती है, इसका समाधान वोटर के हाथ में नहीं है अन्यथा हल हो गया होता। 

हमारे देश में राजनैतिक पार्टियां अपने नामकरण और चुनाव चिन्हों के चयन में काफी माथापच्ची करती हैं, प्रक्रिया पर नहीं। पार्टी के नाम से लगना चाहिए कि वह किस क्षेत्र या वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है और चुनाव चिन्ह उसके विचारों का प्रतीक होना चाहिए। विदेशों में चुनाव चिन्ह को लेकर इतना दिमाग नहीं खपाते जैसे अमेरिका की डिमोक्रेटिक पार्टी का चुनाव चिन्ह है गधा और रिपब्लिकन पार्टी का चील, कहीं उल्लू भी है चुनाव चिन्ह।

हमारे देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का चुनाव चिन्ह था दो बैलों की जोड़ी। उन्हीं दिनों गठित भारतीय जनसंघ का चुनाव चिन्ह था दिया-बाती यानी जलता हुआ दीपक। जब किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनी और बाद में जेबी कृपलानी की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में विलीन हो गई तो उनका चुनाव चिन्ह था झोपड़ी। स्पष्ट है कि ये सभी चिन्ह गाँव के लिए प्रासंगिक थे।

राम मनोहर लोहिया ने गाँवों में पूजा जाने वाला वट वृक्ष यानी बरगद के पेड़ को अपनी सोशलिस्ट पार्टी का चिन्ह बनाया था। अब सोशलिस्ट पार्टी ने गाँवों की सबसे प्रचलित सवारी साइकिल को अपना चिन्ह बनाया है। कम्युनिस्ट पार्टियों ने रूस से प्रेरित होकर चुनाव चिन्ह हसिया-बाली और हसिया-हथौड़ा बनाया है। दूसरों ने इसी प्रकार हलधर किसान, हाथी, धनुष बाण या फूल पत्ती को चिन्ह बनाया है। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान और बांगलादेश में प्रजातंत्र की जड़ें इतनी मजबूत नहीं है जितनी भारत में फिर भी बांगलादेश की पार्टियों के चुनाव चिन्ह भारत की ही तरह ग्रामीण परिवेश को दर्शाते हैं जैसे धान की बाली, नाव, हल, तराजू, मशाल, मोमबत्ती आदि। पाकिस्तान की पार्टियों के चुनाव चिन्ह भारत और बांग्लादेश से थोड़ा भिन्न हैं। इन देशों की पार्टियां अक्सर अपने नाम में पहचान के लिए इस्लामिक अथवा मुस्लिम अवश्य जोड़ती हैं।

मुझे याद है 1952 के चुनाव में मैं वोटर तो नहीं था लेकिन हमारे गाँव के जानकी प्रसाद मिश्रा बड़े गर्व से बता रहे थे कि जब वह वोट डालने गए तो उन्हें बैलट पेपर दिया गया जिसे, चुनाव चिन्ह छपे हुए मनपसन्द बैलट बाक्स में डालना था। उन्होंने बताया हर बक्से पर किसी न किसी दल का चुनाव चिन्ह छपा था लेकिन बैलट पेपर पर चुनाव चिन्ह नहीं था। आप जिस चिन्ह वाले बक्से में चाहें अपना मतपत्र डाल सकते थे। उन्होंने आगे बताया कि गाँव के लोगों ने तमाम बैलट पेपर अपनी पसन्द के बक्से के ऊपर ही या उसके सामने डाल आते थे जैसे मूर्ति के सामने रुपया डालते हैं। उन्होंने बक्सों पर या उनके सामने पड़े सारे बैलट पेपर दो बैलों की जोड़ी वाले बक्से में डाल दिए।

सभी मतपत्र एक जैसे होते थे न उन पर पार्टी का नाम और न कैन्डीडेट का। चुनाव चिन्ह वाले बक्से में मौजूद मतपत्र ही एक मात्र आधार होते थे हार जीत का। गिनती के समय इधर का उधर करना आसान था लेकिन पांच साल बाद 1957 में बैलट पेपर पर पार्टी का नाम और चिन्ह छपने लगे। शिक्षा का विस्तार हुआ और हर बार कमियों को दूर करते हुए चुनाव प्रणाली में सुधार हुए हैं। मतपत्र पर कैन्डीडेट्स के नाम और उनके चिन्ह छपे रहते हैं और उसी पर मुहर लगानी होती है या फिर उसी के सामने की बटन दबानी होती है। लेकिन अभी भी मतगणना के लिए मतपेटियों को, मतगणना केन्द्र तक ले जाया जाता है, जहां कई दिनों तक उनकी सुरक्षा करनी पड़ती है जब तक गणना ना हो जाए। हम आशा कर सकते हैं कि आने वाले समय में जब कम्प्यूटर से जुड़ी मशीनों पर वोटिंग के लिए बटन दबाएंगे तो गणनास्थल तक बक्से नहीं ढोने पड़ेंगे और परिणाम के लिए प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी।

दिल्ली में पिछली बार चुनाव हुए तो भाजपा सहित किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और लोकसभा चुनाव के पहले ईमानदार दिखने के चक्कर में कोई भी सरकार बनाने को तैयार नहीं था वरना चार या छह एमएलए खरीदना कोई कठिन काम नहीं था। कहना सरल है कि दुबारा चुनाव हों लेकिन चुनाव के खर्चे का बोझ तो आम आदमी पर ही आता है और यदि दुबारा चुनाव के बाद भी किसी को बहुमत ना मिला तो ? जानकारों का कहना है कि अल्पमत में होते हुए भी सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का संविधान में प्रावधान है। लेकिन ऐसी स्थिति में सरकार के ऊपर अस्थिरता की तलवार लटकती रहेगी।

कई देशों ने चुनाव प्रक्रिया में सुधार करके अधिकाधिक लोगों की पसन्द की सरकार बनाने की व्यवस्था की है। इसका एक तरीका है कि वोट पार्टियों को दिए जाएं वह भी वरीयता क्रम में न कि व्यक्तियों को। बाद में पार्टियां अपने प्रतिनिधि संसद और विधानसभा के लिए नामित करके मिले मतों के अनुसार भेजें। तब यह नौबत कभी नहीं आएगी कि सरकार ना बन सके, आयाराम गयाराम, गुटबाजी और अनुशासनहीनता की समस्या भी नहीं रहेगी। लेकिन इसमे कठिनाई यह है कि सरकार पर संगठन हावी रहेगा और प्रतिनिधियों की व्यक्तिगत आजादी नहीं बचेगी।

अमेरिका और फ्रांस जैसे देशों ने राष्ट्रपति प्रणाली विकसित की है जिसमें अधिकारों और कर्तव्यों में सन्तुलन है। उनका राष्ट्रपति अपने देश के जनमानस का प्रतिनिधित्व करता है, सर्वशक्तिमान है इसलिए खींचतान नहीं होती। लगता है नरेन्द्र मोदी का काम करने का तरीका कुछ वैसा ही है। परन्तु हमने अंग्रेजों से संसदीय प्रणाली जैसी की तैसी ले ली, हमने उसे विकसित नहीं किया था। जब प्रजातांत्रिक ढांचों के गुण दोषों की तुलना करते हैं तो इसमें हमारे प्राचीन गणराज्यों और पंचायतों के अनुभव का इतिहास कहीं नहीं रहता। 

वर्तमान व्यवस्था में मतदाताओं के वोट तमाम दलों में विभाजित हो जाते हैं और जीता हुआ प्रतिनिधि सही मायने में अपने क्षेत्र का पसन्दीदा प्रतिनिधि नहीं होता। इससे बचने के लिए पार्टियों की संख्या घटे और फिर मतदान वरीयता के आधार पर हो यानी आनुपातिक प्रतिनिधित्व। इस विधा में यदि कोई उम्मीदवार पहली बार की गिनती में ही 50 प्रतिशत या अधिक वोट हासिल कर ले तो विजयी घोषित कर दिया जाए अन्यथा दूसरी वरीयता वाले वोट भी गिने जाए और पहली वरीयता वाले वोटों में जोड़ दिए जाएं। गिनती का यह क्रम तब तक चलता रहे जब तक कोई उम्मीदवार आधे से अधिक वोट हासिल ना कर ले।

चुनाव खर्च और चुनावी हिंसा घटाना उतना ही जरूरी है जितना जनमत का मूल्यांकन। देश में प्रान्तीय और राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव एक साथ हुआ करते थे और आज की अपेक्षा खर्चा बहुत कम होता था। महंगाई, भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी भी अगर होती थी तो पांच साल में केवल एक बार। लेकिन सत्तर के दशक में उस समय की प्रधानमंत्री इन्दिरागांधी ने तर्क दिया कि प्रान्तीय और राष्ट्रीय मुद्दे अलग-अलग होते हैं इसलिए दोनों के चुनाव अलग-अलग होने चाहिए। एक समय आया कि हर साल कहीं न कहीं चुनाव होते रहते थे और झंडा, डंडा, बैनर, असलहे, और किराए के बलवान हर समय उपलब्ध रहने लगे। चुनाव प्रचार और संचालन के लिए कम्पनियां बन गईं। प्रान्तों में क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व हुआ और केन्द्र की शक्ति घटी।

दो-तीन अन्य सुधारों की मांग रही है, एक तो चुने जाने के बाद भी यदि जनता का बहुमत चाहे तो प्रतिनिधि को वापस बुला सके यानी ‘राइट टू रिकाल’ और दूसरा यह कि मत देते समय सभी उम्मीदवारों को अयोग्य कहने का अधिकार यानी ‘‘राइट टू रिजेक्ट।” तीसरा है दागी उम्मीदवारों की संख्या घटाना। एक समय आया जब भले लोगों ने अराजक तत्वों का समर्थन लेने में परहेज़ छोड़ दिया, फिर क्या था अराजक लोगों ने स्वयं अपने को प्रतिनिधियों के रूप में पेश करना आरम्भ कर दिया । न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण कुछ सुधार हुआ है परन्तु बहुत कुछ बाकी है।

चुनावों में भारी खर्चे के कारण कोई भी व्यक्ति चाहे जितना ही भलामानुस और विद्वान क्यों न हो, धन की कमी में चुनाव नहीं लड़ सकता। राजनैतिक दल भी टिकट देने के पहले जानना चाहते है कि खर्चा कितना करोगे। यदि उम्मीदवारों का परिचय सरकार कराए और चुनाव के समय की चिल्ल-पों बन्द हो जाए तो खर्चा घटेगा, काला धन और महंगाई भी घटेगी। अभी राजनैतिक दल चन्दा लेने में काले धन से परहेज़ नहीं करते और इसीलिए अपने को सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं लाना चाहते। पारदर्शिता की बातें तो करते हैं परन्तु व्यवहार में नहीं लाना चाहते। 

दलबदल का रोग बड़े जोर से फैला था और यहां तक कि सवेरे एक दल में हैं तो शाम को दूसरे में। दलबदल विरोधी कानून के चलते अब आयाराम गयाराम का जमाना तो नहीं है लेकिन बगावत अभी भी होती है। आशा की जानी चाहिए कि उच्चतम न्यायालय का आदेश मानते हुए अराजक तत्वों पर प्रभावी अंकुश लगेगा और पश्चिमी देशों की तरह दो दलों की प्रणाली धीरे-धीरे विकसित होगी। आनुपातिक वोटिंग द्वारा चुने गए प्रतिनिधि जनभावनाओं का बेहतर प्रतिनिधित्व करेंगे।

एक बार चौधरी चरन सिंह ने कहा था पार्टियां तो आदमियों से बनती हैं, यदि नेता ठीक होंगे तो पार्टियां ठीक रहेंगी। वह ईमानदार नेताओं में गिने जाते थे। चुनाव में कई बार मु्द्दे गौण हो जाते हैं और व्यक्तियों पर चुनाव केन्दि्रत हो जाता है।

सत्तर के दशक में जो चुनाव हुए उनमें सरकार की स्थिरता का मुद्दा बना और इंदिरा गांधी बनाम बाकी सब थे और 40 साल बाद अब विकास का मुद्दा है और नरेन्द्र मोदी बनाम बाकी सब हो गए हैं। 

जवाहर लाल नेहरू ने पचास के दशक में कांग्रेस को मुद्दा दिया था ‘‘सोशलिस्टिक पैटर्न आफ सोसाइटी” यानी समाज की समाजवादी पद्धति। इसका जो भी मतलब हो, कांग्रेस के प्रखर समाजवादी जैसे डॉ अम्बेडकर, आचार्य जेबी कृपलानी, राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण आदि नेहरू के सोच से सन्तुष्ट नहीं हुए और कांग्रेस से अलग हो गए। नेहरू के व्यक्तित्व के सामने विचारधारा गौण हो गई। जब 1962 के अक्टूबर माह में भारत पर चीन का आक्रमण हुआ और भारत को पराजय का मुंह देखना पड़ा तो कांग्रेस पर बहुत बड़ा धब्बा लगा और वहीं से इसका पराभव आरम्भ हो गया।

समय के साथ चुनाव प्रक्रिया में सुधार हुए हैं जैसे दलितों के बदले जबरिया ठप्पा लगाकर वोट डालने की गड़बड़ी की सम्भावनाएं घटी हैं। अब चुनाव मैदान में अपराधियों की संख्या कुछ घटी है, लाठी-डंडा और बन्दूकें नहीं चल रहीं हैं, मौतें कम हो रही हैं आदि। लेकिन अब चल रहीं हैं ज़हर बुझी जुबानें जिनसे निकल रहीं हैं जोरदार गालियां। राहुल गांधी ने मोदी पर कीचड़ फेंका तो भाजपा के लोग पूरी वंशावली का चिट्ठा खोलने के लिए तैयार बैठे थे। आशा करनी चाहिए कि एक दिन आएगा जब हमारे देश के चुनाव भी शान्तिपूर्वक, सभ्य भाषा में मुद्दों के आधार पर लड़े जाएंगे।   

इस देश में भी चुनावी लड़ाई में विचारधाराओं की टक्कर हुआ करती थी, व्यक्तियों की नहीं। एक समय जरूर आया जब व्यक्ति प्रधान दिखा और देवकान्त बरुआ जैसे लोगों ने कहा  ‘‘इंदिरा ही भारत हैं और भारत ही इंदिरा” हैं। वह शायद पहला मौका था जब पार्टी प्रमुख को हराने के लिए विरोधी एकजुट हुए थे, अन्यथाः पार्टी प्रमुखों को अपेक्षाकृत सरल टक्कर दी जाती थी ताकि प्रतिष्ठा दांव पर ना चढ़े, माहौल उत्तेजक और विषाक्त ना बने। भाषा में कटाक्ष और व्यंग होते थे अपशब्द नहीं।

वास्तविक युद्ध में तो राजा से राजा भिड़ते हैं परन्तु शतरंज तक के खेल में राजा से राजा को भिड़ाने का मतलब होता है या तो सेना समाप्त हो गई है अथवा दूसरी चाल नहीं बची है। राजा हारेगा तो सेना हथियार डाल देगी अथवा तितर बितर हो जाएगी। इसका हिसाब केजरीवाल ने लगाया होगा जब वाराणसी में मोदी से जाकर टकराए थे।

गालियों की भाषा में प्रचार की परम्परा भी आम आदमी पार्टी ने बढ़ाई है। दिल्ली में शीला दीक्षित को हराने के बाद केजरीवाल ने अपना संयम खो दिया। सभी को चोर, लुटेरा, झूठा, दगाबाज वगैरह विशलेषणों से आहत करने लगे। कांग्रेस पार्टी जिसमें पुराने संस्कार रहे है उसके नेता बेनी प्रसाद वर्मा, दिग्विजय सिंह, कपिल सिब्बल, खुर्शीद आलम को भी मानो केजरीवाल की संगत का असर हो गया। इतना कड़वाहट भरे चुनाव पहले कभी नहीं देखा।

देश का पहला आम चुनाव 1952 में हुआ था जो विचारों का संग्राम था। नेहरू के खिलाफ एक जाने माने संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने इलाहाबाद से चुनाव लड़ा था। ब्रह्मचारी जी गोवधबन्दी के पक्ष में और हिन्दू कोड बिल के विरोध में थे। सन्तों ने खुलकर ब्रह्मचारी का प्रचार किया था, कुछ ने तो गंगाजली हाथ पर रखाकर वोट का संकल्प कराया था। नेहरू के जीतने पर विरोधियों के मन में बेइमानी की शंका तो बनी लेकिन आज जैसी कड़वाहट नहीं आई। भाषा में कभी कड़वाहट नहीं दिखी।

कड़वाहट का प्रमुख कारण है कि अब सरकार पर काबिज दल सारे देश की सम्पत्ति को अपनी सम्पदा समझते है और यदि कोई विरोधी पार्टी सरकार बदलने की हालत में दिखाई पड़ती है तो शासक पार्टी को लगता है उसकी जागीर चली जाएगी। गांधी जी का ट्रस्टीशिप यानी निर्लिप्त रक्षक का सिद्धान्त अब नहीं रहा। वैसे आज की तारीख में भी कुछ लोग अपने कारणों से शिष्टाचार निभाते दिखते हैं। फिर भी अब दोस्ताना चुनाव का पुराना वातावरण नहीं बचा है। जब तक प्रतिद्वंद्वियों में विदेश, अहंकार और निजी स्वार्थ की भावना रहेगी, स्वस्थ चुनावी वातावरण की कल्पना नहीं की जा सकती।

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